पहाड़ी क्षेत्र में सावधानी से हों विकास कार्य

 

इन्सान बेहतर जीवन की अभिलाषा रखता है और बेहतर जीवन स्तर विकास के बिना संभव नहीं है। आर्थिक, सामाजिक अथवा भौतिक हर प्रकार के विकास का अन्तिम लक्ष्य मानव जीवन के स्तर को सुधारना तथा लोगों के लिए विकल्पों को बढ़ाना है। यह लक्ष्य हमें प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से ही संभव है और यह लक्ष्य प्रकृति के साथ सामंजस्य से ही हासिल किया जाना चाहिये। अगर लक्ष्य प्राप्ति के लिये प्रकृति से ज्यादती की गयी तो उसका परिणाम जोशीमठ जैसा ही सामने आ सकता है। 
यह प्रकृति से बेतहाशा छेड़छाड़ का यह पहला उदाहरण नहीं है। इसी तरह फरबरी 2021 में धौलीगंगा-ऋषिगंगा में बन रहे बिजली प्रोजेक्टों को भी बाढ़ ने हटा कर संदेश दे दिया था कि अगर इतने संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करोगे तो यही हाल होगा। उस बाढ़ में 200 से अधिक लोग मारे गये थे और अरबों रुपये मूल्य की सरकारी तथा गैर-सरकारी सम्पत्तियां नष्ट हो गईं थी। बेहद सर्दी के मौसम में हिमालय पर बाढ़ आना एक चेतावनी ही थी। इससे पहले 2013 में केदारनाथ के ऊपर अकल्पनीय बाढ़ आ गयी जिसमें हजारों तीर्थ यात्री मारे गये। उस क्षेत्र में बाढ़ ने सरकार और लोगों द्वारा किये गये सारे अतिक्र मण एक झटके में बहा दिये थे। खेद का विषय है कि न तो हम और न ही हमारी सरकारें प्रकृति के संदेश को समझ पाये। 
बेहतर जीवन के लिये हमें जीवन की बेहतर सुविधाएं अवश्य चाहिये। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। हमारी आवश्यकताएं ही आज हमें धरती से लेकर अंतरिक्ष में ले गयी हैं। हमें बेहतर जीवन के लिये बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल के साथ-साथ आजीविका के बेहतर साधन भी चाहिएं लेकिन हम ये साधन प्रकृति से मांग कर तो हासिल कर सकते हैं मगर प्रकृति को लूट कर नहीं। सर्व शक्तिमान प्रकृति की प्रवृत्ति आत्मघाती है। हमें जिस विज्ञान और प्रौद्योगिकी का दम्भ है, वह भी इसी प्रकृति के अनगिनत रहस्यों में से बहुत थोड़े से रहस्यों के खुलासों का भाग है।
कुल मिला कर देखा जाये तो कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक सभी हिमालयी राज्य भूकम्प और भूस्खलन की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन में हैं। हिमालयी क्षेत्र और विशेषकर उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और उच्च हिमालयी क्षेत्र में नदियों पर विशाल जलविद्युत परियोजनाओं का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिये। उत्तराखण्ड में वर्तमान में टिहरी बांध समेत कुल 4183.10 मेगावाट क्षमता की 42 छोटी बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं संचालित हो रही हैं जिनका वार्षिक उत्पादन क्षमता से आधे से भी कम है। इसी तरह राज्य क्षेत्र में 2535.8 मेमावाट क्षमता की  3 से लेकर 300 मेमावाट तक की 27 परियोजनाएं विकसित की जा रही हैं। प्रदेश में एनटीपीसी जैसे केन्द्रीय उपक्र मों द्वारा 5,801 मेमावाट क्षमता की कुल 22 परियोजनाएं विकसित की जा रही हैं जिनमें उत्तरकाशी जिले की सबसे छोटी जाडगंगा (50 मेमावाट) और 1000 मेमावाट की सबसे बड़ी टिहरी पम्प स्टोरेज परियोजना है। इसी तरह निजी क्षेत्र द्वारा 1360.6 मेमावाट की 33 परियोजनाएं विकसित की जा रही हैं जिनमें 340 मेमावाट की सबसे बड़ी उर्थिंग परियोजना है।
आज जो स्थिति जोशीमठ की है लगभग वैसी ही 2003 में वरुणावत पर्वत के दरकने से उत्तरकाशी के समक्ष खड़ी हो चुकी है। भूमि धंसान के कारण संकटग्रस्त जोशीमठ के ठीक सामने स्थित चांई गांव में बिल्कुल ऐसी ही स्थिति आ चुकी है। चाई गांव के धंसने का भी एक कारण उसके नीचे बनी विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग का निर्माण माना गया। उस परियोजना का लामबगड़ स्थित बैराज एवलांच प्रभावित क्षेत्र में होने के साथ ही 2013 की आपदा में बर्बाद हो चुका था। जोशीमठ की ताजा आपदा के लिये 520 मेगावाट क्षमता के तपोवन-विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट की जिस लगभग 11 किमी निर्माणाधीन सुरंग को भी एक कारण माना जा रहा है, वह 7 फरवरी, 2021 की धौलीगंगा की बाढ़ की चपेट में आ चुकी है। उसी सुरंग के अन्दर धौलीगंगा की बाढ़ का पानी और मलवा घुसने से परियोजना में लगे 200 से अधिक मजदूर मारे गये थे जिनके अंग अब भी बरामद हो रहे हैं। उस बाढ़ की भेंट चढ़ी ऋषिगंगा परियोजना का भी चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली के लोगों और चण्डी प्रसाद भट्ट द्वारा निरन्तर विरोध किया जाता रहा। उत्तरकाशी जिले की असी गंगा में बने बिजली प्रोजेक्टों का 2010 की बाढ़ में यही हाल हुआ। जो हाल आज जोशीमठ का है वही हाल रेणी गांव का  2021 में हो चुका है। टिहरी गढ़वाल में फलिंडा परियोजना को भी भारी जनाक्र ोश के बावजूद आगे बढ़ाया गया। अलकनन्दा पर 330 मेगावाट की श्रीनगर परियोजना का प्रभाव भी चौरास समेत आसपास की बस्तियों पर देखा गया।
खतरा केवल बिजली परियोजनाओं से नहीं बल्कि प्रकृति विरोधी विकास की सोच से है। केदारनाथ में आई बाढ़ से सबक नहीं सीखा गया और दुबारा वहां भारी भरकम सीमेंट कंकरीट का ढांचा खड़ा कर दिया।  उसके बाद भूस्खलन संवेदनशीलता की अनदेखी कर चारधाम आल वेदर रोड के नाम पर 825 किमी लम्बे सड़क नेटवर्क से 40 हज़ार से अधिक पेड़ और अनगिनत झाड़ियों समेत पहाड़ों को काट-काट कर पुराने सुसुप्त भूस्खलनों को सक्रिय कर दिया गया जबकि चिपको के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर इसरो के नेतृत्व में भारत सरकार के एक दर्जन विशेषज्ञ संस्थानों ने इसी सम्पूर्ण चारधाम यात्र मार्ग का लैंड स्लाइड जोनेशन एटलस तैयार कर भूस्खलन के लिये संवेदनशील दर्जनों स्पष्ट चिन्हित किये थे। 
ऋषिकेश-बदरीनाथ मार्ग तीर्थाटन और पर्यटन के लिये ही नहीं बल्कि सामरिक दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है। चीन की ओर से लगभग हर साल बाड़ाहोती से घुसपैठ की कोशिश होती रहती है। इसीलिये हमारी सेना हर समय चौकस रहती है। सुरक्षा और धार्मिक कारणों से मार्ग का सुगम और सुरक्षित होना ज़रूरी है। पहाड़ खोद कर सड़क चौड़ी तो हो सकती है लेकिन उसे सुगम और सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। यही नहीं, केदारनाथ की सुरक्षा के नाम पर उसे असुरक्षित बनाने के बाद अब मास्टर प्लान के नाम पर बदरीनाथ क्षेत्र में भी छेड़छाड़ की जा रही है जबकि यह धाम भी भूस्खलन और एवलांच की दृष्टि से अति संवेदनशील है। हिमालयी क्षेत्र में बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन आम है। ऐसे में विकास के नियोजन में बहुत सावधानी और सूझबूझ की आवश्यकता है। (अदिति)