न्यायसंगत नहीं है नदियों के पानी का वितरण

 

समझौतों और लम्बी कानूनी लड़ाई के बावजूद पंजाब में पानी की समस्या पहले की तरह ही बनी हुई है। 1947 में प्रदेश के विभाजन और 1966 में इसके तीन हिस्सों में बांटे जाने के बाद देश के संविधान और कानूनों की स्पष्ट अनदेखी के कारण मुश्किलें और भी बढ़ गई हैं।
पानी तो राज्यों का विषय है। संविधान की अनुसूची 7 में राज्य सूची की एंट्री 17, राज्यों को पानी से निपटने का अधिकार देती है, चाहे पानी की सप्लाई, सिंचाई, नहरों, ड्रेनों और किनारे, पानी का भंड़ार और जल शक्ति अनुसूची 1 की एंट्री 56 के उपबंधों के अधीन है। 
अनुसूची 1 की एंट्री 56, जो केन्द्र सरकार के विषयों से संबंधित है, अंतर्राज्यीय दरियाओं और दरियाओं की घाटियों को नियमित करने और उनका विकास करने की उस हद तक व्यवस्था करती है, जिस हद तक संघ के कंट्रोल अधीन ऐसे नियमित करने और विकास करने के अमल को संसद द्वारा कानून व जनहित में ऐसा करने का अधिकार दिया गया हो। आर्टीकल 262 केन्द्र सरकार को अंतर्राज्यीय दरियाई पानी का उपयोग, बंटवारा और कंट्रोल से संबंधित कानून बनाने का अधिकार देता है।
हरियाणा और राजस्थान राज्य तीन दरियाओं रावी, ब्यास और सतलुज के पानी पर अपना दावा करते हैं, जो इन राज्यों के लिए अंतर्राज्यीय दरिया नहीं है। पंजाब राज्य को इन दरियाओं के पानी के उपयोग, प्रबंध और क्रमबद्ध करने का अधिकार है। भारत सरकार ने अलग-अलग राजनीतिक समझौतों द्वारा दोनों राज्यों के बीच के मुद्दों को सुलझाने की कोशिश की, लेकिन वह यह काम नहीं कर सकी और इसकी कोई वैधानिक मंजूरी भी नहीं थी। उसने ‘एराडी ट्रिब्यूनल’ की स्थापना की थी, जिसने 1987 में अपना अंतिम फैसला दिया था, जिसको अंतर्राज्यीय जल विवाद एक्ट-1956 (इंटरस्टेट वाटर डिस्प्यूट एक्ट-1956) के तहत ज़रूरत अनुसार सरकार द्वारा नोटिफाई भी नहीं किया गया था।
सतलुज, रावी और ब्यास दरियाओं के पानी पर हरियाणा और राजस्थान का दावा संवैधानिक तौर पर उचित नहीं है। वह 1960 की सिंधु जल संधि के आधार पर अपने दावों का समर्थन करते हैं। राजस्थान को रावी, ब्यास का पानी 1955 के फैसले के अनुसार उसके द्वारा उस समय लिये जा रहे पानी के उपयोग को कायम रखने के लिए दिया गया था, परन्तु तब हरियाणा अलग राज्य नहीं था। लेकिन उनका मौजूदा दावा 1966 से पहले के उपभोक्ता होने और बेसिन (तटवर्ती) राज्य होने का है। पंजाब यमुना, घग्गर, मारकंडा, तंगरी और सरस्वती नदियों का उपभोक्ता राज्य था, लेकिन उसको इन नदियों के पानी में से कोई हिस्सा नहीं मिला। एक बेसिन राज्य एक ऐसा राज्य होता है, जो अपने में से निकलती नदी द्वारा सिंचाई करता या अन्य तरीके से लाभ प्राप्त करता है। 
पंजाब हरियाणा से बड़ा है और अविभाजन पंजाब की सम्पति का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करता है। हालांकि इसको दिया गया पानी हरियाणा से कम है, जैसे कि निम्न सूची में बताया गया है :
उपरोक्त दर्शायी सूची में मारकंडा, घग्गर, कौशल्या, टांगरी और सरस्वती नदियों के पानी में से हरियाणा को मिलता हिस्सा शामिल नहीं है। 
पंजाब को कोई हिस्सा दिये बिना हरियाणा को इन दरियाओं से 2.703 एम.ए.एफ. पानी मिलता है और रावी, ब्यास के पानी की इसकी मौजूदा उपयोगिता 1.62 एम.ए.एफ. है इस प्रकार पंजाब के 12.24 एम.ए.एफ. की तुलना में हरियाणा को 13.30 एम.ए.एफ. (12.48+2.703-1.88=13.30) पानी मिलता है।
पंजाब भी घग्गर नदी के कुछ पानी का उपयोग करता है हालांकि बाढ़ के कारण यह अनिश्चित है और हरियाणा के एतराजों के कारण घग्गर बाढ़ कंट्रोल प्रोजैक्ट केन्द्रीय जल कमिशन (सी.डब्ल्यू.सी.) की मंजूरी के लिए लंबित है।
हरियाणा और पंजाब के बीच मौजूदा विवाद रावी और ब्यास के पानी का कथित हिस्सा प्राप्त करने के लिए सतलुज-यमुना लिंक (एस.वाई.एल.) नहर के शीघ्र निर्माण से पैदा हुआ है। 1981 के समझौते में एस.वाई.एल. के निर्माण की व्यवस्था थी। हालांकि पंजाब टर्मीनेशन ऑफ एग्रीमैंटस एक्ट 2004 ने सभी समझौतों को रद्द कर दिया था। भारत के राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी है। सुप्रीम कोर्ट ने टर्मीनेशन एक्ट के खिलाफ राये दी, लेकिन विवाद की गुटों ने कानून को रद्द करने के लिए आगामी कारवाई नहीं की।
पानी की उपलब्धता का मूल्यांकन किए बिना नये जल विभाजन ढ़ाचे का निर्माण करना तर्कहीन होगा। जलवायु तबदीली, गलेशीयरों के पिघलने और वर्षों से कम बारिश के कारण दरियाओं का पानी कम हो गया है। पिछले तीन दशकों में औसत बारिश 1990 में 754.6 मि.मी. से कम होकर 2020 में 387.6 मि.मी. रह गई है। 1921-60 क्रम अनुसार 34.34 एम.ए.एफ. अनुमानित कुल पानी की उपलब्धता 1981-2013 की प्रवाह क्रम के अनुसार लगभग 18 प्रतिशत कम होकर 28.26 एम.ए.एफ. हो गई है।
पंजाब के पास ज्यादा पानी नहीं है। भू-जल पर असकी निर्भरता काफी हद तक बढ़ गई है। पंजाब अपनी 52 एम.ए.एफ. से ज्यादा की कुल ज़रूरत का 72 प्रतिशत हिस्सा धरती के नीचला पानी से पूरी करता है और दरियाओं का पानी मात्र 28 प्रतिशत का योगदान डालता है। पंजाब में भू-जल के विकास का स्तर हरियाणा में 134 प्रतिशत के मुकाबले 164 प्रतिशत था। केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने हरियाणा के लगभग 61 प्रतिशत के मुकाबले पंजाब के 78 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से को ‘डार्क ज़ोन’ घोषित किया है। पेयजल के अलावा इन क्षेत्रों में भू-जल निकासी की मंज़ूरी नहीं है।
पंजाब जिसके पास तीन 12 माह बहने वाले दरिया हैं, जो इसकी मांग का 55 प्रतिशत पूरा कर सकते हैं, मारूस्थल बनने की तरफ बढ़ रहा है और इसको बचाने के लिए तुरंत ध्यान देना चाहिए। दरियाई और भू-जल की उपलब्धता और इसके अनुकूल उपयोग का हाईड्रोलाजीकल मूल्यांकन संबंधी बिना किसी झिझक शीघ्र फैसला किया जाना चाहिए।
ज्यादा पानी के सिद्धांत के समर्थक अकसर ज़ोर देते हैं कि पंजाब से बड़ी मात्रा में पानी पाकिस्तान की तरफ जा रहा है। यह तर्क साधारणीकरण की गिरावट से ग्रस्त है। बारिश के मौसम में पानी पाकिस्तान में चला जाता है, जब स्थानीय मांग कम होती है। भारत और पंजाब की सरकारों को बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए जलघरों का निर्माण करना चाहिए था, लेकिन सी.डब्ल्यू.सी. के तकनीकी मूल्यांकणों ने इनको व्यवहारिक नहीं पाया है। यह तकनीकी तौर पर संभव न होने वाली किसी चीज़ के लिए स्वार्थी अधिकारों द्वारा खड़ा किया गया एक मुद्दा है। यह भ्रम फैलाने वाले झूठे तर्क राजनीतिक तौर पर संवेदनशील राज में अनावश्यक आग भड़काते हैं।
दूसरी तरफ सिंधू जल संधि 1960 के तहत पूरी समर्था और लाभ प्राप्त करने के लिए भारत सरकार, सैंट्रल वाटर कमिशन और जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा अभी भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। जम्मू-कश्मीर में जलघरों, चैक डैम और जल विभाजन चैनल बनाने की ज़रूरत है, ताकि उस राज्य के लिए ज्यादा पानी यकीनी बनाया जा सके। भारत सरकार के ऐसे दखल के साथ पानी की बचत सभी राज्यों के फायदे के लिए पंजाब के पूल में और पानी जोड़ सकती है। (शेष कल)
-अजीत ब्यूरो