कहां ले जायेगी कज़र् में डूबती हुई अर्थ-व्यवस्था ?

 

केंद्रीय बजट में इस बार 2023-24 वित्त वर्ष के लिए पूंजीगत व्यय में करीब दस लाख करोड़ रुपये के प्रावधान पर सभी ने प्रसन्नता व्यक्त की है। माना गया है कि पिछले तीन वर्ष में हमारे विकास के इस मूल निर्धारक व्यय में करीब दोगुनी और इस साल अकेले इसमें करीब एक तिहाई की बढ़ोतरी सरकार का बेहद सार्थक कदम है। लेकिन ध्यान रहे इसी बजट में ये भी दर्शाया गया है कि करीब इतनी ही राशि केन्द्र सरकार अपने लिए गए कज़र्े पर ब्याज राशि की अदायगी पर खर्च करेगी। मतलब यह कि जितनी राशि हम अपनी उत्पादकता मूलक बुनियादी आधारभूत संरचना और सामाजिक व मानवीय पूंजी विकास पर खर्च कर रहे हैं, करीब उतनी ही राशि हमें अपनी अनुत्पादक मानी जाने वाली कज़र् के ब्याज की अदायगी गतिविधि पर भी खर्च करनी पड़ रही है। गौरतलब है कि भारत सरकार की यह ब्याज अदायगी उसके हासिल राजस्व का करीब पैंतीस प्रतिशत लील रही है।
 ऐसे में सवाल ये उठता है कि हमारी अर्थव्यवस्था चाहे सरकार वह नियंत्रित सार्वजनिक अर्थव्यवस्था हो या कार्पोरेट  नियंत्रित निजी क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था, ये सभी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व बचत संगठनों से लिए गए ऋण और स्टाक बाज़ारों उगाही गई पूंजी पर इस कदर आश्रित क्यों   हैं? क्योंकि इन्हीं वजहों से सार्वजनिक ऋण का आकार इतना बड़ा आकार ले चुका है, साथ ही देश के नामी कार्पोरेट घरेलू व विदेशी बैंकों के भारी कज़र्े पर आश्रित हो गये हैं। हमारे सार्वजनिक ऋण का कुल आकार इसके सकल घरेलू उत्पाद का करीब 88 प्रतिशत है। इस राशि में पिछले तीन सालों में लगातार वृद्धि दर्ज हुई। हालांकि दीर्घकालीन अतीत की बात करें, तो इसका आकार सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 65 से 70 प्रतिशत के बीच रहता आया है। पहली बार 2018 में यह जीडीपी का 80 प्रतिशत और साल  2020 में 89 प्रतिशत पहुंचा और अब यह एक प्रतिशत घटकर करीब 88 प्रतिशत के आस-पास है।
इसी तरह देश के बड़े कार्पोरेट की बात करें तो उन पर भी वित्तीय संस्थाओं से लिए गए कज़र्े और शेयर बाज़ार की पूंजी की विशाल देनदारियां हैं। इस आर्थिक स्थिति को हम आधुनिक अर्थ-व्यवस्था की कार्यप्रणाली का हिस्सा माने या यूं कहें कि सरकार व निजी निगमों के आर्थिक विस्तार का अब यही जरिया बन चुके हैं? कज़र् या उधार पर सरकारों और कॉर्पोरेट की इस निर्भरता के अलावा आधुनिक अर्थ-व्यवस्था का जो दूसरा चलन दिखता है, वह है सरकारों द्वारा अपनाये जाने वाला घाटे का बजट। इसके तहत वित्तीय घाटे के बढ़ने और घटने की जो बातें की जाती हैं, उसका सीधा अर्थ सरकार के खर्चे में बाज़ार से लिए गए उधार या कज़र् के अंशदान की बढ़ती व घटती मात्रा से है। घाटे के बजट का दूसरा महाऔजार है नई मुद्रा जारी करना यानी नये नोट व सिक्के छापना व ढालना। इन वित्तीय कारगुजारियों से ही मुद्रा स्फीति उत्पन्न होती है जिसे केन्द्रीय बैंक मुद्रा प्रसार व कज़र्े की मात्रा तथा इनके दरों के निर्धारण के जरिये नियंत्रित करने का कार्य करता है। 
कुल मिलाकर देखें तो वर्ष 2020 के बाद से हमारा बढ़ा वित्तीय घाटा हमारा कज़र् जीडीपी अनुपात बढ़ाने के लिए भी ज़िम्मेदार है। लेकिन कज़र् जीडीपी अनुपात का असल अवयव सरकार की बड़ी बचत संस्थाओं मसलन इपीएफओ, डाकघर बचत, राष्ट्रीय बचत योजना, केन्द्रीय उपक्रमों में बाज़ार निवेश की हिस्सेदारी की राशियां हैं। दूसरा सरकार अपने दिनोंदिन के खर्चे के लिए देश के सभी अनुसूचित बैंकों और देशभर में मौजूद उनकी लाखों शाखाओं से ट्रेजरी बिल खरीदती है, जो सरकार के कज़र्े का करीब  चालीस प्रतिशत हिस्सा बनती हैं, जिसे हम एसएलपी यानी वैधानिक तरलता अनुपात कहते हैं। गौरतलब है कि सरकार अपने सार्वजनिक ऋण पर जो ब्याज अदायगी करती है वह देश के निजी व सरकारी वित्तीय संस्थाओं के कारोबार व मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा बनती है। इस तरह हम कह सकते हैं कि कज़र् की अर्थव्यवस्था सेवा आधारित अर्थव्यवस्था को भी गति देती है।
  गौरतलब है कि सार्वजनिक ऋण का आकार यदि सकल घरेलू उत्पादक का तीन चौथाई अनुपात तक हो तो वह आधुनिक आर्थिक मानकों पर उतना चिंताजनक नहीं है। पर इस सीमा से ज्यादा बढ़ना यह सरकार के राजस्व संसाधनों के संकुचित श्रोतों को  दर्शाता है। अभी का मौजूदा परिदृश्य कोविड काल में सरकारों के राजस्व संकुचन की वजह से  ज्यादा उत्पन्न हुआ  है। लेकिन स्थिति सामान्य होने से आने वाले वक्त में इस अनुपात में ज़रूर कमी दर्ज होगी। अभी भारत सरकार के गैर योजना व्यय का सबसे बड़ा मद दस लाख करोड़ रुपये की ब्याज अदायगी है। इसके बाद रक्षा करीब 6 लाख करोड़, सब्सिडी 4 लाख करोड़ का नम्बर आता है। ये कुल राशि कुल गैर योजना व्यय का तीन चौथाई और कुल सार्वजनिक व्यय का करीब पचास प्रतिशत बनती हैं।
यह सही है कि दुनिया की आधुनिक अर्थ-व्यस्थाएं वित्तीय कज़र् व सट्टा पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था के इसी वर्तमान माड्यूल पर टिकी हैं। अर्थ-शास्त्री इसे तब तक खराब नहीं मानते जब तक इसमें कोई निवेश व जमा असुरक्षा का कोई बड़ा कारक समाहित न हो। सुरक्षा बैंकिंग व्यवस्था का एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसकी गारंटी सरकार व सरकारी एजैंसियां व कंपनियां बेशक ज़रूर प्रदान करती हैं, लेकिन ये एजैंसियां जब कज़र्दाता के रूप में आती हैं, तब वे स्वयं असुरक्षा का शिकार बन जाती हैं। आखिर बैंकों में लोन फ्राड, एनपीए, भगौड़ा व फरार गतिविधियां, दीवालियापन, स्टाक क्रैश सहित तमाम वित्तीय अपराध व अनियमितताएं इन्हीं आधुनिक वित्तीय व पूंजीगत अर्थव्यवस्था के मॉड्यूल की ही उपज हैं।  
भारत के मुद्रा बाज़ार व पूंजी बाज़ार में पिछले दशकों में हुए सैकड़ों घोटाले इस बात की गवाही दे रहे हैं। दूसरी तरफ  इस समूची प्रक्रिया में सरकार के केन्द्रीय बैंक को मुद्रास्फीति के नियंत्रण की एक चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेवारी निभानी पड़ती है। कुल मिलाकर प्रश्न यह उभरता है कि मौजूदा आधुनिक अर्थ-व्यवस्था कज़र् व सट्टे का एक ऐसा विकल्प क्यों नहीं निकालती, जिसमें जन धन की सुरक्षा, निवेश की उत्पादकता व मुद्रास्फीति का नियंत्रण तीनों मुख्य कारक समाहित हों? कुल मिलाकर चाहे वह व्यक्ति हो, परिवार हो या मुल्क हो कोई भी कज़र् के बोझ तले डूबा रहना नहीं चाहता।
 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर