संघ के हिन्दू एकता के प्रोजैक्ट को विरोधी समझने में असफल रहे

 

पिछले अंक (14 फरवरी) में हमने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक और जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय की राजनीतिक-दार्शनिक विरासत के कुछ पहलुओं पर विचार किया था। 60 के दशक में लिखी गई अपनी रचना ‘एकात्मिक मानववाद’ के ज़रिये उपाध्याय जी ने ऊंची जातियों के साथ पिछड़ी जातियों को राजनीतिक रूप से जोड़ने की वैचारिक ज़मीन तो तैयार कर दी थी पर हिंदू समाज के उन हिस्सों के लिए यह सिद्धांत निष्प्रभावी ही थी, जिनके पास अपना कोई वर्ण नहीं था। अर्थात जो संविधान की दृष्टि के मुताबिक अनुसूचित जाति या पूर्व-अछूत और अनुसूचित जनजाति या आदिवासियों से संबंधित लोग थे। ऐसा लगता है कि इस दौर में संघ आदिवासियों की तरफ मुख्य तौर पर ईसाइयों द्वारा किये जाने वाले धर्मांतरण के प्रयासों के संदर्भ में ही ध्यान देता था। इसीलिए 1963 में गोलवालकर ने छत्तीसगढ़ के जशपुर नगर में वनवासी कल्याण आश्रम का उद्घाटन किया। लेकिन, अनुसूचित जातियों में फैल रहे अम्बेडकरवाद की काट करने के लिए उसके पास कोई युक्ति नहीं थी। उनको एक कहीं ज्यादा सुधारों वाले उपाय की तलाश थी।
यह तलाश तब पूरी हुई जब उत्तर-गोलवालकर अवधि में संघ ने एक ़खास मुकाम पर हिंदू-एकता के अपने दीर्घकालीन और धीरे-धीरे चलने वाले प्रयास के तहत मनुस्मृति आधारित वर्णवादी आग्रहों विरुद्ध बिना कोई तीखा रुख अख्तियार किये उनसे किनारा कर लिया। संघ के आलोचक उसमें आई इस तब्दीली को पहचानने के लिए आज तक भी तैयार नहीं हैं। क्योंकि इस परिवर्तन को न समझा गया और न ही इसके महत्त्व का विश्लेषण किया गया। इस कारण इस आधार पर संघ की अमल में लाई गई योजनाओं की संभावनाओं और इसके संबंधी अंदेशों को भी नहीं समझा गया। संघ द्वारा किये गये इस विचार-परिवर्तन पर अगर एक गहरी निगाह डाली जाए, तो यह भी दिखता है कि इसकी गुंजाइशें हेडगेवार और गोलवालकर के चिंतन में ही मौजूद थीं। अगर ऐसा न होता तो रैडिकल न लगने वाले इस रैडिकल परिवर्तन से एक वैचारिक क्रम भंग हो सकता था और संघ की सांगठनिक एकता टूट सकती थी।
यह सही है कि संघ अपनी एकता कायम रख पाया। पर इस परिवर्तन की पेचीदगी का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इस तब्दीली ने संघ की कतारों में भी बेचैनियां पैदा कीं थी। परिणामस्वरूप संघ की राजनीति में समय-समय पर तनाव पैदा होते रहे। संगठन के भीतर अंत: संघर्ष (इसे जाति-युद्ध भी कह सकते हैं) दिखाई पड़ता रहा। लेकिन, अंत: संघर्षों के बावजूद संघ परिवार अपनी बुनियादी पहुंच से पीछे नहीं हटा। यह अलग बात है कि हिंदू-एकता बनने में हो रही देरी से चिढ़ कर खुद उसके भीतर के लोग भी यदाकदा उसकी कड़ी आलोचना करते रहे। लेकिन सघ के आलोचकों ने इस अंत: संघर्ष पर नज़र तो डाली, लेकिन वह उसे संघ द्वारा अपने विभिन्न संगठनों को नियंत्रित करने के मामले में आने वाली दिक्कतों के रूप में देखते रहे। लेकिन इसको वैचारिक परिवर्तन के रूप में देखने में समर्थ रहे।
वर्णवाद से किनाराकशी का यह प्रकरण संघ के दस्तावेज़ों में ब्राह्मणवाद विरोध और जाति-तोड़ो की समतामूलक समझी जाने वाली भाषा के रूप में पेश नहीं किया गया। संघ के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के आत्म-निरूपण में सनातनी धर्म की बहिर्मुखी अभिव्यक्ति जारी रही। यह संघ परिवार के रोज़ाना जीवन में कुछ इस तरह व्यक्त हुआ कि मध्यमार्गी प्रवचन पर आधारित धर्म निरपक्ष दृष्टि ने इसको संघ परिवार की चार वर्णों की रक्षा करने की ही एक नीति मानकर संतोश कर लिया, चूंकि संघ के आत्मसंघर्ष की कोई न कोई वज़ह चिन्हित करनी थी, इसलिए उसे ब्राह्मणवाद द्वारा कमज़ोर जातियों को एक बार फिर अपने वर्चस्व के तले लेने की एक साजिश ही समझा गया। 
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि यह रवैया गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय द्वारा वर्णाश्रम की खूबियां गिनाने वाले कथनों का बार-बार उल्लेख करता है, पर संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस के 1974 में दिये गए उस मशहूर भाषण को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर देता है, जिसमें उनके द्वारा खोखली हो चुकी वर्णवादी समाज-व्यवस्था को उसकी मौत मरने देने का आह्वान देने के साथ-साथ जन्म आधारित ‘विषमता के शास्त्र’ का विरोध किया गया है। समाज-वैज्ञानिक और सेकुलर एक्टिविस्टों द्वारा संघ के साहित्य संबंधी की गई खोज़ो में देवरस के इस बयान को नज़र अंदाज किया जाना हैरान करता है क्योंकि उनके यह व्याख्यान सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुका है और संघ और भाजपा के भीतर इसे एक नीतिगत वक्तव्य की हैसियत मिल चुकी है। ज़ाहिर है कि जो रवैया संघ में हुए इस स्पष्ट नीतिगत परिवर्तन को देखने से इंकार करता हो, वह गोलवालकर के ज़माने में ही इस परिवर्तन की आहटों को तो सुन ही नहीं सकता था। यही कारण है कि मध्यमार्गी समझ से निकली वैचारिक आस्थाओं पर उन समाज-वैज्ञानिकों के काम का कोई असर नहीं दिखाई पड़ता जिन्होंने संघ की वर्णाश्रम बदली हुई दृष्टि और मनुस्मृति आधारित वर्णाश्रम के बीच भेद दिखाने की जहमत उठाई और केवल युरोपीय फासीवाद के आईने में देख कर संघ को परिभाषित कर डालने के रवैये के प्रति चेताया। दिलचस्प बात यह है कि प्रचलित समझ को प्रश्नांकित करने वाले इन अनुसंधानों को मध्यमार्गी विमर्श के बौद्धिक पैरोकारों ने संघ पर की गई सहानुभूतिपूर्ण शोध के खाने में डाल दिया है।   
इसी तरह की कई उपेक्षाओं के परिणामस्वरूप समाज-विज्ञान के क्षेत्रों में आज तक इस विषय में कोई सुव्यवस्थित और विस्तृत शोध सामने नहीं आया है, जो बता सके कि भाजपा के दायरों में पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों की बढ़ती हुई उपस्थिति के हिंदू-एकता के लिए क्या मायने हैं और उसका असर सामाजिक न्याय की लोहिया विचार धारा पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है? समाज-वैज्ञानिकों ने अभी तक संघ प्रवर्तित हिंदू-एकता की परियोजना और वर्णवाद के बीच चलने वाली दिलचस्प और पेचीदा प्रतिक्रियाओं का शोधपरक और प्रमाणिक चित्र बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया।
संघ के इन बदले हुए आग्रहों के कारण उसकी तरफ से वर्णाश्रम को उत्साह के साथ मंच पर पेश करने की प्रवृत्ति रणनीतिक रूप से कमज़ोर होती चली गयी। संघ द्वारा हिंदुत्ववादी राजनीतिकरण की योजना परिणामवाद के रास्ते पर चल निकली। वर्णाश्रम के प्रति सम्मान अपनी जगह था, लेकिन उसका महत्व केवल इतना ही रह गया था कि भाजपा ब्राह्मणवाद विरोधी या हिंदू समाज के भीतर जातियों का संघर्ष चलाने के समाजवादी और रैडिकल आम्बेडकरवादी मुहावरे से ़खुद को दूर रखती रही। अपनी इसी रणनीति के परिणामस्वरूप 2000 आते-आते भाजपा यह दावा करने की स्थिति में आ गई कि उसके पास देश की किसी भी पार्टी से संख्या में अधिक अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सांसद और विधायक हैं। अगस्त, 2000 में ही भाजपा ने आंध्र प्रदेश की माडिगा अनुसूचित जाति से आये नेता बंगारू लक्ष्मण को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया (ध्यान रहे कि उन दिनों संघ आंध्र प्रदेश में माला और माडिगा अनुसूचित जातियों के आपसी संघर्ष का लाभ उठाने की फिराक में था)। बंगारू लक्ष्मण एक स्टिंग ऑप्रेशन में कैमरे पर नकदी लेते हुए पकड़े गए और इस तरह उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो गया। मीडिया उन्हें भले ही भूल गया हो, लेकिन संघ और भाजपा के भीतर उनका कार्यकाल उस दस सूत्रीय कार्यक्रम के लिए आज भी जाना जाता है, जो उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति के धरातल पर भाजपा को सरपट दौड़ाने के लिए बनाया था। इस कार्यक्रम में जो दीर्घकालीन रणनीतिक दृष्टि शामिल थी, भाजपा आज तक उस पर चल रही है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश का ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं है जहां हिंदुत्ववादी शक्तियों ने अलग-अलग राज्यों की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कौशलपूर्वक आकलन पर आधारित अलग-अलग कार्यनीतियों का इस्तेमाल करके अनुसूचित जातियों को अपनी तरफ खींचने की परियोजना न चलाई हो। यह प्रोजेक्ट इतना विशाल और बहुमुखी है कि इसे केवल छल और धोखे की श्रेणी में डाल कर नहीं निपटाया जा सकता।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।