भारतीय लोगों में है बहुदेववाद का बोलबाला

भारतीय समाज एक बहुदेववादी समाज है। यह बहुदेववाद इतना विविध और लचीला है कि एक-एक व्यक्ति कई-कई देवताओं की पूजा करता है। भारत में पैदा हुए धर्मों में सभी अपनी बुनियादी संरचना में बहुदेववादी नहीं हैं, लेकिन उन पर भी बहुदेववाद का ़खासा असर है। मसलन, ़कायदे से खालसा पंथ के अनुयायियों को हिंदू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए, लेकिन मैंने अपने शहर में ़खुद अपनी आंखों से सिख भाईचारे के अनेक लोगों को हिन्दू भाईचारे में धार्मिक समागमों में भाग लेते व सभी रीति-रिवाज निभाते देखा है। मैंने बौद्धों के घरों में देवी-देवताओं के कैलेंडर देखे हैं। इसी तरह से मैंने हिंदुओं को पीरबाबा के मज़ार पर मत्था टेकते देखा है और इसके उलट मुसलमान कारीगरों और मजदूरों ने वैष्णो देवी की यात्राएं करके मुझे चकित भी किया है। मुसलमानों में बजरंगबली के अघोषित भक्त भी मिल जाएंगे। जैन धर्म के लोगों की धार्मिकता तो इतनी तरल है कि अगर वे स्वयं न बताएं तो पता भी नहीं चलता कि उनकी सनातन धर्म से कुछ अलग पहचान भी है। यह बहुदेववाद लगातार अपनी विविधता को बढ़ाता भी रहता है। वैष्णो देवी की बढ़ी हुई मान्यता 100 साल पुरानी भी नहीं है। इसी तरह से साईं बाबा के इस्लामिक मूल से उनके हिंदू भक्तों को कोई दिक्कत नहीं होती। उन्होंने साईं बाबा को बड़े आराम से अन्य देवी-देवताओं के बीच जगह दे रखी है। ज़ाहिर है कि यह बहुदेववाद उन लोगों को चकरा देता है, जो एक ईश्वर में विश्वास करते हैं। उनके पास भारत के बहुदेववाद को समझने का एक ही ़फार्मूला है कि वे अपने मिथक शास्त्र में इस बहुदेवावाद और उसके मिथकों को फिट करके देखें। 
इस लिहाज़ से देखें तो पूछा जा सकता है कि क्या इस्लाम के भारतीय विद्वान मौलाना अरशद मदनी ने हिंदुओं के ओम और मुसलमानों के अल्लाह को एक बता कर कोई नयी बात की है? मौलाना की इस दावेदारी को कैसे समझा जाए कि जब कुछ नहीं था तो हिंदुओं के आदिपुरुष मनु ओम की पूजा करते थे। रंगहीन, गंधहीन और आकारहीन ओम वही अल्लाह हैं, जिसकी इबादत मुसलमान करते हैं। मदनी ने इस्लाम व ईसाइयत की निगाह में पहले इंसान की हैसियत रखने वाले आदम को मनु के समान बताया। क्या मौलाना हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अपनी समझ में कुछ समानताओं की तरफ इशारा कर रहे थे ताकि दोनों समुदायों को साम्प्रदायिक अलगाव के इस ज़माने में कुछ करीब लाया जा सके? 
इन बातों को आज की राजनीति की ज़रूरतों में फिट करके देखना आसान है। लेकिन, इस नज़रिये से उनके अर्थ स्पष्ट नहीं होते। दरअसल, इस तरह की बातें कोई पहली बार नहीं की जा रही हैं। तकरीबन ढाई सौ साल से इस तरह के विश्लेषण पेश किये जा रहे हैं, भले ही उनके इरादे अलग-अलग क्यों न हों। हिंदू धर्म बहुदेववादी है। इस्लाम हो या ईसाइयत— दोनों ही एक ईश्वर पर यकीन करने वाले और अपनी-अपनी पवित्र ग्रंथों पर आधारित सियामी मज़हब हैं। पहले इस्लाम भारत आया, फिर ईसाइयत आई। विजेता और शासकों के रूप में दोनों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अपनी उस प्रजा को कैसे समझें जो उनकी तरह से न एक ग्रंथ पर यकीन करती थी, और न ही एक ईश्वर पर। इस उलझन से पार पाने के लिए हिंदू मान्यताओं और उनके देवी-देवताओं को ईसाइयों और मुसलमानों की तरफ से उनके अपने मजहबी खाँचे में फिट करने की कोशिशें की जाने लगीं। इसका सर्वाधिक विस्तृत और सुनियोजित प्रयास 18वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के विद्वान विलियम जोंस द्वारा किया गया। मौलाना मदनी ने जो उड़ान भरी है, वह तो जोंस की काल्पनिक बातों के सामने कहीं नहीं ठहरती। 
भारत के लिए की गई क्रोकोडायल नामक जहाज पर की गई लम्बी यात्रा के दौरान लिखी अपनी डायरी में जोंस ने दर्ज किया था कि उन्हें भारत जा कर ओल्ड टेस्टामैंट (हिब्रू बाइबल) के अध्याय ‘जेनेसिस’ में लिखे सृष्टि-रचना के वृत्तांत को हिंदुओं के देवी-देवताओं और पुराणों में लिखी बातों की रोशनी में सही ठहराना है। उपनिवेशवाद के उस शुरुआती दौर में अंग्रेज़ों को लगता था कि अगर उनकी बहुसंख्यक प्रजा का उनकी ईसाइयत से बिरादराना संबंध स्थापित कर दिया जाए तो उन्हें हिंदुओं पर हुकूमत करने में आसानी होगी। दूसरी बात यह थी कि अंग्रेज़ भारतीय सभ्यता की प्राचीनता से भी परेशान थे। वे यह भी दिखाना चाहते थे कि सृष्टि-रचना का ईसाई सत्य किसी तरह से अगर इतनी पुरानी सभ्यता की कसौटियों पर खरा उतार दिया जाए तो उनकी मजहबी श्रेष्ठता बनी रहेगी। इस लिहाज़ से जोंस ने दिखाया कि ‘जेनेसिस’ के हज़रत नूह ने जल-प्रलय के दौरान मानवता के बचे हुए तत्वों को लेकर जब अपनी किश्ती चलाई थी, उसी के कुछ समय बाद राम ने भारतीय सभ्यता की स्थापना की थी। उनकी निगाह में बाइबल का कुस राम के पुत्र कुश के, राम शब्द स्वयं रामाह के और मिज़राइम शब्द पूर्वी भारत में मिलने वाले ब्राह्मणों के जातिसूचक उप नाम मिश्र के समान है। 
जोंस ने भारत के ज़रिये इंजीली सत्य को परम और सर्वकालीन-सार्वभौम सत्य का दर्जा देने के लिए पुराणों की मदद ली। विष्णु के दशावतारों में उन्हें दुष्टता के दमन के लिए ईश्वर के धरती पर उतरने की ईसाई कहानी के प्रमाण दिखे। पद्म पुराण में उन्हें बाढ़ की कहानी मिल गई, जिसे उन्होंने तत्परता से नूह की बाढ़ के साथ जोड़ दिया। बाढ़ के साथ ही मत्स्यावतार, वराहावतार और कूर्मावतार की कहानी भी उन्हें उपयोगी लगी। उनके लिए आदम का मतलब था मनु-प्रथम, नूह का मतलब था मनु-द्वितीय, बाढ़ यानी मत्स्य, कूर्म और वराह के अवतार, निमरॉड यानी नरसिंह अवतार, बेल यानी बाली और रामाह यानी पहले राम और फिर बुद्ध। बाइबल के किरदारों को हिंदू पौराणिक किरदारों का सजातीय बताने के साथ-साथ जोंस को यह दावा करने का म़ौका भी मिल गया कि बहुदेववादी धर्मों और प्राचीन खगोलशास्त्र में एकात्मकता थी और ईसाई धर्म से पहले की सभी प्राचीन उन्नत सभ्यताएं असल में नूह के बेटे हैम की वंश-परम्परा की पूर्व-कड़ी में ही थीं। इस लिहाज़ से जोंस ने हिंदू धर्म को हैम के वंश से जुड़ी, लेकिन गुज़र चुकी यूनानी और रोमन सभ्यताओं के जीवित चचाज़ाद भाई की तरह पेश किया। 18वीं शताब्दी में जोंस की इन बातों का अगर कोई विरोध हुआ भी होगा तो उसकी किसी ने परवाह नहीं की होगी। आखिर सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में थी। कम्पनी के वज़ीफ़ाखोर पंडितों की मंडली ने भी जोंस की बातों पर हां में हां मिलाई। 
आज अगर विलियम जोंस होते तो यह देख कर उन्हें ़खासी तसल्ली होती कि 21वीं शताब्दी में बहुत से लोग अयोध्या को भारत का वैटिकन कहने में गर्व का अनुभव करने लगे हैं। भारत के हिंदू जिस नववर्ष को धूमधाम से मनाते हैं, वह किसी विक्रम संवत से नहीं निकला है। वह तो पोप ग्रेगरी के बनाये हुए कैलेंडर के मुताबिक है। संडे की छुट्टी को हमने उसके ईसाई उद्गम पर ध्यान दिये बिना अपना ही लिया है। जिस टाई को हमारे आधुनिक लोग बांधते हैं, उसकी शुरुआत युरोपियन चर्चों में हिजाब के रूप में हुई थी। परिवारों में बच्चे अपने पिता को ‘पापा’ कहते हैं और इस सवाल पर कोई ़गौर नहीं करता कि कहीं इस ‘पापा’ का संबंध पोप के प्राधिकार या ‘पपल अथॉरिटी’ से तो नहीं है। यह एक बड़ी विडम्बना ही है कि 18वीं शताब्दी में जिस ईसाइयत का औचित्य पुराणों के आधार पर साबित किया जा रहा था, उसी के अघोषित आधार पर आज हम आपनी आधुनिकता की योग्यता सिद्ध करने में लगे हुए हैं। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।