2023 के विधानसभा चुनाव और भाजपा 

 

पिछले कुछ समय से चुनाव में हर बार भाजपा ने चुनावी दौड़ में सफलता प्राप्त की है और यह साबित करने में कोई कमी नहीं आने दी कि वह देश की इस दौर की वर्चस्ववादी पार्टी बनी रही है। दो बार आम चुनाव में जनता ने इस पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया है, आगे 2024 के चुनाव हैं। जिसके लिए इस पार्टी ने अभी से ही कमर कस ली है। परन्तु यह न भूलें कि 2023 के विधानसभा चुनाव अभी सामने ही हैं। भारतीय जनता पार्टी का विजयी रथ आगे बढ़ता जाएगा या कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय पार्टियां कोई बड़ी चुनौती पेश कर पाएंगी? एक तो पार्टी अध्यक्ष इसके दावे पेश कर रहे हैं, दूसरे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस के लोग काफी उत्साहित नज़र आते हैं। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक कुछ दिन पहले सम्पन्न हुई। इसमें पार्टी अध्यक्ष ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अधिक मज़बूती देने के लिए भाजपा को 2023 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव तथा 2024 के लोकसभा चुनाव को जीतना होगा। लेकिन यह चुनाव जहां जनता अपना मत देने में स्वतंत्र है और आप कामना कर सकते हो, नतीजा सदा आपके पक्ष में हो, यह आवश्यक नहीं है।
 व्यापक जनाधार के बावजूद यह दावा करना कठिन होगा कि भाजपा सभी राज्यों में जीत पायेगी? जबकि कुछ राज्यों में उसे कांग्रेस की ओर से कड़ी टक्कर की सम्भावना रद्द नहीं की जा सकती। यह भी न भूलें कि अन्य कुछ राज्यों में से खासतौर पर पूर्वोत्तर में इसे क्षेत्रीय पार्टियों से टक्कर मिल सकती है। चार बड़े राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक में भाजपा को कांग्रेस से कड़ा मुकाबला करना होगा जबकि राजस्थान में कांग्रेस की अंतर्कलह के कारण लाभ भाजपा उठा सकती है। हमें याद है कि 2019 के आम चुनाव के दिनों भाजपा ने इन राज्यों में लगभग सभी साटें जीत ली थीं। मध्य प्रदेश में केवल एक और छत्तीसगढ़, कर्नाटक में मात्र दो-दो सीटों पर हारी थी। लेकिन 2018 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ था तब भारतीय जनता पार्टी को इन चारों राज्यों में पराजय का सामना करना पड़ा था जोकि उनके लिए सर्बिया की स्थिति बन गई थी। तुम एक जीत से पक्के जीत के अलमबरदार नहीं हो जाते हो। 2018 में कांग्रेस ने खूब वोट बटोरे थे। 2018 में मतदाता तो वही थे, परन्तु चुनाव का परिदृश्य बदल गया था। लोकसभा चुनाव इसकी गवाही देता है। स्थानीय मुद्दे उभर कर आने वाले हैं और जब स्थानीय मुद्दे उभरते हैं तो राष्ट्रीय मुद्दे मौन हो जाते हैं। हाल ही में हिमाचल प्रदेश के चुनाव इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। उधर त्रिपुरा में क्या हुआ? 2018 में वामदलों को हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने आई.पी.एफ.टी. के साथ गठबंधन किया और सरकार बनायी। कांग्रेस कभी त्रिपुरा में प्रमुख विपक्षी दल हुआ करती थी। लेकिन वहां उसका खाता भी नहीं खुल पाया। उसे मात्र 1.7 प्रतिशत वोट पर संतोष करना पड़ा जोकि पार्टी की उम्मीद से काफी कम था। 
एक बात और विचारणीय है कि भाजपा को त्रिपुरा में सावधानी से कदम रखना होगा। वहां वामदलों की वापसी के कारण तो उतने सबल नहीं हैं परन्तु भाजपा भी हरमन प्रिय नहीं रह गयी, इसलिए मेहनत ज्यादा होगी, फल का कुछ कहा नहीं जा सकता। तेलंगाना भी आसान कदम नहीं है। वहां टी.आर.एस. जिसे अब बी.आर.एस. के नाम से जाना जाता है, मज़बूती बनाये हुए है। परन्तु भाजपा अपना काम करती जा रही है और उभार स्पष्ट हो रहा है। हमें स्मरण है कि पिछले दो विधानसभा चुनावों में टी.आर.एस. ने दूसरी पार्टियों को टिकने नहीं दिया था। 2018 में इसे 46.8 प्रतिशत वोट मिले और 119 में से 88 सीटों पर विजय मिली जबकि कांग्रेस दूसरे नम्बर की पार्टी रही। इसके बाद राज्य में इसका जनाधार कम ही हुआ, इसलिए इस बार टक्कर भाजपा और बी.आर.एस. के बीच होने की सम्भावना है। भाजपा के लिए यह लड़ाई इतनी भी आसान नहीं होने वाली। मेघालय और मिजोरम में भाजपा की राह हरगिज आसान नहीं है। 2018 के परिणाम भी कुछ अच्छे नहीं रहे। भाजपा को मेघालय में 9.6 प्रतिशत वोट ही मिले थे और मात्र दो सीटें। मिज़ोरम में भी भाजपा की हैसियत पतली नज़र आती है। यहां मज़बूत जनाधार की लड़ाई अभी बाकी है फिर भी वह जल्दी मैदान छोड़ने वाली पार्टी नहीं है।