वोट आधारित राजनीति है शहरों का नाम बदलना

 

राजनीतिक दलों की नजर सिर्फ वोट बैंक पर लगी रहती है, फिर इसके लिए चाहे जैसे भी हथकंडे क्यों न अपनाने पड़े। मुद्दा चाहे धर्म का हो, स्वतंत्रता सेनानियों के नाम को हो या फिर शहरों के नाम बदलने के लिए इतिहास के गढ़े मुर्दे उखाड़ने का। राजनीतिक दल वोट बैंक को मज़बूत करने के लिए इनका इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। राजनीतिक दलों के नेता धर्म या स्वतंत्रता सेनानियों के बताए नैतिकता, शुचिता, पारदर्शिता और आदर्श के रास्ते पर बेशक ना चले किन्तु विवादों में फंसने और वोटों के फायदे के लिए नामकरण जैसे विवादों को जन्म देने में पीछे नहीं रहते। इसी तरह की आड़ लेकर वाहवाही लूटने और वोटों के ध्रुवीकरण के मकसद से दायर की गई एक जनहित रिट याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करके यह साबित कर दिया कि व्यर्थ के विवादों को जन्म देने से देश का भला नहीं होने वाला। 
यह याचिका भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने दायर की थी। जिसमें कहा गया था कि देश के ऐतिहासिक स्थलों के मूल नामों का पता लगाने और उनके वर्तमान नाम से आक्रांताओं के नाम को हटाने के लिए एक नामकरण आयोग का गठन किया जाए। याचिका में यह भी कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट पुरातत्व विभाग को पुराने नामों को प्रकाशित करने के लिए निर्देश दे। याचिका को खारिज करते हुए जस्टिस के.एम. जोसेफ और बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा कि यह उन मुद्दों को जीवंत करेगा, जो देश में बवाल करवा सकते हैं। फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा कि देश के इतिहास को उसकी वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए छेड़ना नहीं चाहिए। कोर्ट ने कहा, हिंदू धर्म एक धर्म नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। इस धर्म में कोई कट्टरता नहीं है। खंडपीठ का कहना था कि अतीत को खोदने से केवल तनाव ही पैदा होगा। शीर्ष कोर्ट के इस आदेश से स्पष्ट है कि नया नामकरण करने के निहित राजनीतिक स्वार्थ हैं। इसका मकसद वोट आधारित राजनीति है।  शहरों की समस्याओं के समाधान के बजाय नाम परिवर्तन को चुनावी मुद्दा बना कर इस पर राजनीतिक रोटियां सेकना दलों को फायदे का सौदा नजर आता है। जब भी किसी शहर या जगह का नाम बदला जाता है तो उसमें करोड़ों रुपयों का खर्चा आता है। नाम बदलने से शहर में महज प्रतिकात्मक परिवर्तन आता है। इससे शहर के विकास के ढांचे में कोई बदलाव नहीं आता, सिवाए इसके कि जिसके नाम से शहर का नया नाम रखा गया है, उसकी कुछ मूर्तियां लगवा दी जाएं। आम लोगों को इस बदलाव की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। औसतन एक शहर का नाम बदलने में लगभग 300 करोड़ रुपए तक खर्च होते हैं। अगर शहर बड़ा हो तो ये राशि लगभग 1000 करोड़ तक भी पहुंच सकती है। 
देश और दुनिया में किसी भी शहर की प्रसिद्धि पर निर्भर करता है कि नाम बदलवाने पर कितने पैसे का खर्च आएगा। शहर के नए नाम के साथ ही वहां स्थित हर आधिकारिक स्थानों के नामों में बदलाव किया जाता है। तब जाकर किसी शहर का नाम बदलता है। जब किसी शहर का नाम बदला जाता है तो सभी दस्तावेजों में यह नया नाम दर्ज करना पड़ता है। रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन आदि जगहों पर भी नया नाम लिखा जाता है। इस प्रक्रिया के चलते नाम बदलने में करोड़ों रुपयों का खर्च आ जाता है। नाम बदलने में हुआ व्यय लोगों की गाढ़ी कमाई से चुकाए गए टैक्स से पूरा होता है। ऐसे में दूसरी ज़रूरी विकास योजनाओं के बजट में कटौती करके इस राशि का प्रावधान किया जाता है।    
इतना ही नहीं वोटों के लालच में राजनीतिक दल शहरों के नाम बदलने के लिए किसी भी स्तर जाने से भी नहीं हिचकिचाते। शहरों के नाम परिवर्तन पर सबसे ज्यादा विवाद उत्तर प्रदेश में रहा है। यहां सरकारों ने अपने राजनीतिक एजेंडे के तहत शहरों के नाम बदले। सत्ता परिवर्तन होते ही नई सरकार ने इन शहरों के नाम फिर बदल दिए।
 सपा और बसपा के बीच नाम परिवर्तन के झगड़े यहां चर्चित रहे हैं। मायावती सरकार ने 8 शहरों के नाम वर्ष 2012 से पहले बदले थे। अमेठी को छत्रपति शाहूजी महाराज नगर, हाथरस को महामायानगर बनाया। कानपुर देहात को रामबाई नगर, कासगंज को काशीराम नगर बनाया गया। वर्ष 2012 में सपा की सरकार ने सभी पुराने नाम वापस कर दिए। वोटों की खातिर की गई इस कवायद में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च हो गए। नामों के विवाद पर लोगों की भावनाएं से खिलवाड़ करके विकास विरोधी राजनीतिक पर नकेल कसना आवश्यक है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कठोर कानून बनाया जाना चाहिए, अन्यथा नेता अपने क्षुद्र स्वार्थों की खातिर जन सुविधाओं की उपेक्षा करते हुए ऐसे फिजूल के मुद्दों को हवा देते रहेंगे।