कृषि के लिए ़खतरा बनता जा रहा है जलवायु परिवर्तन 

 

फरवरी 2023 का दूसरा सप्ताह समूचे हिमाचल प्रदेश के लिए तपती गर्मी ले आया। भले ही पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोग इसे घाटे का मौसम कह रहे हैं लेकिन असली खतरा तो कृषि पर मंडरा रहा है। हिमाचल की अर्थ-व्यवस्था का आधार  फल व सब्जियों की खेती है और अचानक गर्मी होने से फसल बहुत हद तक खराब हो रही है। सबसे अधिक प्रभाव तो गेहूं पर पड़ रहा है। इस समय गेहूं जैसी फसल पकने को तैयार है। और ऐसे में अचानक गर्मी बढ़ने से दाने का सिकुड़ना तय है। कमज़ोर दाने का अर्थ है, एक तो वजन में कमी और दूसरा पौष्टिकता पर प्रभाव। किसान के सामने बदलते मौसम के दुष्प्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखाई दे रहे हैं। बीते कुछ सालों से मौसम में बदलाव और अचानक अधिक बारिश हो जाने से खड़ी फसल बर्बाद हो रही है। 
धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ौतरी और जलवायु परिवर्तन का खतरा अब पूरी दुनिया पर मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इन्सान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिस कारण प्राकृतिक स्रोतों और मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक शोध बताता है कि सन् 2030 तक धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि का अनुमान है। साल-दर-साल बढ़ता तापमान सन् 2050 में 0.80 से 3.16 और सन् 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री तक बढ़ सकता है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि उत्पादन में 360 किलो प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं, जहां आगामी एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पादन तक में कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बेमौसमी व असामान्य बारिश, भीषण गर्मी व लू, बाढ़ व सूखे की सीधी मार किसानों पर पड़नी है। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि कृषि पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की आय सिमटती जा रही है। सनद रहे कभी सूखे तो कभी अधिक बरसात से किसान दशकों तक ऋण तले दबा रहता है। इसी वह कृषि को छोड़ने को मजबूर है।
भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति , जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग पड़ रहा है। पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देश में एक समान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी कृषि में इस्तेमाल हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है। एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तो रागी, बाजरा और जई जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि एवं पोषण स्तर पर प्रभाव, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है। इस सन्दर्भ में उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण का स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ. कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के कारण वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ  पब्लिक हेल्थ की ताज़ा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं।