मीडिया की आज़ाद हस्ती-सर्वोच्च् न्यायालय का महत्त्वपूर्ण फैसला

विगत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने एक मलयालम चैनल ‘मीडिया वन’ द्वारा दायर की गई याचिका के सिलसिले में बड़ी भावपूर्ण टिप्पणियां करते हुए कहा कि लोकतंत्र के अस्तित्व हेतु प्रैस की आज़ादी ज़रूरी है। यह भी कि सरकारी नीतियों की आलोचना सत्ता का विरोध नहीं है। इससे भी आगे जाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि देश के सामने सच बोले जाने से राष्ट्र को कोई ़खतरा नहीं है। इसकी बजाय प्रैस का यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपने लोगों के समक्ष सच्चाई लाने का यत्न करे, जिससे लोकतंत्र सही दिशा की ओर आगे बढ़ सके। भिन्न-भिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विचारधाराओं को एक ही प्रारूप देने का यत्न लोकतंत्र के लिए ़खतरा बन सकता है। इसलिए सत्ता व्यवस्था को ठोस हकीकतें पेश किये बिना राष्ट्र की सुरक्षा के ़खतरे का नाम नहीं लेना चाहिए। अक्सर भिन्न-भिन्न समय के दौरान अदालतों द्वारा की गईं ऐसी टिप्पणियां प्रैस की मज़बूती का कारण बनी हैं।
केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण तथा गृह मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा को ़खतरा बताते हुए एक मलयालम चैनल ‘मीडिया वन’ पर 31 जनवरी को प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इससे संबंधित संस्थान द्वारा केरल हाईकोर्ट में अपील भी की गई थी परन्तु उसने भी सरकार द्वारा लगाये गये इस प्रतिबन्ध को बरकरार रखा था। उसके बाद ही इस संस्थान ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था, जिस पर मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ तथा जस्टिस हिमा कोहली ने जहां इस प्रतिबन्ध को हटाने के आदेश दिए हैं, वहीं यह भी कहा है कि ऐसा करना प्रैस की आज़ादी को प्रभावित करेगा। मज़बूत लोकतंत्र के लिए प्रैस की आज़ादी बेहद महत्त्वपूर्ण है। यदि इस चैनल ने सरकारी नीतियों के विरुद्ध कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियां भी की हैं, तो इसे ब़गावती  स्वर कहना किसी भी तरह उचित नहीं होगा। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कई बार सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ऐसे प्रतिबन्ध लगा देती है, जो किसी भी तरह जायज़ नहीं होते।
विगत समय में तथा अब भी अक्सर सरकारों एवं प्रैस के बीच ऐसे हालात बन जाते हैं, जिनमें अपनी आलोचना को सहन न करते हुए संबंधित सरकारें मीडिया संस्थानों को दबाने की नीति धारण कर लेती हैं। सरकारों की ऐसी दमनकारियां नीतियों का ज्यादातर कोई तर्क या ठोस आधार नहीं होता। इसलिए सरकारें उन विभागों का नाजायज़ इस्तेमाल करती हैं, जो सरकारों के अधीनस्थ चलते हैं। देश के संविधान के अनुसार जहां विधान-पालिका, कार्य-पालिका तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र संस्था माना गया है, वहीं इसके साथ ही प्रैस एवं मीडिया को भी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसे तर्क के साथ अपनी बात कहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के महत्त्व को स्वीकार किया जा सकता है। ऐसे फैसले ही मीडिया को बाहरी दबावों के बिना अपनी बात कहने का अधिकार एवं सामर्थ्य देते हैं, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी होते हैं।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द