क्या वोटर भ्रष्टाचार पर सर्जीकल स्ट्राइक करेंगे ?

 

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पहले भी चुनाव होते रहे हैं, लेकिन इस बार खास बात यह है कि पहली बार सत्तापक्ष द्वारा सारे के सारे विपक्ष पर भ्रष्टाचारी होने का इलज़ाम लगाया जा रहा है। वरना, 1989 में विपक्ष ने ही सरकार पर ब़ोफर्स सौदे में कमीशन खाने का आरोप लगाया था। 2014 के चुनाव पर तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की छाप ही लगी हुई थी। सत्तापक्ष के आक्रमण के जवाब में इस बार विपक्ष के पास अडानी का मुद्दा है, जिसका सहारा लेकर वह सरकार और प्रधानमंत्री को घेरने में लगा हुआ है। विपक्ष को पूरी उम्मीद है कि अडानी और प्रधानमंत्री के संबंधों का सवाल उठा कर वह ब़ोफर्स जैसा प्रभाव पैदा कर सकता है। दूसरी तरफ, भ्रष्टाचार पर चल रहे आरोप-प्रत्यारोप का सबसे संगीन पहलू यह है कि विपक्षी नेताओं के सिर पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की तलवार लटक रही है। वे कभी भी गिरफ्तार किये जा सकते हैं। पूछताछ के लिए उन्हें बुलाया जाना तो मामूली बात हो गई है। अगर घटनाक्रम इसी तरह चलता रहा तो 2024 तक आते-आते ज्यादातर विपक्षी नेता किसी न किसी घोटाले या विवाद में फंसे नज़र आएंगे और या तो वे जेल जाने की तैयारी कर रहे होंगे, या ज़मानत पर रिहा होंगे। 
अगर ऐसा हुआ तो मोदी और भाजपा के अन्य प्रचारकों द्वारा मंच पर समारोहपूर्वक यह दलील दी जाएगी कि उनकी पार्टी को छोड़कर बाकी सभी दागी हैं, इसलिए वोट केवल उन्हें ही मिलने चाहिए। सत्तापक्ष को उम्मीद है कि इस बार भ्रष्टाचार का मुद्दा वह काम करेगा जो पिछली बार पुलवामा और बालाकोट के मुद्दे ने किया था। पहले उन्होंने पाकिस्तान पर ‘सर्जीकल स्ट्राइक’ की थी, इस बार भ्रष्टाचार पर की है। इस संदर्भ में पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक द्वारा दिये गये बयान पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं।  मलिक ने करण थापर को एक लम्बा इंटरव्यू देकर राजनीति के चंचल जल में कुछ नयी हिलोरें पैदा कर दी हैं। मलिक जब कश्मीर और गोवा के राज्यपाल थे, तो उनके वक्तव्यों में मीडिया का ध्यान खींचने लायक काफी मसाला हुआ करता था। राज्यपाल रहते हुए ही उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करने का साहस भी दिखाया था। 
बहरहाल, इन हिलोरों की बात कुछ और ही है। उनके केंद्र में भ्रष्टाचार का मुद्दा है, जिसके इर्दगिर्द इस समय सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बयानों की होड़ चल रही है। पहली नज़र में लगता है कि भ्रष्टाचार पर होने वाली यह तल़्ख बहस अगर दो-तीन महीने और चल गई तो फिर 2024 के चुनाव का फैसला इसी पर केंद्रित हो जाएगा। ऐसे विकट राजनीतिक माहौल में सतपाल मलिक के इस कथन के ़खास मायने हैं कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास ऩफरत नहीं है’। यह एक चतुर वाक्य है। इसके दो मायने हैं : मोदी को भ्रष्टाचार से घृणा तो है, पर उसकी प्रकृति सामान्य किस्म की है। यानी, उनकी नीति ‘ज़ीरो टोलरेंस’ की नहीं है। उन्होंने अपने इस अवलोकन को पुष्ट करने के लिए कश्मीर और गोवा के कार्यकाल से कई उदाहरण भी दिये हैं। मलिक के इस बयान पर अभी बहुत चर्चा होगी। समाजवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि से आने के बावजूद मलिक को भाजपा सरकार द्वारा संवैधानिक पदों पर बार-बार बैठाये जाने के कारण उनकी बातों को तिरस्कार के साथ  कूड़ेदान में फेंकने में सरकारी पक्ष को कुछ दिक्कत होने वाली है। ऐसे में यह सवाल पूछा जाना जायज़ है कि क्या मलिक के ‘रहस्योद्घाटनों’ से विपक्ष द्वारा मोदी पर लगाये जाने वाले आरोपों को बल मिलेगा? जनता किसके आरोपों पर विश्वास करेगी— मोदी द्वारा विपक्ष पर लगाये जाने वाले आरोपों पर या विपक्ष की बातों पर? 
इस प्रश्न का उत्तर थोड़ा पेचीदा और दो-आयामी है। पहला आयाम इस प्रकार है। विपक्ष के कई पुराने नेता लम्बे अरसे तक सत्ता में रह चुके हैं। अपने-अपने जनाधारों में लोकप्रिय होने के बावजूद रुपये-पैसे के मामले में उनकी आम छवि बहुत स्वच्छ नहीं है। उनका सत्तारूढ़ इतिहास अपने भाई-भतीजावाद के लिए भी जाना जाता है। दरअसल, इन विपक्षी नेताओं की छवि पर लगा हुआ यह धब्बा मोदी के सामने उन्हें कमज़ोर कर देता है। सरकारी एजेंसियों के दबाव में वे विरोध की राजनीति भी कई बार दबी जुबान में करते नज़र आते हैं। लेकिन, अडानी मुद्दे के दम पर उन्हें लग रहा है कि वे प्रधानमंत्री को भी अपने ही तरह से बचाव के स्थिति में ला सकते हैं। सरकार द्वारा संसद के भीतर या बाहर अडानी के प्रश्न पर कोई भी अधिकृत बयान न देना इस बात का संकेत माना जा सकता है कि कहीं न कहीं मसले की नाजुक प्रकृति का एहसास सत्तारूढ़ पक्ष को भी है। 
दरअसल, सत्तारूढ़ पक्ष अडानी के मसले पर कुछ बोलना ही नहीं चाहता है। वह चाहता है कि अगर यह मुद्दा अपने तकनीकी आयामों में समेट दिया जाए तो उसके हित में होगा। इसलिए उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी जांच के लिए बनाई गई कमेटी पर कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह कमेटी अडानी के शेयरों की कीमत, उसकी वैधता और सेबी की भूमिका पर जांच करेगी। लेकिन, संयुक्त संसदीय समिति इस मसले के राजनीतिक पहलुओं पर चर्चा करेगी। इसीलिए भाजपा समिति नहीं बनने देना चाहती, बावजूद इसके कि उसमें 60 प्रतिशत सदस्य भाजपा के ही होंगे। इस कमेटी के साथ भाजपा के खिलाफ कुछ निर्णय तो नहीं निकल सकता, लेकिन इसका राजनीतिक चरित्र सार्वजनिक जीवन की बहसों को प्रभावित कर सकता है। 
 दूसरा आयाम वोटरों के बारे में है कि वह कौन सा मतदाता है जो भ्रष्टाचार संबंधी बहस से प्रभावित हो सकता है। मेरा विचार है कि किसी पार्टी के प्रति निष्ठा न रखने वाले मतदाता इस आरोप-प्रत्यारोप को ध्यान से सुन रहे होंगे। इन मतदाताओं की संख्या कम लेकिन महत्वपूर्ण और निर्णायक होती है। हर चुनाव में इनकी संख्या 10 से 25 प्रतिशत के बीच हो सकती है। जो चुनाव जितना कम ध्रुवीकृत होगा, बीच की कगार पर बैठे मतदाता उतने ही ज्यादा होंगे। यह मतदाता किसकी बात पर यकीन करेगा, यह है लाख टके का सवाल। यह ऐन मौके पर वोट देने का फैसला करता है। इसी के वोट से लड़ाई का पलड़ा एक तरफ झुकता है। बाकी बचे हुए लोगों का वोट पहले से तय होता है। जो भाजपा के निष्ठावान वोटर हैं, वे उसे वोट देंगे ही। भाजपा विरोधी वोटर भी इसी प्रकार विपक्षी पार्टियों के लिए मतदान करेंगे। लेकिन, अगर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अगला चुनाव हुआ, तो इसी मतदाता की बुद्धि और मानस से उसका निर्णय होगा, वही असली सर्जीकल स्ट्राइक का रूप लेगा। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।