दल-बदलुओं के लिये विचारधारा नहीं, राजनीतिक करियर महत्वपूर्ण

 

कर्नाटक में राज्य विधानसभा हेतु 10 मई को चुनाव होने निर्धारित हुए हैं। पूरे राज्य में एक ही चरण में होने वाले चुनाव की मतगणना 13 मई को होनी है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से फिलहाल यही पता चल रहा है कि राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा को सत्ता में वापसी के लिये कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनता दिखाई दे रहा है। भाजपा के विरुद्ध जहां सत्ता विरोधी रुझान है वहीं राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का कर्नाटक के बड़े क्षेत्र से होकर गुज़रना तथा राहुल गांधी की संसद से बर्खास्तगी के बाद राज्य में उनके प्रति पैदा हुई सहानुभूति कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में कारगर साबित हो रही है। राज्य में होने वाले इस संभावित सत्ता परिवर्तन को राज्य के कई मंझे हुये नेता भी बखूबी समझ रहे हैं। उनकी यही दूरदर्शिता उन्हें किसी न किसी परिस्थितिवश चुनाव पूर्व ही दल बदल करने के लिये मजबूर कर रही है। प्राप्त खबरों के अनुसार राज्य के आठ प्रमुख भाजपा नेताओं के अतिरिक्त कई भाजपाई भी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम चुके हैं। जबकि कुछ जे.डी. एस. में भी शामिल हुये हैं। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व उप-मुख्यमंत्री से लेकर कई विधायक और विधान परिषद सदस्य तक शामिल हैं। इसी सूची में सबसे महत्वपूर्ण नाम राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा एवं  लिंगायत समुदाय के प्रभावशाली नेता जगदीश शेट्टार और पूर्व उप-मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी का है। कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत समुदाय सत्ता का खेल बनाने व बिगाड़ने में अत्यंत प्रभावी माना जाता है। बताया जा रहा है कि शेट्टार अपनी पारम्परिक सीट हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार के रूप में सातवीं बार चुनाव लड़ना चाह रहे थे, लेकिन भाजपा ने उन्हें टिकट देने से मना कर दिया था। प्राप्त खबरों के अनुसार शेट्टार को हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी न बनाने के बदले में उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य को विधानसभा चुनाव लड़ने की पेशकश पार्टी की ओर से की गयी थी, जो उन्होंने स्वीकार नहीं की। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने आनन फानन में जगदीश शेट्टार को पार्टी में शामिल कर उन्हें हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से पार्टी का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया। लिंगायत समुदाय के कर्नाटक में 18 फीसदी मतदाता हैं और वे प्राय: भाजपा के समर्थक माने जाते रहे हैं।
भाजपा छोड़ने के बाद जगदीश शेट्टार अकेले 20 से लेकर 25 लिंगायत प्रभाव वाली सीटों पर भाजपा को नुकसान व कांग्रेस को फायदा पहुंचा सकते हैं। इनके अतिरिक्त भाजपा छोड़ने वाले प्रमुख नेताओं में पूर्व विधायक डी.पी. नारीबोल, मंत्री एस. अंगारा और बी.एस. येदियुरप्पा के करीबी डॉक्टर विश्वनाथ के साथ वर्तमान विधायक एम.पी. कुमारस्वामी, विधायक रामप्पा लमानी, विधायक गुली हटी शेखर तथा वर्तमान एमएलसी (विधान पार्षद) शंकर शामिल हैं। दल बदल करने वाले अधिकांश भाजपा नेताओं का एक ही दुखड़ा है कि पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी क्यों नहीं बनाया। टिकट न मिलने के कारण पार्टी छोड़ने वाला एक नाम वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और कर्नाटक विधानसभा के पूर्व स्पीकर कागोडु थिम्मप्पा की बेटी डॉ. राजनंदिनी का भी है। गत दिनों यह कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा और पार्टी के अन्य सदस्यों की मौजूदगी में भाजपा में शामिल हो गईं। भाजपा में शामिल होने के बाद डॉ. राजनंदिनी ने अपनी व्यथा सुनाते हुये कहा, ‘मुझे उम्मीद थी कि कांग्रेस मुझे पहचानेगी और मुझे टिकट देगी, लेकिन मुझे मौका नहीं मिला जबकि भाजपा में गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया गया। मैं पार्टी के लिए काम करूंगी।  मैं वर्कर हूं और कहीं भी काम कर सकती हूं।’ पूरी संभावना है कि डॉ. राजनंदिनी थिम्मप्पा भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ेंगी।  
केवल, कर्नाटक ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों के चुनावों में भी यहां तक कि लोकसभा चुनावों के समय भी अपना-अपना राजनीतिक करियर बचाने या बनाने के नाम पर दल-बदल का खेल एक आम बात हो गई है। यह दल-बदल पार्टी का टिकट मिलने या न मिलने से शुरू होकर मंत्री यहाँ तक कि मुख्यमंत्री बनने-बनाने तक जारी रहता है। मध्य प्रदेश की तरह कई राज्य इस बात के भी उदाहरण पेश कर चुके हैं कि किस तरह सत्ता के इसी घिनौने खेल में राज्य की जनता द्वारा दिये गये सत्ता विरोधी जनमत का इन्हीं अवसरवादी व अपने स्वार्थपूर्ण राजनीतिक करियर को राजनीतिक विचारधारा से भी ऊपर मानने वालों द्वारा मज़ाक उड़ाया गया। 
आज भले ही कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में बड़ी संख्या में भाजपा नेताओं को पार्टी में शामिल कराकर आगामी चुनाव में अपनी बढ़त की संभावनाओं का एहसास कर रही हो, परन्तु जो नेता केवल भाजपा का टिकट न मिलने के कारण कांग्रेस में शामिल हुए हैं, वे कांग्रेस की विचारधारा के वाहक आखिर कैसे हो सकते हैं? अभी पिछले दिनों हिजाब के विरोध से लेकर और भी कई तरह के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास भाजपा द्वारा कर्नाटक में इन्हीं विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र किये गये थे। उस समय तो यही भाजपा छोड़ने वाले लोग भाजपा की नीतियों का समर्थन कर रहे थे।
कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य परस्पर धुर विरोधी वैचारिक पार्टियां, इनके द्वारा अवसरवादिता के कारण खास कर अपने राजनीतिक करियर को संवारने की गरज़ से दल-बदल करने वाले लोगों को अपने-अपने दलों में शामिल कराने का साफ अर्थ है कि पार्टियां स्वयं भी मात्र सत्ता प्राप्त करने के लिये ऐसे ‘थाली के बैंगनों’ का सहारा लेना पसंद करती हैं जिनके लिये विचारधारा नहीं बल्कि उनका राजनीतिक करियर अधिक महत्वपूर्ण है। जिनकी कोई राजनीतिक विचारधारा ही न हो केवल उनका राजनीतिक करियर ही उनके लिये सबसे महत्वपूर्ण हो, वे वैचारिक रूप से किसी भी पार्टी के वफादार तो हरगिज़ नहीं हो सकते। राजनीतिक दल जो कि दरअसल प्राय: अवसरवादियों का ही एक समूह कहा जा सकता है, ये भले ही अपना लाभ देखकर दल-बदलुओं को टिकट, मंत्री पद यहां तक कि मुख्यमंत्री पद देकर अपने को मज़बूत और अपने विरोधी दलों को कमज़ोर करने का अस्थायी खेल खेलते रहते हों परन्तु जनता को ऐसे दल-बदलुओं को तो ज़रूर सबक सिखाना चहिये जिनके लिये विचारधारा नहीं बल्कि उनका स्वार्थपूर्ण राजनीतिक करियर ही सबसे महत्वपूर्ण है।