पंजाब की आर्थिकता का केन्द्र बन चुके हैं प्रवासी मज़दूर

 

सब्ज़ इन्कलाब के बाद इस शताब्दी के पहले दशक तक प्रवासी खेत मज़दूर पंजाब की कृषि का केन्द्र रहे हैं। जब तक कम्बाईन हार्वेस्टरों की संख्या नहीं थी बढ़ी, धान की रोपाई तथा गेहूं की कटाई लगभग पूरी तरह प्रवासी खेत मज़दूरों द्वारा ही की जाती थी। इस सदी के शुरू में एक अनुमान के अनुसार लगभग 14 लाख खेत मज़दूरों की कृषि का काम करने के लिए ज़रूरत थी। ट्रैक्टर तथा कम्बाइनें बढ़ने से इनकी संख्या में कमी आई थी। 
एक अनुमान के अनुसार विभिन्न वर्षों में 5 लाख से 9 लाख तक प्रवासी खेत मज़दूर पंजाब आते रहे हैं। अब इनकी संख्या चाहे कम हो गई है। पैडी ट्रांसप्लांटर किसानों द्वारा न अपनाए जाने के कारण धान की रोपाई तो अभी भी प्रवासी खेत मज़दूर ही करते हैं। सीज़न के दौरान किसान रेलवे स्टेशनों पर जाकर तथा एजैंटों को कमीशन देकर अपने खेतों की ओर इन्हें आकर्षित करके लाते हैं। स्थानीय खेत मज़दूर बहुत कम संख्या में उपलब्ध हैं  और वे जहां भी हैं वहां धान की रोपाई का ठेका प्रवासी मज़दूरों से अधिक मांगते हैं और इस काम के लिए वे प्रवासी खेत मज़दूरों की तरह दक्षता भी नहीं रखते। गेहूं की पूरी कटाई चाहे हार्वेस्टरों से होती है, परन्तु फसल की संभाल, लदान, उतराई, भराई तथा गोदामों तक ले जाने के लिए प्रवासी खेत मज़दूरों की ज़रूरत होती है।  
आजकल गेहूं की कटाई ज़ोरों पर है। वैसे तो खेत मज़दूरों की सामान्य दिहाड़ी 500 रुपये पर पहुंच गई है, परन्तु आजकल वे 700 रुपये तक मांगने लगे हैं। अधिकतर काम जैसे तूड़ी बनाना, कुप्प बांधना तथा उतराई, लदान आदि ये ठेके पर ही करते हैं। ठेके पर इन कार्यों (जो चाहे दूसरे कार्यों से कठिन हैं) में इन्हें 1000 रुपये दिहाड़ी पड़ जाती है। परन्तु यह स्थिति कुछ दिन ही रहेगी। गेहूं की संभाल के बाद ये बेकार हो जाएंगे। कुछ समय पहले निर्माण कार्यों के लिए मज़दूरों की दिहाड़ी प्रवासी खेत मज़दूरों से अधिक होती थी, परन्तु आजकल कटाई के दिनों में इस वर्ष संबंधित कार्यों के लिए खेत मज़दूर की दिहाड़ी अधिक है। वैसे चाहे उनके बराबर ही होती है।  
हरित क्रांति के बाद पंजाब में प्रवासी खेत मज़दूर उत्तर प्रदेश से आने शुरू हुए। फिर बिहार, ओडिशा तथा उसके बाद गत कई वर्षों से पश्चिम बंगाल, झारखंड, नेपाल तथा मध्य प्रदेश से भी आने शुरू हो गए। उत्तर प्रदेश से आकर ये प्रवासी खेत मज़दूर दुकानों के सहायक, फलों एवं सब्ज़ियों के विक्रेता, घरों में सहायक तथा रिक्शा चालक आदि जैसे व्यवसाय में आबाद हो गए। इनमें से कुछ ने तो पंजाब को अपना घर ही बना लिया और अपने परिवारों को भी यहीं ले आए। फिर दूसरे राज्यों में काम शुरू होने के कारण उन्हें रोज़गार वहीं मिलने लगा और भारत सरकार द्वारा मनरेगा तथा घर उपलब्ध कराने की योजनाएं आदि शुरू किए जाने से पंजाब में इनका आना कम हो गया। अब इनकी संख्या कम होकर कृषि क्षेत्र में लगभग दो लाख रह जाने का अनुमान है। वे सीज़न में जैसे कि धान की रोपाई तथा कटाई से संबंधित कार्य करने वाले दिनों में आते हैं और पैसा कमा कर घरों को लौट जाते हैं। अब ये दिहाड़ी के साथ दो वक्त चाय भी मांगते हैं और दिन में 8 घंटे से अधिक काम नहीं करते। जबकि गत सदी में यह स्थिति नहीं थी।
 किसान भी अब अधिकतर काम जैसे धान की रोपाई, कीटनाशक दवाओं के छिड़काव, बासमती की छंटाई आदि ठेके पर करवाने लग पड़े हैं। किसान दिन-प्रतिदिन बढ़ रही मज़दूरी तथा अन्य खर्चों से परेशान हैं। उनके नौजवान लड़के और पारिवारिक सदस्य भी अब कृषि का काम नहीं करते। वे ज़मीन बेच कर विदेशों को भाग रहे हैं।
प्रवासी खेत मज़दूरों ने अपने ग्रुप बना लिए हैं और ठेके पर काम करने के लिए या दिहाड़ी पर लगने के लिए किसी  प्रकार की सौदेबाज़ी किसान अब नहीं कर सकते। किसानों को उनके मांगने के अनुसार उनकी मज़दूरी देनी पड़ती है। इनका महत्व इतना बढ़ गया है कि किसान एवं उद्योगपति काफी हद तक इन पर निर्भर हो गए हैं और नगर निगम एवं पंचायतें इन्हें सभी सुविधाएं उपलब्ध करने के लिए मजबूर हैं। कई स्थानों पर किसानों की पत्नियां खेत मज़दूरों के लिए चाय व खाना खेत में लेकर जाती देखी जा रही हैं। फसली विभिन्नता के बाद कृषि का घनत्व बढ़ने से कुछ किसानों को तो खेत मज़दूरों की लगातार पूरा वर्ष ही ज़रूरत रहती है। मंडियों में अब फसल की संभाल तथा बोरियों में फसल भरने, लदान आदि कार्यों संबंधी आढ़ती इन प्रवासी मज़दूरों पर ही निर्भर हैं। मंडियों में अब पल्लेदारी का पूरा कार्य प्रवासी मज़दूर ही करते देखे जाते हैं।