कहानी शरद  (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

कालेज में वह हिंदी साहित्य पढ़ना चाहता था। पिता की जिद के कारण उसे पढ़ना पड़ा फिजिक्स, केमेस्ट्री और जीवशास्त्र। इन विषयों में न तो उसकी रूचि थी, न कोई उत्साह।
अगले दो साल उसने दो कौड़ी भर की चेष्टा नहीं की पढ़कर डाक्टर बनने के लिए।
वह खुल्लम-खुल्ला क्लास बंक करता रहा। कॉलेज की पत्रिका में उसकी एक कविता छप गयी ‘दो टेबुलें दो कुर्सियां।’ यह कुछ इतना बेबाक चित्रण था अपनी ही दो महिला सहपाठियों के बारे में कि पत्रिका में से इसको फाड़कर हटाना पड़ा विद्यार्थियों के बीच बांटने के पहले।
कॉलेज के पहले दो वर्ष की खिलंदड़ी का परिणाम द्वार विहीन द्वार से निकटता मात्र रही। मुश्किल से परीक्षा में पास हुआ, पर मैडीकल कॉलेज में प्रवेश पाना असंभव था। पिताश्री उसे आयुर्वेद पढ़ाने के लिए भी तत्पर थे। डॉक्टर नहीं तो वैद्य ही सही।
वह जानता था कि पिता का गुस्सा नहीं बरसने वाले बादल की तरह है। पिता की वैचारिक पराजय की कुंठा का भी अहसास था उसे। फिर भी शरद लडंत-भिडंत के दरवाजे पर मद्धम दस्तक देने में सफल हो गया। विज्ञान में इंटर पास कर वह हिंदी साहित्य में ऑनर्स पढ़ने लगा।
प्रतिभा और सफलता के बीच ईर्ष्या तत्काल आ ही जाती है। शरद हंसते खेलते इन सारे विघ्नों को पार कर हिंदी साहित्य ऑनर्स में टॉप कर गया। कुछ छींटाकशी भी हुई- ‘हां भई, विभागाध्यक्ष का बेटा जो है।’ इन ऊल-जलूल बातों से क्षुब्ध होकर शरद बीएचयू चला गया। मैं भी अच्छी नौकरी की चाहत में शहर से दूर हो गया। शरद मसखरा कदापि नहीं था। साहित्य के आध्यात्मिक पहलू में भी उसके विचार मौलिक थे। ईश्वर के मानवीकरण, मनुष्य के ईश्वरीकरण जैसी गूढ़ विषयों पर भी उसे हर वक्त सुनने और गुनने वाले श्रोता की दरकार रहती थी। निराला की कविता ‘बोलता बसंत’ पर वह घंटों बहस कर सकता था। साहित्य के दिग्गज आलोचक या रचनाकारों की वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा से भी हटकर शरद सोच पाता था।
मुझे उससे बात करके प्राय: लगता था कि हास्य का मुखौटा पहने असली शरद को हम समझ भी नहीं सके कभी। वह ‘कथा वही है जो करी जा सकती है’ का पैरोकार था।
हमारा राब्ता टूट गया। दोस्तों के माध्यम से कुछ सच्ची-झूठी मिलती रही। शरद ने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। हिंदी साहित्य में व्यंग्य की विद्या पर उसके मौलिक शोध की प्रशंसा हुई। शरद एम.ए. डीलिट की उपाधि पाकर साहित्य का डॉक्टर बन ही गया। उसके विवाह का निमंत्रण मिला था, पर मैं पहुंच न पाया।
उस वक्त वह एक नये कॉलेज में लेक्चरार था। संघर्ष के दिन थे। पे स्लिप पर स्थायी दस्तख्त और हाथ में तनख्वाह कुछ कम मिलती थी। इन सब मुश्किलों में शरद का कविता बोध निखर रहा था। छपने लगा। कवि सम्मेलनों में उसे प्राय: हास्य और व्यंग्य के लिए प्रसिद्धि मिल रही थी। अंतरंग मित्रों के अनुसार उसका जीवन अनुशासित हो गया।
शरद और अनुशासन का ख्याल कुछ जमता नहीं था। हां, उसकी नौकरी स्थायी हो गयी शहर के एक प्रसिद्ध कॉलेज में। कवि सम्मेलनों में उसका हास्य प्रसिद्ध भी था और आर्थिक रूप से सफल भी। कुछ दिन पहले उसके एक प्रकाशित भोजपुरी गीत में अंखियां, गोली आदि शब्द प्रसिद्ध हुए थे। हास्य की मलाई तो लोग छककर जीमते ही हैं, पर बिरले को अपने पर किया व्यंग्य पचता है। और एक दिन एक दुखद खबर आयी। कुछ अज्ञात लोगों ने कट्टे से गोली मारकर शरद की हत्या कर दी।
अफवाह यह थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक मुखर, लिबरल पत्रकार को शरद का व्यंग्य रास नहीं आया। उन्होंने शरद को मौका दिया था कि बच्चू सुधर जाओ। शरद ने फिर भी वामपंथ के तथाकथित लिबरल पत्रकार को अपने तंज से बख्शा नहीं।
एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी और प्रखर वाक शक्ति के निडर प्रेरणा स्रोत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बेजुबान कर दिया गया।
(भारतीय सेना के सिग्नल कोर में कर्नल के पद से रिटायर लेखक का बचपन बिहार के आरा शहर में गुजरा है, लेकिन सेना में रहते हुए इन्हें देश के हर हिस्से में रहने का अवसर मिला है। अवकाश के बाद अब ये हैदराबाद में स्थायी रूप से रह रहे हैं और संचार व्यवस्था के प्राइवेट सेक्टर में ‘टेलीकॉम इंफ्रास्ट्रक्चर’ में सलाहाकार के रूप में कार्यरत हैं। भारतीय और वैश्विक साहित्य में इनकी हमेशा से रूचि रही है। 
 

(समाप्त)
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर

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