कर्नाटक चुनाव से पहले या बाद में दल-बदल एक आम बात

 

क्या दलबदलू कर्नाटक में 10 मई को होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा की सत्ता में वापसी की संभावनाओं को बिगाड़ देंगे? चुनाव से ठीक पहले राज्य भाजपा में दल बदल चरम पर है। ये दलबदलू भाजपा को कितना नुकसान पहुंचायेंगे, इसका अभी पता नहीं। भाजपा नेता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ऐसे दल बदल के बावजूद पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा, परन्तु प्रमुख चेहरों का बाहर निकलना हानिकारक साबित हो सकता है। भाजपा पहले से ही सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है और भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही है। इसके अलावा, राज्य में सत्तारूढ़ दल को सत्ता में वापस नहीं लाने की परम्परा है। जाति की राजनीति जैसे अन्य मुद्दे भी हैं।
भाजपा के कुछ दिग्गज और पुराने नेता उम्मीदवारों की सूची में शामिल नहीं किये जाने से नाराज़ हैं। यह क्षरण भाजपा द्वारा युवा और नये चेहरों के लिए पुराने उम्मीदवारों को हटाने के सोचे-समझे फैसले के कारण हुआ है। इसके अलावा, जिन्हें लगता है कि उन्हें टिकट नहीं मिलेगा और जो पार्टी के खिलाफ जनता के मूड को भांप सकते हैं, वे कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) में चले गये हैं। पिछले सप्ताह, भाजपा ने 52 नये उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और 90 मौजूदा विधायकों को बरकरार रखा, जिसमें कांग्रेस और जद (एस) से आये 11 नेता शामिल थे, जिन्होंने 2019 में कुमारस्वामी गठबंधन से सत्ता हासिल करने में मदद की थी। पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और छह बार के विधायक जगदीश शेट्टरपार्टी छोड़कर जाने वालों की सूची में सबसे ऊपर हैं। भाजपा ने उन्हें राज्यपाल या केंद्रीय मंत्री का पद देकर क्षति नियंत्रण का प्रयास किया, लेकिन उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए इसे अस्वीकार कर दिया।
अन्य निराश दिग्गजों में एक प्रभावशाली दिग्गज नेता एवं पूर्व उप-मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी, छह बार विधायक रहे एस. अंगारा, भाजपा एमएलसीआर शंकर और भाजपा विधायक एम.पी. कुमारस्वामी-मुदिगेरे शामिल हैं। उनमें से अधिकांश प्रभावशाली लिंगायत समुदाय से हैं, जो परंपरागत रूप से 1990 के दशक के अंत से भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। भारतीय राजनीति में दलबदल कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 1948 की शुरुआत में ही कांग्रेस से अलग हो गई थी। पार्टी 1950 में उत्तर प्रदेश में, 1953 में आंध्र प्रदेश में और 1967 में हरियाणा में जाने माने ‘आया राम गया राम’ मामले के साथ विभाजित हो गया। हरियाणा के एक विधायक गया राम साठ के दशक में पहली बार निर्दलीय जीते और कांग्रेस में शामिल हुए और उन्होंने एक पखवाड़े के भीतर तीन बार दल बदले।
दलबदल क्या है राजनीति में दलबदलू तब होता है जब कोई विधायक उस पार्टी को छोड़ देता है जिसके निशान पर वे जीते हैं और किसी अन्य पार्टी में शामिल हो जाते हैं। ये दल बदलू इस गतिविधि को दोबारा चुनाव लड़कर सदन में लौटने का एक साधन मात्र मानते हैं। 1985 में इस खतरे को रोकने के लिए दल-बदल विरोधी कानून के पारित होने के बाद, गति गिर गयी, लेकिन प्रवृत्ति जारी रही। मौजूदा विधायकों में से एक चौथाई ने अलग पार्टी के टिकट पर जीत हासिल की थी और छह में से एक ने एक से अधिक पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता था। संयोग से, भाजपा नौ साल से अलग-अलग शर्तों पर कर्नाटक में सत्ता में है, लेकिन कभी भी बहुमत हासिल नहीं कर पायी है। इसे अपनी सरकार बनाने के लिए दलबदलुओं पर निर्भर रहना पड़ा है। पिछले 2018 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने 224 सीटों में से 104 सीटें जीती थीं। लेकिन जद (एस) (37) और कांग्रेस (76) गठबंधन ने सरकार बनायी, हालांकि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। हालांकि भाजपा द्वारा कांग्रेस और जद (एस) के 18 विधायकों के साथ तख्तापलट करने के बाद कुमारस्वामी गठबंधन सरकार गिर गयी, जिससे वह सत्ता में वापस आ गयी। 2019 में 17 दलबदलू विधायकों में से 15 को मतदाताओं ने फिर चुना।
भाजपा नेता येदियुरप्पा चार बार मुख्यमंत्री बने, ऐसा करने वाले वे एकमात्र नेता थे, लेकिन उन्होंने एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। उनकी दो मुख्यमंत्रित्व काल कुछ ही दिनों तक चले। 2007, 2011 और 2018 में उनकी सरकारें गिर गयीं।
मतदाता दलबदलुओं को क्यों चुनकर सदन में वापस भेजते हैं? विरोधी पार्टियां उन्हें गले लगाकर फिर से मैदान में उतारने को तैयार हैं। वे दलबदल को अब एक ऐसे वाहन के रूप में देखते हैं जो विश्वसनीयता प्रदान करता है और उनकी चुनी हुई पार्टी में वह प्रभावशाली स्थान प्राप्त करता है। दल बदलना हमेशा दलबदलुओं को प्रभावित नहीं करता है। पिछले दशक में भाजपा ने 833 दलबदलुओं को पार्टी में दाखिल किया, जिनमें से 44 प्रतिशत ने फिर से चुनाव जीता। परंपरागत रूप से, दलबदलू प्रवासी पार्टी की सद्भावना कैडर और अपनी वित्त की क्षमता पर निर्भर रहते हैं। छोटे समय के नेता जीतने के लिए एक नई छवि प्राप्त करते हैं। चर्चित नेताओं के मामले में वे अपना वोट बैंक लेकर चलते हैं। कहानी की सीख यह है कि कड़े कानून लाकर दलबदलुओं को दूर नहीं किया जा सकता। त्रिशंकु प्रकार की विधानसभा में जो भी पार्टी सत्ता में आती है, दलबदलू बने रहते हैं। अफसोस की बात यह है कि जब तक राजनीतिक दल उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, तब तक दलबदलू यहां बने रहते हैं, जनता उन्हें वापस लौटने के लिए वोट देती है और दलबदलू लोग स्व-हित में विश्वास करते हैं। अगर इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगायी गयी तो यह भारतीय लोकतंत्र को नुकसान पहुंचायेगा। एक बार जब जनता खतरे को देख लेगी तो मतदाताओं की जागरूकता और दलबदलुओं को शर्मसार करना इसका जवाब हो सकता है। (संवाद)