सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, अस्पताल में नहीं गिनी जायेगी कस्टडी अवधि

कोयला घोटाला करने के आरोप में पश्चिम बंगाल के विकास मिश्रा को 16 अप्रैल 2021 को हिरासत में लिया गया था। उससे पूछताछ करने के लिए सीबीआई ने पुलिस रिमांड की मांग की थी। सीबीआई की विशेष अदालत ने सात दिनों यानी 22 अप्रैल 2021 तक की रिमांड की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन ढाई दिन की जांच के बाद ही आरोपी ने 18 अप्रैल 2021 को खुद को अस्पताल में भर्ती करा लिया। वह वास्तव में बीमार हो गया था या उसने बीमारी का बहाना किया या कोई जुगाड़ लगाकर अस्पताल में पहुंचा, अपर्याप्त सूचना की स्थिति में कहना कठिन है। बहरहाल, 21 अप्रैल 2021 को आरोपी मिश्रा को अंतरिम ज़मानत मिल गई और नतीजतन सीबीआई पुलिस कस्टडी में उसकी जांच न कर सकी बावजूद इसके कि उसके पास अपने पक्ष में वैध अदालती आदेश थे।
यह कोई इकलौता मामला नहीं है बल्कि आजकल तो यह जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आम मामला हो गया है कि आरोपी गिरफ्तारी के बाद बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो जाता है और उसके इलाज के दौरान उसकी पुलिस रिमांड या कस्टडी की अवधि पूर्ण हो जाती है, जिससे पुलिस को उसकी जांच करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। यह न्यायिक व्यवस्था में बहुत बड़ी कमी थी, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक आदेश से दुरुस्त कर दिया है। 10 अप्रैल 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस कस्टडी के दौरान आरोपी के इलाज में जो समय खर्च हो जाता है, उसकी भरपाई करने के लिए पुलिस को अतिरिक्त समय प्रदान किया जायेगा। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अब से किसी आरोपी को जांच समय से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं मिलेगी। 
अगर किसी आरोपी को 15 दिनों के लिए पुलिस रिमांड में भेजा गया है और वह इसमें से 10 दिन अपनी बीमारी के कारण अस्पताल में गुज़ारता है, तो ठीक होने पर पुलिस को उसकी जांच करने के लिए अतिरिक्त 10 दिनों का समय दिया जाएगा ताकि आवंटित समय की भरपाई की जा सके। गौरतलब है कि सीबीआई ने कोयला घोटाला आरोपी विकास मिश्रा से पूछताछ करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, इस आग्रह के साथ कि एजैंसी को जांच करने के लिए आरोपी की सात दिनों की कस्टडी दी गई थी, लेकिन ढाई दिन बाद ही वह अस्पताल में भर्ती हो गया और फिर उसे अंतरिम ज़मानत मिल गई। सीबीआई की ओर से पेश होते हुए एडिशनल सोलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने कहा कि एजैंसी विशेष न्यायाधीश द्वारा दी गई पुलिस कस्टडी रिमांड का इस्तेमाल न कर सकी क्योंकि आरोपी विकास मिश्रा अस्पताल में भर्ती हो गया था। इसलिए सीबीआई को आरोपी की शेष सात दिनों की अवधि की पुलिस कस्टडी रिमांड मिलनी चाहिए। 
इस मांग से सहमत होते हुए न्यायाधीश एम.आर. शाह और न्यायाधीश सीटी रविकुमार की खंडपीठ ने कहा कि किसी भी आरोपी को जांच और/या अदालत की प्रक्रिया से खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा और आरोपी के उपचार में जो समय लगा है, उसकी भरपाई के लिए जांच एजैंसी को उतना ही समय दिया जाएगा। खंडपीठ ने कहा, ‘यह देखा गया कि सात दिनों की पुलिस कस्टडी का प्रारम्भिक आदेश पूर्ण हो गया, लेकिन दिए गए कारणों के चलते कि आरोपी स्वयं 18 अप्रैल 2021 को अस्पताल में भर्ती हुआ और उसके बाद उसे 21 अप्रैल 2021 को अग्रिम ज़मानत मिल गई, जिससे सीबीआई वैध आदेश के बावजूद पुलिस कस्टडी में उसकी जांच न कर सकी। अत: प्रतिवादी आरोपी सफलतापूर्वक पुलिस कस्टडी के पूर्ण ऑपरेशन से बच निकला, जिसकी अनुमति विद्वान विशेष न्यायाधीश ने दी थी। ...किसी भी आरोपी को जांच और/या अदालत की प्रक्रिया से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। किसी भी आरोपी को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह अपने व्यवहार से न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करे। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि सच को खोद निकालने के लिए जांच एजैंसी का यह महत्वपूर्ण अधिकार है कि वह कस्टडी में लेकर पूछताछ/जांच करे। इसी अधिकार को आरोपी ने जानबूझकर व सफलतापूर्वक बाधित किया है। इसलिए अगर सीबीआई को जांच के लिए आरोपी की शेष सात दिनों की अवधि की पुलिस कस्टडी नहीं दी जाती है तो यह उस आरोपी को प्रीमियम देना होगा, जिसने न्यायिक प्रक्रिया को सफलतापूर्वक बाधित किया है।’
ध्यान रहे कि इस केस में सीबीआई ने नवम्बर 2020 में ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड, सीआईएसएफ, रेलवे आदि के अधिकारियों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी, आईपीसी की धाराओं 120बी, 409 और प्रिवेंशन ऑ़फ क्रप्शन एक्ट के उचित प्रावधानों के तहत। विकास मिश्रा को 16 अप्रैल 2021 को गिरफ्तार किया और सीबीआई को सात दिनों के लिए उसकी पुलिस कस्टडी मिली, लेकिन उसी दौरान वह अस्पताल में भर्ती हो गया, जिससे एजैंसी अपनी जांच पूरी न कर सकी।
बहरहाल, यहां मुद्दा केवल इस एक केस का नहीं है बल्कि समस्या यह है कि जिन आरोपियों के पास पैसा, राजनीतिक संपर्क, रसूक आदि होते हैं, उनके खिलाफ अगर पुलिस या जांच एजैंसीज अदालत से पूछताछ व जांच के लिए कस्टडी या रिमांड हासिल भी कर लेती हैं ताकि सच तक पहुंचा जा सके तो भी वह जुगाड़ लगाकर स्वयं को अस्पताल में भर्ती करा लेते हैं, भले ही उनकी ‘बीमारी’ वास्तविक हो या बनावटी, जिससे कस्टडी अवधि पूरी हो जाती है और जांच अधूरी रह जाती है। ऐसा करने से आरोपी को अक्सर सबूत नष्ट करने का अवसर भी मिल जाता है। देखने में यह भी आया है कि गवाहों को धमकाया या खरीद लिया जाता है। ज़ाहिर है इससे दोषी सज़ा से बच जाते हैं व पीड़ित न्याय से वंचित रह जाते हैं। न्याय प्रक्रिया में यह बहुत बड़ी कमी थी, जिसका गलत फायदा रईस व प्रभावी लोग ही उठा पा रहे थे; क्योंकि बेचारा गरीब तो पुलिस व अदालती प्रक्रिया का सही लाभ भी बामुश्किल ही उठा पाता है। अब सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक आदेश से अस्पताल में भर्ती होकर पुलिस कस्टडी रिमांड की अवधि पूरी करने के चलन पर विराम लगेगा; क्योंकि पुलिस या जांच एजैंसीज के पास अस्पताल में ‘खर्च’ हुए समय की भरपाई करने का अवसर होगा? सुप्रीम कोर्ट ने यह अवश्य कहा है कि ‘किसी भी आरोपी को जांच समय से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जायेगी’, लेकिन यह ऐसी नजीर नहीं है जो स्वत: ही लागू हो जाएगी कि आरोपी तीन दिन अस्पताल में रहा, इसलिए उसकी कस्टडी के तीन दिन अपने आप ही बढ़ गए। दरअसल, हर मामले में समय भरपाई के लिए अदालत से अनुमति लेने की ज़रूरत पड़ेगी, इस आदेश को नज़ीर के तौर पर पेश करते हुए। इसलिए बेहतर होगा कि इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट फैसला सुनाए या संसद कानून गठित करे, तभी इस कमी या छूट के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा।

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