डॉलर का वर्चस्व

देखा गया है कि डालर की तुलना में रुपये की कीमत लगातार गिरती चली गयी है। कुछ दिन पहले तक एक डालर 83 रुपये के बराबर आ गया था। देश के आर्थिक ढंग से सोचने वालों ने तो चिंता प्रगट की है। भारत का जन सामान्य भी चिंतित नज़र आया। संसद में इस संबंध में सवाल उठा, जिसका उत्तर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का कुछ इस तरह था कि रुपया कमजोर नहीं हो रहा बल्कि डालर मजबूत हो रहा है। कहीं हम भारतीय तल्ख सच्चाई की उपेक्षा तो नहीं कर रहे यह ज़रूर सोचने का विषय होना चाहिए।
अमरीका को इन दिनों एक ऐसा मुल्क समझा जा रहा है जो बार-बार अपने विरोधी देशों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाता है या फिर प्रतिबंध लगाने की धमकी देता रहता है। यह प्रभावित करने वाली धमकी आती कहां से है? क्या यह क्षमता उसे वैश्विक रूप से वैश्विक मुद्रा के रूप में डालर के वर्चस्व से ही प्राप्त हुई है? हम लोग सालों का विचार जानते हैं, उसी तरह मुद्रा का विचार भी रहता है। 2021 में विदेशी मुद्रा बाज़ार में हर रोज़ लगभग 6000 अरब डालर से अधिक के व्यापार का अनुमान लगाया गया है। जबकि रोज़ 62 अरब डालर के माल का व्यापार बताया गया।
बाज़ार की तरह मुद्राओं का दाम भी मांग और पूर्ति से तय होता है। डालर की शक्ति का आधार क्या है? डालर की शक्ति को पहले सोने की समतुल्यता से आंका जाता रहा है। बाद में यह संबंध टूट गया मालूम पड़ा, लेकिन तब भी डालर का वर्चस्व बना रहा तो क्या यह एकाधिकार की वजह से था? फिदेल कास्त्रो को कौन नहीं जानता? क्यूबा के इस राष्ट्रपति ने एक बार कहा था कि हर दिन तीन हजार अरब डालर का सट्टा कारोबार किया जा रहा है। विश्व व्यापार से इसका संबंध ही क्या है? एक वर्ष में कुल मिलाकर 6500 अरब डालर का विश्व व्यापार होता है, जिसके मानी है कि जिन शेयर बाज़ारों की बढ़ौतरी की बाबत इतना सुनते है, उनमें हर दो दिन में डालर की लगभग उतनी ही सट्टेबाज़ी होती है, जितना एक साल में कुल विश्व व्यापार होता है।
जैसे भारत की प्रचलित मुद्रा रुपया है वैसे ही दुनिया के सभी मुल्कों की अलग-अलग मुद्रायें हैं। यूरोपीय संघ के देशों की सांझी मुद्रा यूरो है। लेकिन इसका प्रभाव आम तौर पर अपने-अपने मुल्क में है जबकि डालर का प्रभाव वैश्विक है। दुनिया की सभी मुद्रायें विनिमय दर के तौर पर डालर से नापी जाती हैं। निवेश कर्ता और भुगतान भी डालर में ही होता है। यहां तक कि बैंकों के बीच वैश्विक व्यापार के लिए दिया जाने वाला भुगतान लगभग 80 प्रतिशत डालर द्वारा ही होता है। सभी देशों की सभी सरकारों को अपना मुद्रा भंडार डालर में ही रखना पड़ता है। बड़े खिलाड़ी, नेता, व्यापारी सभी अपनी कमाई डालर में ही आंकना चाहते हैं।
चीजों को अपने तरीके से बदलने में नवउदारवाद ने अपने तरीके से काम किया है। इसने तीसरी दुनिया में कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को विदेशी निवेश पर निर्भर बना दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं में लगभग सारा विदेशी निवेश डालर में ही होता है। बेशक यह जन विरोधी हो, परन्तु वित्तीय पूंजी के संकेतों पर चलना यहां मज़बूरी के रूप में देखा जा सकता है। जब चीन-साऊदी व्यापार की बात युआन में करने की बात उठी, संयुक्त राज्य अमरीका की भौहें तन गयीं। डालर को स्थिर रखने के लिए पिछले 50 वर्षों में सऊदी अरब पर निर्भरता रही है। 1971 में अमरीकी सरकार ने स्वर्ण मानक से डालर का रिश्ता तोड़ दिया था और दुनिया के केन्द्रीय बैंकों ने अपना मुद्रा भंडार रखने के लिए अमरीकी ट्रेजरी सिक्योरटीज़ और दूसरी अमरीकी वित्तीय सम्पतियों पर भरोसा करना शुरू कर दिया था। 1973 में जब तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं तो अमरीकी सरकार ने सऊदी तेल के मुनाफे के जरिये डालर के प्रभाव की एक प्रणाली बनाने का फैसला किया था। क्या डालर के प्रभुत्व से निकलने का कोई रास्ता नहीं है? क्या इससे गरीब देशों की समस्याओं में अधिक इज़ाफा नहीं होता? होता है। एक रास्ता यह है कि आत्मनिर्भर विकास की नीतियों को नये सुलझे ढंग से विकसित किया जाए। इसके लिए काफी तैयारी करनी होगी और गरीब मुल्कों को आपसी सहयोग बढ़ाकर खुले मन से एक-दूसरे का साथ देना होगा। आत्मनिर्भर होकर ही इस कुचक्र से निकलने के उपाय मिल सकते हैं।