सिनेमा और राजनीति में नज़दीकियां कितनी उचित हैं ?

क्या सिनेमा और राजनीति में नज़दीकियां बढ़ती जा रही हैं? या सिनेमा का इस्तेमाल शुद्ध रूप से राजनीति के लिये किया जाने लगा है? वैसे स्वतंत्रता के बाद के दिनों से सिनेमा, राजनीति, कलाकार और नेता कोई दूर भी नहीं थे लेकिन एक महीन रेखा थी फिल्मों और राजनीति में जो लगता है ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरल स्टोरी’ ने पार कर ली है। तब फिल्म में राजनीति का विचार तो दिखता या अनुभव होता था लेकिन शुद्ध प्रचार नहीं किया जाता था। मनोज कुमार ने लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ नारे से प्रभावित होकर इसी नाम से फिल्म बनानी शुरू की थी। बाद में इसका नाम ‘उपकार’ कर दिया गया था। फिल्म अपने समय की ब्लाक बस्टर फिल्म थी। इसी प्रकार डाकुओं की समस्या को लेकर सुनील दत्त ने ‘मुझे जीने दो’ जैसी शानदार फिल्म बनाई थी।
आपातकाल को लेकर ‘किस्सा कुर्सी का’ बनाई अमृतलाल नाहटा ने लेकिन इसे पर्दे पर प्रदर्शित  होने का अवसर ही नहीं मिला क्योंकि ऐसी चर्चा रही कि यह श्रीमती इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन को धूमिल कर सकती है। फिर गुलज़ार निर्देशित फिल्म आई ‘आंधी’ जो इंदिरा गांधी के जीवन को ही रेखांकित करती थी लेकिन फिल्म के कथा लेखक कमलेश्वर ने इसे किसी अन्य राज-घराना परिवार की कहानी बता कर अपना पीछा छुड़ाया। इसी तरह समय-समय पर ऐसी फिल्में बनती आई हैं जो सीधे-सीधे राजनीति को प्रभावित कर सकती थीं। 
सन् 2014 के बाद राजनीति और फिल्म में नजदीकियां पहले से ज्यादा बढ़ती दिख रही हैं। कभी ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर खूब चर्चा हुई कि यह एक पूर्व प्रधानमंत्री की छवि धूमिल कर रही है। इसके बाद पंजाब के विधानसभा चुनाव के समय फिल्म आई ‘उड़ता पंजाब’ जो राज्य की युवा पीढ़ी में बढ़ती नशाखोरी को उजागर कर रही थी किन्तु इसे लेकर भी आरोप प्रत्यारोप लगे थे। यह भी आरोप लगा कि यह फिल्म पंजाब की युवा शक्ति राजनीतिक छवि को बदनाम करने के लिये बनाई गयी है। यह फिल्म भी ज्यादा नहीं चल पाई। 
पिछले समय में ‘कश्मीर फाइल्ज’ आई और इसे कश्मीर पर राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित बताया गया इसे। फिल्म ने खूब कमाई भी की। दोनों हाथों में लड्डू रहे फिल्म निर्माता और उनकी एक्ट्रेस पत्नी पल्लवी जोशी के। चर्चा होती रही कि यह फिल्म एक राजनीतिक दल की छवि धूमिल करने और दूसरे दल की छवि चमकाने के गुप्त एजेंडे पर आधारित है। बात आई गयी हो गयी। फिल्म चली। कुछ कलाकारों की चर्चा हुई और कुछ चर्चा में आये। अब आई है ‘द केरल स्टोरी फिल्म’। यह फिल्म पश्चिमी बंगाल में तो बैन की गयी है किन्तु उत्तर प्रदेश में टैक्स फ्री कर दी गई है। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह फिल्म किसी राजनीतिक दल के एजेंडे को लेकर बनाई गई है या नहीं। 
समाजवादी पार्टी के महासचिव शिवपाल सिंह यादव ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि मनोरंजन को मनोरंजन के लिये छोड़ दें। सिनेमा व साहित्य का प्रयोग अपने जहरीले एजेंडे को थोपने के लिये न करें। शिवपाल सिंह ने कहा कि नफरत की कोख से उपजी कोई कला राष्ट्र व समाज के लिये शुभ नहीं कही जा सकती। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस फिल्म का उल्लेख कर्नाटक की चुनावी रैली के दौरान करते हुए कांग्रेस पर निशाना साधने में ज़रा-सी भी देर नहीं लगाई। उन्होंने भी कहा था कि यदि कोई प्रस्ताव आता है तो इस फिल्म को राज्य में करमुक्त कर दिया जायेगा। चुनावी रैली में फिल्म का उल्लेख किस तरफ इशारा करता है? अतीत में यह ज़रूर है कि कुछ फिल्मों पर प्रतिबंध लगाये गये लेकिन इस तरह जैसे ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरल स्टोरी’ को प्रमोट किया जा रहा है, वैसे कदम कभी नहीं उठाये गये और अब ये कदम खतरनाक भी हो सकते हैं।
इसी बीच हरियाणा में प्रसिद्ध एक्टर यशपाल शर्मा ने हरियाणा के प्रसिद्ध कलाकार दादा लखमी के जीवन चरित पर आधारित फिल्म बनाई इसी नाम से।  हरियाणा की संस्कृति के लिये जाने जाते पंडित लखमी चंद के इस चरित को सामने लाने के लिये सवा तीन करोड़ लगा दिये यशपाल शर्मा ने लेकिन प्रदर्शन के बाद भारी घाया पड़ने से उन्हें अपना एक घर तक बेचना पड़ा। इस फिल्म में कोई राजनीति एजेंडा नहीं था तो इसकी भरपाई के लिये सरकार भी आगे नहीं आ रही। दूसरी ओर शाहरुख खान की ‘पठान’ फिल्म ने इसे करोड़ों के क्लब में पहुंचा दिया। 
क्या राजनीति का इस तरह की फिल्मों ज़रिये सीधे-सीधे हस्तक्षेप सही है? फिल्मों को मनोरंजन से हट कर राजनीतिक एजेंडे के रूप में उपयोग करना कितना सही है, यह प्रश्न विचारणीय है।

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