बच्चों का बचपन छीन लेता है बाल श्रम 

प्रत्येक वर्ष 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया जाता है। भारत के संविधान के अनुसार, 14 वर्ष या उससे कम आयु के बच्चों से काम लेना बाल मज़दूरी माना जाता है जो दण्डनीय अपराध है। मासूम बच्चों से उनका बचपन छीन कर उनसे कड़ी मेहनत करवाना मानवता के प्रति अपराध है। खेलने, पढ़ने और प्यार पाने की उम्र में उन  पर बोझ डालने से उनका शारीरिक एवं बौद्धिक विकास बाधित होता है। वे नशे तथा अन्य बुरी आदतों के सहज शिकार बन जाते हैं जिससे उनका शोषण और अधिक बढ़ता है। 1986 में पारित बाल श्रम निषेध और नियमन अधिनियम के अनुसार बाल श्रम तकनीकी सलाहकार समिति नियुक्त की गई। खतरनाक उद्योगों में बच्चों की नियुक्ति प्रतिबंधित है। कहने को ऐसे कानून पिछले 6 दशक से भी अधिक समय से लागू हैं पर वास्तविकता क्या है, यह सभी जानते हैं। दुनिया के सामने अपनी साख बचाने के लिए हम अपने उत्पादों पर ‘इसे बनाने में बाल-श्रम का उपयोग नहीं किया गया’ लिख कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं पर इस सच्चाई से कौन इन्कार कर सकता है कि आज भी देश के सभी राज्यों में बाल मज़दूरी जारी है। किसी भी चाय वाले, ढाबे वाले, जूता पालिश, कूड़ा बीनना, रेलगाड़ी में नाच-गाकर भीख मांगना, कढ़ाई-सिलाई, गलीचे बुनना, घरेलू काम जैसे सैंकड़ों कामों पर इनका लगभग एकाधिकार है।
‘इतने बच्चों को बंधुआ मज़दूरी से मुक्त करवाया गया’ जैसे समाचार यदा-कदा सामने आते रहते हैं पर उन बच्चों के पुनर्वास से लेकर उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, उनके माता-पिता की आर्थिक स्थिति जैसे सवालों का उत्तर जानने का वक्त किसके पास है? ऐसे में यह सवाल उत्पन्न होता है कि क्या छापे मारकर फोटो खिंचवाने भर से बाल मज़दूरी खत्म हो सकती है? अनेक बार ‘सौदेबाजी’ जैसे आरोप भी सामने आते रहे हैं जो इस अभियान की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। बड़े-बड़े इनाम और शोहरत हासिल करने वालों से इतना तो अवश्य पूछा जा सकता है, ‘क्या वे जानते हैं कि उनके द्वारा छुड़ाये गये बच्चों की वर्तमान दशा कैसी है? उनमें से कितने स्थान बदल कर अब भी मज़दूरी कर रहे हैं और कितने बच्चे पढ़-लिख कर प्रशिक्षित हुए या कितनाें का रोजगार सुनिश्चित हुआ?
बाल श्रम के अनेक पहलू हैं। उन पर गंभीरता से चिंतन का अभाव नजर आता है। जैसे एक व्यापारी का 10 वर्ष का बेटा पढ़ाई के साथ अथवा पढ़ाई छोड़कर पिता के काम में हाथ बँटाता है, तो उसे बाल श्रम माना जाए या नहीं? यदि नहीं तो क्यों नहीं और यदि हां तो आज तक ऐसे कितने मामलों पर कारवाई की गई? इसी प्रकार से, हर घर में बेटी घरेलू काम में सहयोग करती है। यह बाल श्रम की श्रेणी में आता है या नहीं? यदि हाँ, तो इस तरह से पूरा समाज ही दोषी माना जाएगा।  
दोहरे मापदण्ड अपनाकर बालश्रम तो क्या, किसी भी समस्या से मुक्ति नहीं पाई जा सकती। एक ही स्थान पर स्वयं मालिक का बेटा और किसी दूसरे का बेटा काम करते हों तो एक गलत और दूसरा ठीक कैसे? क्या इसलिए कि एक बच्चे को पढ़-लिखकर अपना भविष्य बनाने का अवसर भी मिल रहा है तो फिर यदि कोई व्यवसायी निराश्रित अथवा गरीब बच्चों के उचित भरण-पोषण और शिक्षा की व्यवस्था करते हुए उससे कुछ घंटे काम लेता है तो कानून और कुछ लोगों को आपत्ति क्यों?
यह सत्य है कि हर बच्चे को उसका बचपन मिलना चाहिए, उसे उचित शिक्षा, लाड-प्यार और संतुलित भोजन मिलना ही चाहिए पर यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो दोषी कौन है? क्या वह व्यवसायी ही एकमात्र दोषी है जो उसे अपने पास रखता है या उसके माता-पिता को भी दोषियों की श्रेणी में रखा जा सकता है जो बच्चों को उचित सुविधाएं तो उपलब्ध करा नहीं पाते पर बच्चों की संख्या सीमित करने की सलाह देने वाले को भी अपराधी मानते हैं? वास्तविकता यह है कि हमारा समाज और हमारी व्यवस्था भी दोषी है। बाल मज़दूरी का कलंक यदि कायम है तो केवल इसीलिए कि इस दिशा में जो भी प्रयास होते हैं,  उन्हें भी मात्र दिखावा या कर्मकाण्ड मानकर जैसे-तैसे निपटाया जाता है। बड़े औद्योगिक घरानों, भूमाफिया, बिल्डर्स लाबी, राजनीति और शेयर बाजार में अरबों-खरबों कमाने वालों को सामाजिक दायित्वों का पाठ कौन पढ़ायेगा? 
केवल छापे मारकर कुछ बच्चों को ‘बंधुआ मज़दूरी’ से छुड़ाने की बातें वास्तव में उन बच्चों के जीवन को और अधिक कष्टमय बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कुछ पारिवारिक मजबूरियों के कारण पढ़ाई छोड़ देने वाले भी तो काम करने लगते हैं क्योंकि गरीब परिवार में हर बच्चा परिवार का सहायक और कमाऊ सदस्य होता है। शिक्षा बीच में न छूटे, इसके लिए किये जा रहे प्रयास भेदभाव पूर्ण हैं या फिर अपर्याप्त। ‘आम आदमी’ का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की बातें तो बहुत हो चुकी हैं, परिणाम देने वाले कदमों का इंतजार कब तक जारी रहेगा?  आखिर कब उनके हाथ में जूठे बर्तन के बदले खिलौने होंगे, कढ़ाई की सुई के बदले पेंसिल-पैन होगा? मार फटकार के बदले प्यार कब मिलेगा? (युवराज)