मुसलमानों को भी भविष्य का मतदाता मानती है भाजपा

यह देख कर किसी को भी थोड़ा ताज्जुब हो सकता है कि कर्नाटक में मुसलमानों का आरक्षण छीन कर हिंदुओं को देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनावों में मुसलमानों को भी टिकट दिया और 50-55 मुसलमान उम्मीदवार जीते भी है। दरअसल, हम भले ही इन दोनों घटनाओं को मिला कर देखें, पर भाजपा के रणनीतिकारों के लिए ये दो अलग-अलग बातें हैं। कर्नाटक में उनके सामने समस्या यह थी कि हिंदुओं की गोलबंदी का प्रतिशत कैसे बढ़ाएं यानी लिंगायतों को प्रसन्न रखते हुए वोक्कलिगाओं को अपने साथ कैसे जोड़ें। इसके उलट उत्तर प्रदेश में वे मुसलमानों को टिकट देने का प्रयोग करने की तरफ गये, क्योंकि वहां हिंदू गोलबंदी पहले से ही अपने चरम पर पहुंच चुकी है। इसी बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि कर्नाटक में भाजपा चुनावी राजनीति में फौरी लाभ उठाने की कोशिश कर रही थी, जबकि उत्तर प्रदेश में वह मुसलमानों को भविष्य के मतदाता के रूप में देख रही है। वक्त के साथ भाजपा की यह मुसलमान-रणनीति और भी परवान चढ़ सकती है। अभी तक उसे या तो शिया मुसलमानों के वोट मिलते हैं या फिर बरेलवी समुदाय के। लेकिन, इन आठ प्रतिशत मुसलमान वोटों से उसका काम नहीं चलने वाला। भाजपा चाहती है कि भविष्य की राजनीति में उसे मुसलमान वोटों का भी आसरा हो। एक तरह से देखा जाए तो हिंदू गोलबंदी की सीमाएं उसने छू ली हैं। अब मतदाताओं का प्रतिशत बढ़ाने के लिए उसके लिए नयी ज़मीन तोड़ना ज़रूरी है। 
पार्टियां अपनी राजनीतिक रणनीतियां मुख्य तौर पर दो तरह के लक्ष्यों के तहत बनाती हैं। कभी ये लक्ष्य दूरगामी होते हैं, तो कभी तात्कालिक किस्म के। आम तौर पर चुनाव का मौसम फौरी रणनीतियों का होता है, लेकिन इस समय हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति के कारखाने में कई ऐसी रणनीतियां तैयार की जा रही हैं जिनका परिप्रेक्ष्य आसन्न विधानसभा और लोकसभा चुनावों से परे जाता है। हो सकता है कि इनका कुछ असर इन चुनावों में भी दिख जाए, पर इनके पीछे का मंसूबा दूरगामी ही प्रतीत होता है। इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी की दो, और ़गैर-भाजपा दलों की एक रणनीति पर विचार किया जा सकता है। 
भाजपा पिछले दो साल से एक ऐसी रणनीति पर काम कर रही है जिसके इच्छित परिणाम अगर निकले तो वह आने वाले समय में अपने वोटों का राष्ट्रीय प्रतिशत चालीस या उसके पार पहुंचा सकती है। इस समय भाजपा ज्यादा से ज्यादा 37-38 ़प्रतिशत वोटों की पार्टी है। विपक्षी मतों के बंटवारे के कारण उसे एक मज़बूत बहुमत की सरकार बनाने का मौका अवश्य मिल गया है, लेकिन अगर कांग्रेस के अच्छे ज़मानों से तुलना की जाए तो यह पार्टी दो चुनाव जीतने के बावजूद 45 प्रतिशत वोट पाने के आंकड़े से काफी पीछे नज़र आती है। यह रणनीति मुसलमान वोटों को अपनी ओर खींचने की है। इसके लिए भाजपा की निगाह पसमांदा (पिछड़े) मुसलमानों पर है जो व्यावहारिक रूप से मुस्लिम समाज की तकरीबन अस्सी प्रतिशत जनसंख्या बनाते हैं। मेहनतकश, ़गरीब और कारीगर जातियों की इस मुसलमान जनता का राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के पहले से ही ऊंची जातियों के सम्पन्न और कुलीन समझे जाने वाले अशऱाफ नेताओं को चुनौती देता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक द्वारा सार्वजनिक मंच पर हिंदुओं और मुसलमानों का एक ही डीएनए बताये जाने से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पसमांदाओं के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का आह्वान करने तक सत्तारूढ़ दल की यह रणनीति पूरी तरह से भविष्योन्मुखी है। अभी कर्नाटक चुनाव में तो पार्टी पसमांदाओं का आरक्षण छीन कर हिंदुओं को  देती नज़र आई थी, पर इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर उनके वोटों की उम्मीद छोड़ दी है। उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में कई जगहों पर इस तरह के मुसलमानों को चुनाव में उतार कर यह प्रयोग जारी रखा गया और इसके नतीजे भी उम्मीद अनुसार आये हैं। 
एक प्रतिष्ठित समीक्षक के अनुसार पसमांदा वोटरों के भाजपा की तरफ रुझान से पार्टी को डेढ़ से ढाई प्रतिशत वोटों का लाभ मिल सकता है जिससे वह चालीस प्रतिशत की रेंज में पहुंच सकती है। दूसरे, इससे हिंदू वोटरों की गोलबंदी में निहित समस्याओं का सामना करने में भी मदद मिलेगी। यह सच है कि भाजपा को ओ.बी.सी. और दलित वोट मिलते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा उस तरह पक्की नहीं है, जिसके तरह ऊंची जातियों की है। ये वोटर कभी-कभी पार्टी का साथ छोड़ भी देते हैं। इससे पैदा हुए संकट का सामना करने में भी भाजपा की मदद पसमांदा वोटर कर सकते हैं। 
भाजपा की दूसरी रणनीति का संबंध लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन से है। इस परिसीमन पर 2026 तक रोक लगी हुई है, लेकिन उसके बाद उसे नहीं रोका जा सकेगा। भाजपा चाहे तो परिसीमन के ज़रिये अपने प्रभाव-क्षेत्र की सीटें बढ़ा सकती है और उनके इलाकों की सीटें कम कर सकती है जहां उसे समर्थन या तो कम मिलता है या बिल्कुल नहीं मिलता। मसलन, परिसीमन के परिणामस्वरूप हिंदी क्षेत्र की 33 सीटें बढ़ सकती हैं और इसका खामियाजा दक्षिण भारत क उठाना पड़ सकता है। वहां की सीटों की संख्या कम हो जाएगी। यह सब करने के लिए भाजपा को किसी नियम का उल्लंघन नहीं करना है। ऐसा करने के लिए उसे केवल जनसंख्या के मुताब़िक प्रतिनिधित्व का नियम लागू करना होगा। यह अलग बात है कि इससे उन राज्यों को नुकसान होगा, जिन्होंने जनसंख्या पर नियंत्रण करने के सफल और प्रशंसनीय उपाय किये। परिसीमन के भारतीय लोकतंत्र के लिए क्या नतीजे निकलेंगे, इसका पूरा तथ्यात्मक अनुमान अभी नहीं लगाया गया है। नयी संसद में लोकसभा सदस्यों की लगभग दोगुनी संख्या बैठ सकती है। अगर दक्षिण की मौजूदा सीटें कायम रखनी हैं, तो लोकसभा सदस्यों की संख्या आठ सौ से ज्यादा करनी होगी। बढ़े हुए सदस्य ज्यादातर किस पार्टी के होंगे, इसका मोटा अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। 
़गैर भाजपा दलों के लिहाज़ से देखा जाए तो उनकी दूरगामी रणनीति जातिगत जनगणना और ओ.बी.सी. गोलबंदी की संभावनाओं के इर्दगिर्द नज़र आती है। इसीलिए राहुल गांधी आजकल  ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ का पुराना समाजवादी नारा लगाते हुए सुने जा सकते हैं। लेकिन इस रणनीति में भी उसी तरह की अनिश्चितताएं हैं, जैसी भाजपा की पसमांदा-रणनीति या परिसीमन-रणनीति में नज़र आती हैं। इससे जुड़े कई सवाल हैं जिनका जवाब ़गैर भाजपा दलों को तलाशना है। हालांकि ओ.बी.सी. गोलबंदी करते समय ब्राह्मणवाद विरोध की बयानबाज़ी के गहरे और स्थायी ़िकस्म का नुकसान पहले भी हो चुके हैं और आगे भी हो सकते हैं। दूसरे, ओ.बी.सी. पहचान का एक हिस्सा कभी भी भाजपा की तरफ खिसक सकता है। भाजपा को भी पता है और विपक्ष को भी कि ये रणनीतियां 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके काम नहीं आने वाली हैं। लोकसभा चुनाव के लिए होने वाली जद्दोजहद मौजूदा समर्थन आधारों के दम पर ही करनी होगी। यह पेशबंदी तो 2024 के बाद होने वाले चुनावों के लिए की जा रही है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।