संविधान व कानूनों ने ही हिन्दू समाज का एकीकरण किया

भारतीय जनता  पार्टी और केन्द्र सरकार ने चतुराई के साथ समान नागरिक संहिता से संबंधित बहस की शुरुआत करके अपनी राजनीतिक गोटी लाल करने की कोशिश शुरू कर दी है। इसमें वह कहां तक सफल होगी, यह भविष्य ही बताएगा। हालांकि समान नागरिक संहिता तैयार करने और देश भर में उसे लागू करने का दायित्व संविधान के निर्देशक सिद्धांतों से निकलता है, लेकिन एक बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक समाज पर एक समान संहित लागू करने से जुड़े अंदेशों पर विचार किये बिना इस प्रयास को सिर्फ संविधान के नाम पर आंखें बंद करके समर्थन नहीं दिया जा सकता। इस लिहाज़ से यह भी समीचीन होगा कि देश में ़गैर-मुसलमान और ़गैर-ईसाई जनसंख्या पर हिंदू विवाह ़कानून लागू करने के परिणामों पर एक निगाह डाल ली जाए। ये परिणाम आज हमारे सामने स्पष्ट हैं। ध्यान रहे कि हिंदू विवाह ़कानून पारित करने और लागू करने का दायित्व डॉ. अम्बेडकर और जवाहर लाल नेहरू जैसी हस्तियों ने किया था जो हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के कड़े आलोचक थे। यह विडम्बना ही है कि पूरी तरह से ़गैर-धार्मिक और आधुनिकतावादी नज़रिये से बनाये गए इस ़कानून का परिणाम हिंदुओं के ऊपर एक इस तरह की विधिसच्मत समानता आरोपित करने में निकला है। इसने जाने-अनजाने हिंदू राष्ट्रवादी परियोजना की सफलता के लिए ज़मीन तैयार की है। अगर पूरे देश पर एक विवाह ़कानून लागू कर दिया जाएगा तो उसका क्या परिणाम निकलेगा— इसका एक मोटा-मोटा अंदाज़ इन फलितार्थों को देख कर लगाया जा सकता है। मैं पहले भी इस स्तम्भ में इन बातों और दृष्टांतों के बारे में चर्चा कर चुका हूँ। लेकिन, हालात का तकाज़ा मुझे मज़बूर करता है कि इन्हें दोहराया जाए। ताकि, नयी परिस्थिति में समाज नागरिक संहिता से जुड़ी राजनीति पर ठीक से सोचा जा सके।
हिंदू विवाह और हिंदू उत्तराधिकार ़कानून हिंदू होने की विधिसम्मत परिभाषा पेश करते हैं। यह नागरिक संहिता दो हिस्सों में बांट कर नेहरू द्वारा पारित कराई गई थी, ताकि कांग्रेस के भीतर चल रही इसके विरोध की मुहिम को निष्प्रभावी किया जा सके। नेहरू की इस राजनीतिक सफलता के प्रभाव का परिणाम संभवत: उनके इरादे के उलट निकला। सावरकर की यह थीसिस है कि जिनकी पुण्य भूमि और पितृ भूमि भारत है, वे सभी हिंदू हैं। हिंदू होने की इस ़कानूनी परिभाषा में यही थीसिस साकार होती हुई दिख रही है। 1955 के हिंदू विवाह ़कानून और 1956 के हिंदू उत्तराधिकार ़कानून के दायरे में न केवल स्वयं को सनातनी, आर्यसमाजी, वैष्णव, शाक्त, शैव मानने वालों के साथ-साथ द्विज और शूद्र जातियां आती हैं, बल्कि इस दायरे में सभी अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भी आती हैं। केवल इतना ही नहीं यह दायरा बौद्धों, जैनों और सिखों को भी अपने आगोश में ले लेता है। इन ़गैर-हिंदू धर्मों (जिनकी पुण्य भूमि और पितृ भूमि भारत है) का पारिवारिक जीवन हिंदू ़कानून से ही संचालित होता है। यहां यह देखना दिलचस्प होगा कि डा. आम्बेडकर ने इस विषय पर क्या कहा था : ‘जब ़कानून मंत्री डा. अम्बेडकर ने पहली बार 1951 में हिंदू कोड बिल पेश किया तो सिखों के प्रवक्ता सरदार हुकुम सिंह ने उस विधेयक को ‘हिंदुओं द्वारा सिखों को भी अपने दायरे में समा लेने वाले संदिग्ध प्रयास के रूप में देखा’। इस पर डॉ. अम्बेडकर का जवाब था : ‘सिखों, बौद्धों और जैनों पर हिंदू कोड लागू करना एक ऐतिहासिक विकासक्रम का परिणाम है और इस पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से आपत्ति बहुत देर से की जा रही है। जब बुद्ध ने वैदिक ब्राह्मणों से असहमति व्यक्त की थी, तो उन्होंने ऐसा केवल धर्मसार (क्रीड) के संदर्भ में किया था। उन्होंने हिंदू-़कानूनी ढांचे को वैसा का वैसा ही रहने दिया था। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए अलग से ़कानून का प्रवर्तन नहीं किया था। महावीर और दसों सिख गुरुओं के मामले में भी ऐसा ही है। 1830 में प्रिवी काउंसिल ने भी फैसला दिया था कि सिख हिंदू ़कानून से ही शासित होंगे।’
यही कारण है कि अम्बेडकर के नव-बौद्ध अनुयायियों ने धर्म-परिवर्तन के बाद कभी हिंदू होने की ़कानूनसम्मत श्रेणी पर आपत्ति नहीं की। इसके पीछे की राजनीति भी समझने की आवश्यकता है। नव-बौद्धों को अस्सी के दशक तक अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त नहीं था, और न ही उन्हें आरक्षण के लाभ मिलते थे। सिख धर्म स्वीकार करने वाले पूर्व-अछूतों को पचास के दशक से ही आरक्षण के लाभ मिल रहे थे। यह एक ऐसा उदाहरण था जिससे बौद्ध बने अम्बेडकर के अनुयायियों को उम्मीद बंधी रहती थी कि आखिरकार उन्हें भी अनूसूचित जातियों में शामिल कर लिया जाएगा। देर से सही, पर हुआ ऐसा ही। नब्बे के दशक में संविधान संशोधन करके उन्हें अनुसूचित जाति मान कर आरक्षण देने का फैसला किया गया। ऐसा करते ही कानूनी रूप से उनका शुमार उन हिंदू जातियों में हो गया जिनके बारे में माना जाता है कि उन पर परम्परा ने अस्वच्छ पेशे थोप दिये थे। इस तरह नव-बौद्धों ने ़कानूनी दृष्टि से हिंदू होना स्वीकार करके धर्मांतरण के बावजूद हिंदू दायरे में अपना विनियोग होने दिया। 
यह जानना भी दिलचस्प है कि स्वयं अच्बेडकर ने इस्लाम और ईसाइयत अपनाने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए बौद्ध धर्म चुनने के बाद क्या कहा था? उनके जीवनीकार धनंजय कीर उनका यह कथन उद्धृत करते हैं : ‘मैं देश के लिए सबसे कम हानिकारक रास्ते का चुनाव करूँगा। बुद्ध धर्म अपना कर मैं देश का सबसे ज्यादा भला कर रहा हूँ, क्योंकि बुद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही हिस्सा है। मैंने ध्यान रखा है कि मेरे धर्मांतरण से इस धरती की संस्कृति और इतिहास को कोई नुकसान न पहुँचे।’ निश्चित रूप से आम्बेडकर के इस वक्तव्य का कम से कम एक मतलब तो यह निकाला ही जा सकता है कि इस्लाम और ईसाइयत के भारतीय धर्म न होने के सावरकर के सूत्रीकरण पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। 
कानूनी रूप से हिंदू दायरे में जैसे ही हिंदू परम्परा से विद्रोह करने वाले धार्मिक समुदाय आते हैं, वैसे ही हिंदू बहुमत की रचना-प्रक्रिया और पुष्ट हो जाती है। आज़ाद भारत में धर्म और कानून की अन्योन्यक्रिया का अध्ययन करने वाले एक विद्वान के अनुसार संविधान की भाषा और बाद में बने कानूनों की भाषा पर अगर ़गौर किया जाए तो भारत की सरकार ने हिंदू होने की परिभाषा वही स्वीकार की है जो सावरकर ने दी है। हिंदू वह है जो भारत में जन्मे धर्मों का अनुयायी है। इस तरह हिंदू होने की दो परिभाषाएं सामने आती हैं : एक वे जो धर्म से हिंदू हैं, और एक वे ़कानूनन हिंदू हैं। जिस हिंदू बहुमत का आग्रह संघ परिवार करता है, उसे बनाने में किस तरह भारत के उदारतावादी लोकतंत्र का हाथ है— इसे समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता ने इस प्रकार सूत्रबद्ध किया है : ‘ ...जिसे हम हिंदू ‘बहुमत’ कहते हैं वह दरअसल आज़ादी के बाद बने इन ़कानूनों की देन है। इनके बनने से पहले न केवल विवाह बल्कि उत्तराधिकार और अभिभावकत्व के मानक भारत में एक जगह के दूसरी जगह से और एक समुदाय के दूसरे समुदाय से अलग होते थे। कहीं उत्तराधिकार मिताक्षरा प्रणाली से तय होता था तो कहीं दयाभाग से, और इनमें से हर प्रणाली के पास विभिन्न विचार-सम्प्रदाय थे। न ही इस बात से इंकार किया जा सकता है कि कई मातृवंशीय समुदायों को भी इस नये बने एकसमान मानक को स्वीकार करना पड़ा। ... पचास के दशक के मध्य से पहले हिंदू अगर तरह-तरह के रीति-रिवाजों के साथ बिखरे हुए नहीं थे तो और क्या थे? आज जिस समुदाय को हम विशाल ‘बहुमत’ मानते हैं वह इन्हीं ़कानूनों की देन है और इनसे पहले उसका वजूद नहीं था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यह ‘बहुमत’ उदारतावादी लोकतंत्र की रचना है। संविधान की सतर्क निगाह के तहत बहुत से मिल कर एक हो गए हैं।’ अब नयी परिस्थितियों में सोचने की बात है कि समान नागरिक संहिता (जो निश्चित रूप से आधुनिकतावादी नज़रिये को अपनाते हुए सभी के लिए एक समान ़कानून पेश करने की कोशिश करेगी), भारत की सांस्कृतिक, मजहबी और धार्मिक विविधता पर किस तरह का विपरीत असर डाल सकती है।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।