इतिहास की धरोहर संजोए है ग्वालियर

ऐतिहासिक नगर ग्वालियर का कण-कण पुरातत्व संपदा से परिपूर्ण है। अपनी परंपराओं और धरोहर के लिये प्रसिद्ध यह नगर अपने गर्भ में शिल्प की अनूठी संपदा सहित संगीत का वह गौरवशाली इतिहास संजोये बैठा है जो शायद ही कहीं और हो जिसमें तानसेन का मकबरा जगप्रसिद्ध है। उनके संगीत का वह जुनून आज भी बुजुर्गों की वाणी में गूंजता है। वैसे तो वीरों से भरे इस नगर में कई कथाएं प्रचलित हैं। किसी एक का कथन योग्य मानना गलत होगा मगर वीरांगनाओं के जौहर की बात चले तो आज भी दिल थम-सा जाता है। आनबान के लिये ग्वालियर दुर्ग पर हुआ जौहर, आज भी नारी जाति के स्वाभिमान की जिंदा मिसाल है जब अग्नि की शरण में जा समाई थी राजा सारंग देव (मलयबर्मन) की समस्त रानियां। 
यह नौबत तब आई जब शमसुद्दीन इल्तुतमिश सुल्तान ने ग्वालियर दुर्ग पर दुबारा आक्र मण कर दिया। इससे पूर्व युद्ध में सुल्तान मलयबर्मन के हाथों बुरी तरह खदेड़ा जा चुका था। बेशर्म सुल्तान कुछ समय पश्चात् फिर आ धमका था। चूंकि राजा सारंग देव पूर्व के युद्ध में अपने अनेक सामंत वीरों को खो चुके थे, अत: उन्हें हार के आसार नज़र आ रहे थे। विवश हो वह रानी के पास गए। 
वहां उनकी निगाहों में आशंका भरे विचार पढ़ कर, उनकी प्रिय तोंवरि नामक प्रिय रानी सहित सभी रानियों का मुस्कुराहट भरा एक स्वर में आश्वासन था कि आप निश्चित होकर रणभूमि में युद्ध करें। रहा हमारा सवाल तो हम सभी आप के समक्ष ही अभी अग्नि की गोद में समा जाएंगी। अत: जौहर तैयार किया गया, चंदन की चिंता में अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। रानियां श्रृंगार के साथ सजधज कर राम नाम का स्मरण कर उस जौहर में विलीन हो गयी। जौहर ताल आज भी इस हृदय विदारक कांड का मूक साक्षी है।  पूर्व दिशा के गोपांचल पर्वत पर स्थित ग्वालियर का ऐतिहासिक दुर्ग पर्यटकों का खास आकर्षण का केन्द्र रहा है मगर आज भी इसकी निर्माण शिल्प कला, मूक पहेली बनी हुई है। दिलचस्प बात है कि इसी किले के कारण ग्वालियर वासी खुद को भूकम्प के खतरों से मुक्त मानते हैं। हां, एक दो बार भूकम्प के हल्के झटके महसूस किये गये हैं जो न के बराबर थे। 
सुन्दरता और पुरातत्व की पारखी शिल्प दक्षता, वाले दुर्ग किले में ग्वालियर के अधिकांश राजा महाराजा कला प्रेमी थे। वहीं यहां के आस-पास की खदानों में इस निर्माण में सहायक बलुआ पत्थर भी यहां प्रचुर मात्र में उपलब्ध था। मन्दिरों से सुसज्जित नगर में पर्यटकों के लिये और भी बहुत कुछ है, जिनमें से कुछ खास पर्यटन स्थल हैं-ख्वाजा खानून का मकबरा, सागर ताल, एक पत्थर की बाबरी, मो-गोस का मकबरा, सूर्य मन्दिर, सावरकर सरोवर, महाराज बाड़ा आदि।
एक और रोचक प्रसंग, इस नगर का नाम ग्वालियर कैसे पड़ा? सुनते हैं कि दुर्ग किले पर एक जलकुंड है। वहां एक ग्वाला नाम के पीर बाबा रहते थे। एक बार की बात है, एक राहगीर राजा, जिसे कुष्ठ था, संयोग से उस पीर बाबा से मिले। उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। सुन कर उन पीर बाबा ने उस राजा को उस मान सरोवर में स्नान करने भेजा। ज्यों ही राजा ने उस जल कुंड में स्नान किया, उसका कुष्ठ चमत्कारी रूप से ठीक हो गया। इस बात को इतनी प्रसिद्धि मिली कि ग्वाला-ग्वाला कहते कहते इस नगर का नाम ही ग्वालियर पड़ गया।
ग्वालियर जैसा समृद्ध नगर शिक्षा की दृष्टि से भी अग्रणी रहा है जहां डेढ़ सदी पूर्व ही प्राथमिक माध्यमिक स्तर की आधुनिक शिक्षा प्रणाली शुरू हो गयी थी, जिसका साक्षी 1846 में बना लश्कर मदरसा विद्यालय है अर्थात् ग्वालियर महानगर में 154 वर्ष पूर्व ही हिंदी, मराठी, वेद तथा ज्योतिष जैसे कठिन विषयों पर विधिवत् अध्ययन शुरू हो गया था। अंग्रेजी की विधिवत् शिक्षा भी, इसके छठे वर्ष बाद 1852 में शुरू हो गयी थी। इसके बाद तो शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति आ गयी। कई अन्य विद्यालय खोले गए जो वाकई ग्वालियर के लिये गौरवशाली विषय है। इसके बावजूद ग्वालियर में अभी भी शिक्षा का अभाव है जैसे दिये तले अंधेरा।
आइये ग्वालियर के खाना खजाने पर भी नज़र डालें। देखें कि ग्वालियर महानगर अपने-पुरातत्व संपदा के साथ अपनी अतिथि संस्कार की पुरानी परंपराओं को तो नहीं भूला है। जी नहीं, जहां आधुनिकता के चलते वर्तमान में फास्ट फूड और पेय में कोल्ड ड्रिंक का चस्का लग चुका है, वहीं ग्वालियर का हर चौराहा आज भी, अतिथि देवो भव की परंपरा लिये-उसके स्वागत में सुबह की लस्सी या चाय से लेकर रात्रि भोजन के बाद का गुलाबी दूध लेकर पान की मिठास के साथ खड़ा है। वाकई नुक्कड़ों से लेकर यहां के होटलों में अपना ही एक मस्त स्वाद है। बस अपनी पसंद का व्यंजन ढूंढिये और ऑर्डर कीजिए। 

(उर्वशी)