खोया-खोया चांद के गीतकार शैलेन्द्र के अनसुने किस्से

शैलेन्द्र दिन में भारतीय रेलवे की माटुंगा, बॉम्बे (अब मुंबई) स्थित वर्कशॉप में वेल्डिंग एपरेंटिस के तौर पर काम करते थे और रात में अक्सर मुशायरों में अपनी क्रांतिकारी शायरी सुनाते थे, वामपंथी विचारधारा से संबंधित होने के कारण। ऐसे ही एक मुशायरे में वह अपनी नज़्म ‘जलता है पंजाब’ सुना रहे थे, दर्शकों में बॉलीवुड के सबसे बड़े शोमैन, जो प्रतिभा के ज़बरदस्त पारखी भी थे, राज कपूर भी बैठे हुए थे। शैलेंद्र की नज़्म सुनकर राज कपूर की आंखों में आंसू आ गये। मुशायरा समाप्त होने के बाद वह शैलेंद्र के पास गये और उनसे नज़्म खरीदने की पेशकश की ताकि उसे अपनी फिल्म ‘आग’ (1948) में इस्तेमाल कर सकें, जो उस समय निर्माणाधीन थी। शैलेंद्र का चूंकि संबंध वामपंथी इप्टा (इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) से था और वह केवल मनोरंजन प्रदान करने वाले मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा को पसंद नहीं करते थे, इसलिए उन्होंने राज कपूर के ऑफर को ठुकरा दिया। शैलेंद्र ने ही मशहूर नारा ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है’ दिया था।
बहरहाल, इस घटना के कुछ दिन बाद हुआ यह कि शैलेंद्र की पत्नी शकुंतला देवी गर्भवती हो गईं। शैलेंद्र को उनकी देखभाल व इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ी। कहीं से कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। आखिरकार हार थककर वह राज कपूर के दरवाज़े पर पहुंचे। राज कपूर ने उन्हें 500 रूपये उधार दे दिए। शैलेंद्र जब यह पैसा वापस लौटने के लिए गये तो राज कपूर ने वापस लेने से इंकार कर दिया और पैसे के बदले में उनसे दो गीत लिखने के लिए कहा। राज कपूर ज़रूरत पर काम आये थे, उनका एहसान था, इसलिए शैलेंद्र इस बार उन्हें मना न कर सके। उन्होंने फिल्म ‘बरसात’ (1949) के लिए दो गीत लिखे- ‘पतली कमर है’ और ‘बरसात में’। इस फिल्म का संगीत शंकर-जयकिशन दे रहे थे और फिल्म के दूसरे गीतकार हसरत जयपुरी थे। मुकेश गायक थे। इन सबसे भी शैलेंद्र का परिचय हुआ और इस तरह राज कपूर, शंकर-जयकिशन, मुकेश, हसरत जयपुरी व शैलेंद्र की अमर जोड़ी बनी, जिसने अनेक कालजयी गीत दिए, जो हमेशा संगीत प्रेमियों की ज़बान पर रहेंगे, जैसे ‘प्यार हुआ इ़करार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल’ (श्री 420, 1955)। फिल्म ‘आवारा’ (1951) के लिए शैलेंद्र ने ‘आवारा हूं’ गीत लिखा था, जो उस समय भारत के बाहर सबसे अधिक पसंद किया जाने वाला हिंदुस्तानी फिल्म गीत बना। फिल्म ‘काला बाज़ार’ का गीत ‘खोया खोया चांद’ भी आज तक सुना व गाया जाता है। 
उन दिनों संगीतकार ही निर्माताओं से कहा करते थे कि किस गीतकार से गीत लिखवाने हैं। शंकर-जयकिशन ने शैलेंद्र से वायदा किया था कि वह उनकी सिफारिश दूसरे निर्माताओं से भी करेंगे, लेकिन उन्होंने अपना वायदा पूरा नहीं किया। एक दिन शैलेंद्र ने उन्हें एक कागज़ भेजा, जिस पर लिखा था- ‘छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, कहीं तो मिलोगे, तो पूंछेंगे हाल’। शंकर-जयकिशन को अपनी गलती का एहसास हो गया, उन्होंने माफी मांगी और इन पंक्तियों को गीत के रूप में निर्माता राजेंद्र सिंह बेदी की फिल्म ‘रंगोली’ (1962) में इस्तेमाल किया, जबकि इस फिल्म के गीत पहले मजरूह सुल्तानपुरी को लिखने थे।  शंकरदास केसरीलाल के रूप में शैलेंद्र का जन्म रावलपिंडी, पंजाब (अब पाकिस्तान में) में 30 अगस्त 1923 को एक दलित (मोची जाति) परिवार में हुआ था। शैलेंद्र अपनी दलित पृष्ठभूमि से जीवनभर संघर्ष करते रहे, उसे छुपाने का प्रयास करते रहे, लेकिन उनके बेटे ने सार्वजनिक तौर पर इस तथ्य को उजागर किया। उनके पूर्वज मूलत: बिहार के ज़िला आरा में बख्तियारपुर गांव के रहने वाले थे। उनके पिता रोज़गार की तलाश में पंजाब गये और सैन्य अस्पताल में काम करने लगे। बाद में उनका परिवार मथुरा आकर रहने लगा, जहां शैलेंद्र की मुलाकात इंद्र बहादुर खरे से हुई। शैलेंद्र और खरे मथुरा स्टेशन के निकट रेलवे 27 क्वार्टर्स और रेलवे लाइन के बीच एक तालाब के किनारे बैठकर शायरी करते। डेढ़ दशक से अधिक मथुरा में रहने के बाद शैलेंद्र बॉम्बे जाकर रेलवे में नौकरी करने लगे और इप्टा में सक्रिय हो गये। शैलेंद्र ने तो मथुरा को छोड़ दिया, लेकिन मथुरा उन्हें नहीं भूला और 9 जून 2016 को धौली प्याऊ मोहल्ले की एक सड़क का नाम ‘गीतकार-जनकवि शैलेंद्र मार्ग, मथुरा’ रखा गया। 
शैलेंद्र और शकुंतला के पांच बच्चे हुए- शैली शैलेंद्र (जो गीतकार थे), मनोज शैलेंद्र, अमला (मजुमदार), गोपा (चन्द्रा) और दिनेश शैलेंद्र। शैलेंद्र ने हिंदी व भोजपुरी में लगभग 900 गीत लिखे, जिनमें से तीन के लिए उन्हें फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ गीतकार अवार्ड मिला- ‘ये मेरा दीवानापन है’ (यहूदी, 1958), ‘सब कुछ सीखा हमने’ (अनाड़ी, 1959) और ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ’ (ब्रह्मचारी, 1968)। कलकत्ता में 1965 में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिसमें उस समय तक रिलीज़ हुई सभी भोजपुरी व मगधी फिल्मों में से सर्वश्रेष्ठ को सम्मानित किया गया था, इसमें शैलेंद्र को ‘गंगा मैय्या’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला था। शैलेंद्र ने अपने जीवन में एक फिल्म ‘तीसरी कसम’ (1966) का निर्माण किया था और यही फिल्म उनकी जल्द मौत का कारण भी बनी, हालांकि फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप हो गई। 
शैलेंद्र ने इस फिल्म में अपनी सारी जमा पूंजी निवेश कर दी थी। फिल्म के मुख्य कलाकारों राज कपूर व वहीदा रहमान ने अपनी फीस भी नहीं ली थी। फिर भी नुकसान इतना अधिक था कि शैलेंद्र तनाव में आ गये, उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, विशेषकर इसलिए भी कि उन्होंने खुद को शराब में डुबो दिया था और आ़िखरकार 14 दिसम्बर 1966 को मात्र 43 वर्ष की आयु में, बकौल गुलज़ार हिंदी फिल्मों के सर्वश्रेष्ठ गीतकार का मुंबई में निधन हो गया।

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