दिलीप कुमार से अधिक फीस लेने वाली - सुरैया

बॉलीवुड में एक दौर ऐसा भी था, जब हीरोइन अपने गाने स्वयं गाया करती थीं। सिंगर-एक्टर की दोहरी भूमिका निभाने वाली अंतिम प्रमुख कलाकार सुरैया थीं। उन्होंने अपना फिल्मी करियर एक बाल कलाकार के रूप में शुरू किया और 1950 तक वह अपने करियर के चरम पर पहुंच गई थीं। सुरैया की दिल को स्पर्श करने वाली आवाज़ आज भी संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर देती है। वह अपने समय में ही लीजेंड बनीं और सबसे अधिक पैसा लेने वाली कलाकार भी। आज तो हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक अभिनेत्रियां हीरो के बराबर फीस लेने के लिए संघर्ष कर रही हैं, लेकिन सुरैया एक ऐसी एक्टर रहीं जिन पर इस संदर्भ में एक पूरा अध्याय लिखा जा सकता है। वह दिलीप कुमार, अशोक कुमार, देवानंद व राज कपूर आदि से भी अधिक फीस एक फिल्म करने की लेती थीं। उनको यह विशिष्ट सम्मान मिला कि अपने ज़माने के विख्यात गायक व सुपरस्टार के.एल. सहगल के साथ उन्होंने लगातार तीन फिल्में कीं- ‘तदबीर’, ‘उमर खय्याम’ और ‘परवाना’। 
कहा जाता है कि सुरैया को हीरोइन के तौर पर फिल्म ‘तदबीर’ (1945) में ब्रेक के.एल. सहगल की सिफारिश पर मिला, जो रिहर्सल के दौरान उनकी आवाज़ से प्रभावित हो गये थे। सुरैया जमाल शेख, जो केवल सुरैया के नाम से विख्यात हुईं, का जन्म लाहौर में 15 जून 1929 को हुआ था। बचपन में ही वह अपने मामू ज़हूर भाटी के पास मुंबई में रहने के लिए आ गईं, जो उस समय कारदार फिल्म्स के लिए काम कर रहे थे। वह बाल कलाकार के रूप में आल इंडिया रेडियो के बाल कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगीं। उनका पहला फिल्मी रोल ‘ताजमहल’ (1941) में बाल कलाकार के रूप में था, लेकिन उन दिनों के उभरते संगीत निर्देशक नौशाद ने सुरैया की गायन प्रतिभा को खोजा और उन्हें उन दिनों की चर्चित हीरोइन महताब के लिए फिल्म ‘शारदा’ में इस विख्यात गाने ‘पंछी जा, पीछे रहा है बचपन मेरा’ का प्लेबैक कराया। सुरैया उस समय मात्र 12 साल की थीं और माइक तक पहुंचने के लिए उन्हें स्टूल पर खड़ा होना पड़ा था। 
जब वह 15 वर्ष की हुईं तो बॉम्बे टॉकीज की ‘हमारी बात’ (1943) में अपने प्रदर्शन से सबको प्रभावित कर चुकी थीं। चालीस के दशक के मध्य में जो दो चेहरे फिल्म संसार पर अपने संगीत से छाये हुए थे, वह सुरैया और नूरजहां थीं। सुरैया का नंबर नूरजहां के बाद आता था और दोनों एक साथ महबूब खान की कालजयी म्यूजिकल ‘अनमोल घड़ी’ में साथ दिखायी दीं। हालांकि सुरैया की सहायक भूमिका थी, फिर भी वह ‘सोचा था क्या, क्या हो गया’ और ‘मन लेता है अंगड़ाई’ जैसे सदाबहार गीतों से अपनी छाप छोड़ने में सफल रहीं। देश विभाजन के समय नूरजहां व खुर्शीद पाकिस्तान चली गईं। सुरैया एकमात्र सिंगिंग स्टार थीं, जो भारत में रहीं। संभवत: इसी कारण से 1947 व 1950 के बीच सुरैया की शुहरत आसमान छूने लगी। हालांकि उस समय तक प्लेबैक सिस्टम फिल्मों में आ चुका था, लेकिन सुरैया अपनी अलग व्यक्तिगत शैली, मीठी आवाज़ और सीधे सरल डिक्शन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने में सफल रहीं और उनकी ख्याति निरंतर बढ़ती रही। सुरैया ने एक के बाद एक जबरदस्त बॉक्स-ऑफिस हिट्स दीं, जैसे ‘प्यार की जीत’ (1948), ‘बड़ी बहन’ (1949) और ‘दिल्लगी’ (1949)। इनमें से पहली दो फिल्मों का संगीत हुस्नलाल भगतराम ने दिया था और ‘दिल्लगी’ का उनके मेंटर नौशाद ने।  ़गालिब की डोमनी प्रेमिका के रूप में उनकी अदाकारी और ़गज़ल गायकी इतनी अधिक प्रभावी थी कि पंडित जवाहरलाल नेहरु तक ने सुरैया की प्रशंसा की। ‘मिज़र्ा ़गालिब’ पहली फीचर फिल्म थी, जिसे राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। बहरहाल, जब इसके बाद की फिल्में सफल न हुईं तो सुरैया ने शीर्ष पर रहते हुए ‘रुस्तम सोहराब’ (1963) के लिए अपना अंतिम गीत ‘ये कैसी अजब दास्तान हो गई है’ गाया और फिल्मी संसार को अलविदा कह दिया।
सुरैया की कहानी देवानंद से उनके रोमांस का ज़िक्र किये बिना पूरी हो ही नहीं सकती। उन्होंने देवानंद के साथ सात फिल्में कीं, जो ज्यादा सफल तो न हो सकीं, लेकिन इनमें से ही एक फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव डूब गई और देवानंद ने सुरैया को वास्तव में डूबने से बचाया। इस घटना से दोनों का रोमांस शुरू हो गया। दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन सुरैया की दादी इस रिश्ते के खिलाफ थीं, सो मजबूरन सुरैया ने देवानंद के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। देवानंद ने कल्पना कार्तिक से शादी कर ली और सुरैया ने अविवाहित रहने का फैसला किया और अकेले रहते हुए ही 31 जनवरी 2004 को उनका मुंबई में अपने निवास पर निधन हो गया।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर