विवादों में घिरी दिल्ली सरकार की विज्ञापन नीति

दिल्ली तथा पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के नेताओं का विवादों से विशेष नाता है। प्रतिदिन इनके द्वारा नये से नये विवाद पैदा किये जाते हैं या नये से नये विवादों में ये स्वयं घिर जाते हैं। अब केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार की विज्ञापनों संबंधी नीति सर्वोच्च न्यायालय की जांच के अधीन आ गई है और इसके संबंध में राजनीतिक गलियारों में खूब चर्चा हो रही है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ गत दिवस रैपिड रोल ट्रांज़िट सिस्टम (आर.आर.टी.एस.) कारिडोर से संबंधित एक केस की सुनवाई कर रही थी। इस प्रोजैक्ट के अधीन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से विशेष रेल कारिडोर के माध्यम से रेलगाड़ियां 180 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से दिल्ली तथा पड़ोसी राज्यों के बीच चलेंगी और इससे पड़ोसी राज्यों तथा दिल्ली के मध्य यातायात बहुत तेज़ एवं आसान हो जाएगा। 
इसके दिल्ली-़गाज़ियाबाद-मेरठ वाले भाग की कुल लागत 30,274 करोड़ रुपये है और इसमें से दिल्ली की सरकार ने 1,180 करोड़ रुपये अदा करने थे, परन्तु इसमें से सरकार ने सिर्फ अभी तक 415 करोड़ रुपये ही अदा किये हैं जबकि इस प्रोजैक्ट के दिल्ली-गुरुग्राम-अलवर तथा दिल्ली-पानीपत वाले भागों के लिए दिल्ली सरकार ने अपने हिस्से का अभी तक कोई पैसा जारी नहीं किया। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को यह बताया गया था कि दिल्ली सरकार उक्त प्रोजैक्ट के लिए अपने हिस्से की राशि अदा नहीं कर रही। इस पर कड़ी नाराज़गी व्यक्त करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को यह आदेश दिया कि विगत तीन वर्षों में उसके द्वारा विज्ञापनों पर जितने पैसे खर्च किये गये हैं, उसका पूरा विवरण दो सप्ताह के भीतर सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकार से इस बात पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि दिल्ली सरकार द्वारा विज्ञापनों पर तो भारी मात्रा में खर्च किया जा रहा है, परन्तु विकास कार्यों के लिए पैसे उपलब्ध नहीं किये जा रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि क्या दिल्ली सरकार यह चाहती है कि हम आदेश जारी करें कि दिल्ली सरकार अपना सारा विज्ञापन वाला बजट इस उपरोक्त प्रोजैक्ट के लिए उपलब्ध करे। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने और कहा कि विकास कार्यों से भी सरकार की विज्ञापनबाज़ी ही होती है, लोगों में यह बात जाती है कि सरकार उनके लिए कार्य कर रही है।
यह पहली बार नहीं है कि दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली में तथा दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों के समाचार पत्रों तथा इलैक्ट्रानिक मीडिया में अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दिये जाते रहे विज्ञापन विवादों का कारण बने हैं। इस संबंध में भाजपा तथा कांग्रेस के नेता भी समय-समय पर आपत्ति व्यक्त करते रहे हैं। इस वर्ष के आरम्भ में दिल्ली के लैफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा अरविंद केजरीवाल को विज्ञापनों के संबंध में 95 करोड़ की वसूली का नोटिस भी भेजा गया था। उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने राजनीतिक किस्म के विज्ञापनों पर सरकारी पैसे का दुरुपयोग किया है। इस संबंध में आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय तक भी पहुंच की थी, परन्तु उच्च न्यायलय द्वारा इस संबंध में कोई स्टे नहीं दिया गया था। यह राशि जुर्माने सहित बढ़ कर अब 163.62 करोड़ हो गई है। 
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली सरकार की ओर से की जाने वाली विज्ञापनबाज़ी का नोटिस लिए जाने का भाजपा की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष वरिन्दर सचदेवा ने स्वागत किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि आर.टी.आई. के ज़रिये प्राप्त हुई जानकारी से पता चला है कि पिछले पांच वर्षों में दिल्ली सरकार ने विज्ञापनबाज़ी पर 1868 करोड़ रुपये खर्च किये हैं और इस प्रकार रोज़ाना की औसत 1 करोड़ 20 लाख रुपये बनती है।
इस बारे में कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के अलावा पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा बड़े स्तर पर पंजाब और पंजाब से बाहर के राज्यों के समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अरबों रुपये के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। पंजाब में तो स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने 30 करोड़ रुपये के विज्ञापन देने संबंधी स्वीकृति देने से भी इन्कार कर दिया था, क्योंकि उस समय तक मुहल्ला कलीनिकों पर तो खर्च सिर्फ 10 करोड़ का किया गया था परन्तु सरकार विज्ञापनबाज़ी पर 30 करोड़ रुपये खर्च करना चाहती थी। परन्तु दिल्ली की तरह पंजाब में आज भी सरकार द्वारा विज्ञापनबाज़ी पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। अब तो विपक्षी दलों द्वारा भी इस संबंधी गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि मीडिया के बड़े हिस्से को बड़े स्तर पर विज्ञापन देकर सरकार ने अपने साथ जोड़ लिया है और इसी कारण मीडिया लोगों के मुद्दे उठाने या विपक्षी दलों द्वारा सरकार की गलत नीतियों की की जाती आलोचना को अधिक स्थान नहीं देता। विपक्षी दलों द्वारा यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि जो समाचार पत्र और टी.वी. चैनल सरकार की नीतियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते हैं, उनकी विज्ञापनबंदी करके सरकार उनको आर्थिक तौर पर नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही है। ये भी आरोप लगते हैं कि पंजाब सरकार द्वारा अलग-अलग मीडिया कार्यालयों को सरकार विरोधी नेताओं की कवरेज न करने या उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों को कवरेज न देने की हिदायतें भी दी जाती हैं।
नि:संदेह जिस प्रकार दिल्ली सरकार की विज्ञापनबाज़ी संबंधी नीति सुप्रीम कोर्ट की जांच के अन्तर्गत आ गई है, उसी प्रकार आने वाले समय में पंजाब सरकार की विज्ञापनबाज़ी संबंधी नीति भी अदालतों की जांच के अधीन आ सकती है। कोई न कोई पक्ष इसको लाज़िमी तौर पर अदालतों में चुनौती देगा, क्योंकि बहुत से आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं द्वारा पहले ही इस संबंधी राज्य के आर.टी.आई. कमिशन के पास शिकायतें की जा रही हैं और सरकार से भी जानकारियां मांगी जा रहीं हैं। इसलिए यह अच्छा होगा कि पंजाब सरकार पहले ही दिवालिया होने की तरफ बढ़ रहे पंजाब के वित्तीय स्रोतों का सोच-समझ कर उपयोग करे और विज्ञापनबाज़ी पर अंधाधुंध किये जा रहे खर्च पर लगाम लगाये, अन्यथा इस संबंधी दिल्ली की तरह पंजाब सरकार की जवाबदेही को भी टाला नहीं जा सकेगा और सरकार की किरकिरी ज्यादा होगी।