लोकतंत्र के लिए घातक है दल-बदल 

देश की राजनीति में जिस गति से दल-बदलूवाद बढ़ रहा है, उससे ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में यह लोकतंत्र को पंगु कर देगा। वैसे भी हमारा लोकतंत्र नोटतंत्र, भीड़तंत्र, डंडातंत्र बन गया है और विडम्बना यह भी कि लोकतंत्र में लोक तो मौन हो गए, पर तंत्र हावी हो गया। इसी प्रकार हमारे देश के ऐसे बहुत से कानून हैं जो जनहित, देशहित, स्वस्थ राजनीति के लिए बनाए गए, परन्तु वे कानून भी पंगु कर दिए गए। जनहित में बनाए कानून कुछ लोगों के विशेषकर सत्ता के शिखरों पर बैठे धन सम्पन्न, शक्ति सम्पन्न वर्ग के सशक्त कवच बन गए हैं। जिस प्रकार महिलाओं के हित में बनाए बहुत-से कानूनों का आज महिलाओं के द्वारा ही दुरुपयोग हो रहा है। परिणामस्वरूप कुछ दिन पहले ही पंजाब में एक सास ने बहुओं की कथित पिटाई से दुखी होकर आत्महत्या कर गई। कितने पुरुष भी हैं जो पारिवारिक हिंसा, पत्नी या ससुराल पक्ष की मानसिक यातना के कारण आत्महत्या कर लेते हैं। 
अनेक लोग यह समझते थे कि दल-बदल विरोधी कानून बनने से लोकतंत्र स्वस्थ होगा, ‘आया राम गया राम’ संस्कृति पर नकेल कसी जाएगी और जनता के वोट लेकर विधायक, सांसद बनने वाले व्यक्ति पार्टी और जनता के प्रति वफादार रहेंगे। अगर किसी भी कारण इनका पार्टी से मतभेद हो जाता है या वैचारिक समानता नहीं हो पाती तो यह दल बदलने से पहले उस पद का त्याग कर देंगे जिस पद पर यह पार्टी विशेष के कार्यकर्ताओं और जनता द्वारा पहुंचाए गए हैं। बात उल्टी हो गई, जिस प्रकार भीड़ कोई अपराध कर ले तो भीड़तंत्र संस्कृति उन्हें बचा लेती है। वैसे ही अगर बड़ी संख्या में विधायक, सांसद दल बदलते हैं तो उसे अपराध ही नहीं माना जाता। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्थानीय स्वशासन के चुनाव लड़ने और जीतने वालों पर दल बदल विरोधी कानून लागू ही नहीं होता। इस कारण गांवों और नगरों की राजनीति भी कुछ स्वार्थी लोगों के हाथ में जा रही है। अभी दो दिन पूर्व ही थोक में दल बदल पंजाब के मोगा में हुआ। मेयर बदल गया। अमृतसर में भी ऐसा हो चुका है और चंडीगढ़ में तो एक पार्षद के दल बदलने से विजयी पार्टी के हाथों से निगम की सत्ता निकल गई।
आज का पूरे देश का ज्वलंत विषय है महाराष्ट्र में शरद पवार परिवार पर दल बदल की चोट। वैसे शरद पवार परिवार भी परिवारवाद का शिकार पूरी तरह से हो गया है और जब पुत्री और भतीजे में से किसी एक को सत्ता सौंपने का अवसर आया तो पवार बेटी के साथ खड़े हो गए। वैसे भी कहते हैं कि खून पानी के मुकाबले ज्यादा गाढ़ा होता है । वैसे तो अपनी संतान और भाई की संतान में कोई अंतर नहीं, परन्तु धन सम्पदा और सत्ता का हस्तांतरण करते समय अंतर आ ही जाता है। देश के अधिकतर राजनेताओं ने अपने पुत्रों को अपना राजसी उत्तराधिकारी बनाया है। बेटियों की बारी तब आती है जब बेटा योग्य न हो या बेटा प्राप्त न हुआ हो। जुलाई के प्रथम रविवार ने 1978 की जुलाई पूरी तरह याद करवा दी। 45 वर्ष पूर्व जुलाई माह में ही स्वयं शरद पवार ने अपने मुख्यमंत्री दादा बसंत राव पाटिल को कथित तौर पर धोखा दिया। वैसे ‘राजनीतिक धोखा’ शब्द चलता नहीं, सत्ता प्राप्ति का वैध तरीका माना जाता है। चालीस विधायकों को लेकर मुख्यमंत्री से अलग होकर और फिर नई पार्टी बनाकर स्वयं मुख्यमंत्री बन गए। इसी प्रकार अब अजित पवार लगभग चालीस सदस्य लेकर ही चाचा से अलग हो गए और शिंदे सरकार में उप-मुख्यमंत्री बन गए। सौदेबाजी तो पहले हो जाती है, परन्तु परिणाम बाद में सामने आते हैं। प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल भी उनके साथ ही गए। वैसे जनता को यह याद करना पड़ता है कि छगन भुजबल ने कब-कब और कितनी पार्टियां बदली हैं। 
सवाल केवल यह नहीं कि अजित पवार ने क्या किया, प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में दल बदल विरोधी कानून कहां चला जाता है। अधिक संख्या में संभवत: शायद दो तिहाई सदस्य एक साथ दल बदल कर लें तो कानून की कमर पहले ही टूट जाती है। आखिर ऐसा क्यों, जो व्यक्ति एक पार्टी का झंडा उठाकर उनके कार्यकर्ताओं से फूल माला स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं, जीत जाते हैं, उसे क्या अधिकार है कि उस पार्टी के कार्यकर्ताओं, अपने प्रशंसकों और अपने समर्थकों को धोखा दे। सच तो यह है कि यह दल बदलू विरोधी कानून देश की हर राजनीतिक पार्टी को सुविधाजनक लगता है। 
अगर ऐसा ही दल बदल देश में चलता रहा तो जनता सीधे-सीधे यह पूछेगी, आज भी पूछ रही है कि इन नेताओं पर विश्वास आखिर क्यों किया जाए? शिखर पर बैठे सत्तापतियों को चाहिए कि वे अपनी सभी गुप्तचर सेवाओं का प्रयोग करके यह जानकारी लें कि देश की जनता ऐसे दल बदल के कितना विरुद्ध है और उसी आधार पर दल बदल को रोकने के लिए नया कानून बनाएं।