ताण्डव की धुन पर नाचते सावनी गीत

अब कोई नहीं गाता ‘रिमझिम के तराने ले के, आयी बरसात, याद आई किसी से वह पहली मुलाकात!’ कौन-सी रिमझिम भैय्या, यहां आसमान में बादल घुमड़ते नहीं, फटते हैं। यहां बाढ़ नदियों में नहीं सड़कों पर आती है। कभी सुनते थे, एक दिन वह आयेगा जब कश्तियां सड़कों पर चलेंगी और आदमी दरख्तों पर बसेरा बसा लेंगे।
वह दिन आ गये क्या? सड़कें हरहराती बरसात के समुद्र में डूबी हैं घर आंगन छप्पड़ वहीं जोहड़ों में तबदील हो गये हैं, और लोग वृक्षों पर टंगे हैं। राहत बांटने वाले महापुरुषों की नौका के गुज़रने के साथ उसका जयघोष करने के लिए क्या? बाबू, एक मोमबत्ती की कृपा हो जाये, ये इलाके कभी रौशनियों से जगमगाते थे, हम तो भूल ही गये हैं।
ऐसी बारिश ताण्डव नृत्य की सहोदर लगती है। मोरे कारवां बाढ़ में डूबती उतराती जनता की सुध लेने निकले हैं। हातिमताई रात को भेस बदल अपनी रियाया की सुध लेने के लिए निकला करता था न। हातिमताई की कहानी याद करने की ज़रूरत ही क्या है? अब तो भेस बदलने की ज़रूरत नहीं। फटी जीन और फैशनेबल टाप को धिक्कार भेस तो हमने तभी बदल लिया था, जब संकट में फंसे इन इन्सानों की सुध लेने की कसम खायी थी। अब घुटनों से ऊंचा पायजामा है। बदन पर पहने कुर्ते पर मटमैले आंसुओं के दाग हैं, क्योंकि उनके घरों के पास से गुज़रते हुए दरिया बनी सड़क पर चलती नौका में बहुत से ज़िन्दाबाद घुस आये थे। हमारी नौका पलटने लगी। तब कुर्ते का हुलिया कुछ ऐसे बिगड़ा जैसे आंसुओं के धोबी घाट की पटखन झेल आया है। वह कहते हैं, जैसा आपका दु:ख वैसे मेरा दु:ख। नेता का गला बरसात की बाढ़ में घिरे बेआसरा हो गये लोगों को देख कर भर आया है। यह गला अभी भरा है, वीडियो समाचार प्रसारित हो जाने के साथ साफ हो जायेगा। साफ नहीं होगा तो मंज़िल-मंज़िल पानी चढ़ आये उन लोगों का गला बनेगा जो पानी उतर जाने के बाद भी बीसियों बीमारियों को अपने गले से लगायेगा। दवा की मंडियां खुश हैं। बाढ़ से बिछुड़ जाने के बाद इन लावारिस लोगों को ऐसी-ऐसी बीमारियां लगेंगी,  जिनकी दवा तलाशे भी नहीं मिलेगी। काले बाज़ार की पर्दादारी उन्हें बीस के भाव बेचेगी।
अरे, तुमने बीस तो कम कह दिया, जिस इलाके में बारिश के चार छींटे पड़ जाने से आपूर्ति गड़बड़ा जाने, फसल नष्ट हो जाने की घोषणा हो जाती है, वहां तो धूप निकलते-निकलते बारिश सैलाब बन कर उभरती है। किसान की महीनों की मेहनत उसमें डूब-उतरा सफाचट हो जाती है। वे कहते हैं, ‘पनीरी तो फिर लग जायेगी, अभी तो अपनी जान बचाओ।’ लेकिन जान भी तो इस पनीरी के फसल बन कर उनके घर तक पहुंचने से ही बचती है। कितनी बार हो गया, न पनीरी फसल बनती है, न उनके घर तक पहुंचती है। बीच खेत महाजनों के हरकारे उसे कौड़ियों के दाम खरीद कर ले गये। जो बेचारी बच कर मंडी तक चली आयी, उसके घोषित दाम के बीच अटक गया, बीच का दलाल, कंजी आंखों वाला खरीद अफसर या वह गोदाम बाबू, जिसके गोदाम के दरवाज़े कभी उनकी फसलों के लिए खुलते नहीं।
अब बीच बाज़ार फसल पड़ी है। उस पर धारासार मेघ बरसता है। ‘बाबू इसे इनके हवाले करके गांव वापसी का मेहनताना ही ले जा सको तो गनीमत।’ दिन-रात काम करने की क्षमता रखने वाले हाथों को लगता है जैसे इस बारिश ने उन्हें काट कर उसके बदन से अलग कर दिया। अब कैसे निरुपाय होकर कह दें, ‘कि लाला मेरे हाथ नहीं हैं।’ यहां हाथ तो हैं, लेकिन उनमें उनकी खाली हथेलियों में मेहनत का दाम नहीं। उनके घर तो हैं, लेकिन उन पर हरहराते हुए जल ने धाकड़ किरायेदार की तरह कब्ज़ा जमा लिया है। और अब उनमें रह भी न पाएंगे। समय रहेगा, लेकिन छतों पर टंगे हुए लोग राहत के मुआवज़े के इंतज़ार में बीत जाएंगे।
उधर समाज के दावेदार बहस करते हैं। ऐसा क्यों हुआ? दोषारोपण का कीचड़ उछाला जा रहा है, अतीत वर्तमान से कहता है, ‘तुमने अपना फज़र् क्यों नहीं निभाया।’ वर्तमान अतीत की नकाब नोचता है, कि ‘तुमने अपने वक्त में यह अतिक्रमण क्यों होने दिये।’ पानी के बहाव के रास्ते क्यों रुके। नदी-नालों के तल पर जमते कचरे को क्यों साफ नहीं किया?
लेकिन यह समय इन सवालों के जवाब तलाश करने का नहीं। वैसे भी इस देश में या तो सवाल उठाये नहीं जाते, या उनके जवाब आपसी तू-तू मैं-मैं में गुम हो जाते हैं।
लीजिये, मौसम विभाग ने तो कहा था, बारिश का प्रहार खत्म हो गया, लेकिन उसका ताण्डवी नर्तव फिर शुरू हो गया। बारिश में भीगते हुए लोग आपस में जूतम पैज़ार कर रहे हैं, कि जीते जी लोगों को उनके सपनों को डुबोकर मार देने वाले इस सन्देश का ज़िम्मेदार कौन है?
घुप्प अंधेरे में इन ज़िम्मेदारों के चेहरे नज़र नहीं आते। केवल नज़र आती है, हातिमताई घोषणायें, अनुग्रह की विपुल राशि बांट देने का सन्देश। बेशक सन्देश जीवन दान देता है, उन सन्देश वाहकों को जो यह ़खबर लेकर आपका द्वार खटखटाये बिना गुज़र गये हैं। बताओ सूनी आंखें, खाली हाथ, भूखे पेट और उजड़े लोग, राहत के इकरारों का अपनी देहरी पर रुक जाने का इंतज़ार कब तक करें? ऐसे माहौल में कोई रिमझिम के सावन गीत गुनगुनाये तो कैसे? भूखे पेट पर तो संगीत की मधुर धुन की मरहम नहीं लगती।