मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव उपहारों की बारिश से क्या जीत पायेगी भाजपा ? 

चुनाव में सारा खेल जनता का किसी दल या उसके नेता के प्रति बनाई गई धारणा का रहता है। जबकि विधानसभा चुनाव के करीब 4 माह पहले मध्यप्रदेश की जनता ने खासकर भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने का पक्का मन बना लिया हो, ऐसा तो नज़र नहीं आ रहा। ये बात भाजपा के ही वे खांटी नेता-कार्यकर्ता कह रहे हैं, जो जनसंघ के समय इस खेल के महारथी रहे हैं। उन्हें हल्की सी रोशनी नरेंद्र सिंह तोमर के चुनाव संयोजक बनाने पर नज़र आ रही है, बशर्ते, वे पुराने कार्यकर्ता को उसी तरह से साध लें, जैसे अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में वे किया करते थे।
यह सही है कि भाजपा के बुजुर्ग, अनुभवी, कर्मठ, नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले नेता-कार्यकर्ताओं के बीच तोमर की आमद का सकारात्मक संदेश गया है। उनमें उम्मीद जगी है कि जिन पारंपरिक और सांगठनिक मजबूती से जनसंघ के समय से चुनाव लड़े जाते रहे हैं, नरेंद्र सिंह तोमर उन तौर-तरीकों को फिर से आजमायेंगे। यदि वैसा किया गया तो न केवल आम कार्यकर्ता का उत्साह लौट आयेगा, बल्कि जनता को फिर से भाजपा की तरफ आकर्षित किया जा सकेगा। यूं वे यह भी मानते हैं कि इस तरह के सांगठनिक कार्य चुनाव से करीब 6 महीने पहले प्रारंभ हो जाने चाहिये, लेकिन तोमर ने पुराना मान-सम्मान बहाल कर दिया और उन्हें काम पर लगा दिया तो ठाकरे-जोशी-प्यारेलाल पद्धति के चुनाव की  संरचना जीवंत हो उठेगी, जो अंतत: मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार एक बार फिर से बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
मध्य प्रदेश में अनेक चुनावों का संचालन कर चुके और ठाकरे काल में अनेक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाने वाले एक नेता ने कहा कि अभी भी यदि एक-एक पल और एक-एक कार्यकर्ता का समुचित और संपूर्ण उपयोग कर लिया गया तो वे नतीजे पलटने में सहायक हो सकते हैं। हालांकि वे यह चिंता भी जताते हैं कि प्रदेश में सरकार और संगठन में बैठे लोग यदि आत्ममुग्घता का रवैया बनाये रहे तो तोमर भी कुछ खास नहीं कर पायेंगे। संगठन कमजोर भी इसी वजह से हुआ है। इन पुराने नेताओं की प्रमुख चिंता तो यही है कि जनता ने अभी तक भाजपा के पक्ष में ऐसा मन ही नहीं बनाया कि उसे हर हाल में भाजपा को ही वोट देना है। जैसी स्थिति 1977 में जनता पार्टी के लिये, 1984 में कांग्रेस के लिये, 2014 और 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिये बनी थी।
मध्य प्रदेश भाजपा का प्रौड़ और बुजुर्ग तबका इस बात से कतई प्रभावित नहीं कि शिवराज सरकार जनता के अलग-अलग वर्ग के लिये ढेरों घोषणाएं करती जा रही है। लाडली बहना, संविदा कर्मचारियों को स्थायी वेतनमान के लाभ, कर्मचारियों को डीए की घोषणा, ज़िला पंचायत अध्यक्ष से लेकर पंच तक के वेतनमान में तीन गुना तक की वृद्धि आदि कदमों से वो असर नहीं होने वाला जो जीत की गारंटी मान लिया जाये। इसके लिये वैसा कुछ करना होगा, जैसा 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने किया था, जब उसने किसान के 2 लाख रुपये तक के कर्ज को माफ करने की घोषणा कर बाजी पलट दी और सत्ता में आ गई थी। इन पुराने नेताओं का मानना है कि हाल-फिलहाल की घोषणायें व्यापक प्रभाव नहीं छोड़ने वाली। ऐसे में नरेन्द्र सिंह तोमर के लिये यह देखना, जानना, सुनना ज़रूरी और दिलचस्प होगा कि कैसे और इतने कम समय में क्या किया जा सकता है।
इसके लिये सबसे पहले तो तोमर जी को ही पूरा ध्यान मध्य प्रदेश पर लगाना होगा। फिर पुराने कार्यकर्ताओं के जोश पर पड़ी धूल को हटाना होगा। उसके बाद जब वे काम पर लगेंगे तो उसकी गति क्या होगी और किस तरह वे जनमानस बनाने-बदलने में सफल हो पायेंगे? यह कठिन और बेहद परिश्रम साध्य साबित होगा। 
वैसे भाजपा संगठन की यह खूबी तो है कि उसका कार्यकर्ता यदि मैदान पकड़ लेता है तो दिन-रात का फर्क भुलाकर वह जी तोड़ मेहनत कर लेता है। कांग्रेस इस मामले में अभी सदियों पीछे है। बहरहाल, इस समय प्रदेश भाजपा का कार्यकर्ता नये-नये प्रभारियों, संगठन के नेताओं की हर दो-चार दिन की ़गैर ज़रूरी बैठकों और उसमें दिये जा रहे भाषणों से ऊब गया है। वह इसे समय की बर्बादी मान रहा है, लेकिन नेतागण बाज नहीं आ रहे। उसे मैदान की ओर भेजने का सिलसिला तो शुरू ही नहीं हो सका है। लगभग सभी ज़िला मुख्यालयों से खबरें आ रही हैं कि इन दिनों बूथ स्तर की भी बैठकें हो रही हैं, उनमें उन तपे-तपाये नेताओं को तो बुलाया तक नहीं जा रहा, जो जीत का गणित जानते हैं और जिताने की गारंटी माने जाते हैं।
इस बड़े गड्ढे को तेजी से भरना तोमर जी के लिये बड़ी जिम्मेदारी होगी। वे गुटबाजी से ऊपर उठकर काम करने के लिये जाने जाते हैं। फिर भी पूरे प्रदेश का प्रवास कर रूठों को मनाने, काम पर लगाने जितना समय तो उनके पास भी नहीं है। संभव है कि इसके लिये वे भोपाल में एक बड़ी बैठक आहूत करें और संभागीय मुख्यालयों पर जाकर वहां चर्चा करें।
कुल मिलाकर नरेंद्र सिंह तोमर के सामने मुद्दा केवल यह नहीं है कि वे कार्यकर्ताओं को सक्रिय करें, बल्कि यह भी रहेगा कि पूरे प्रदेश से सबसे पहले उन्हें जो आत्म सम्मान आहत होने की शिकायतों का अंबार मिलेगा, उसकी छंटनी वे कैसे और कब कर पायेंगे? 
दूसरा, इस मंथन से जो विचार-सुझाव निकलकर आयेंगे, उन्हें वे प्रदेश और राष्ट्रीय नेतृत्व तक पहुंचाकर उनसे सहमत कैसे करवा भी पायेंगे? यदि इस दरम्यान अहम का टकराव हुआ और प्रदेश या देश के स्तर पर उनके आंकलन की बजाय ऊपर से मिले दिशा-निर्देशों के पालन का ही दबाव रहा तो कितने परिणाम दे पायेंगे?
यूं अभी तक तो नरेंद्र सिंह तोमर के खाते में एक भी पराजय नहीं है, तो वे भी चाहेंगे कि इस बार भी वे अनुकूल परिणामों के साथ बरकरार रहें, किंतु इस बार केवल उनके इतना सोचने भर से होने वाला नहीं है। यदि तोमर जी अपने हिसाब से चुनाव संरचना से लेकर किस व्यक्ति का कहां, कैसे उपयोग किया जाये जैसे मुद्दे तय नहीं कर पाये तो उनके खाते से भी सफलता फिसल सकती है। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर