महाराष्ट्र में फिर कुछ नया होने की सम्भावना

महाराष्ट्र की राजनीति में बेहद दिलचस्प नजारे देखने को मिल रहे हैं। विभिन्न दलों के बीच अंदरखाते कुछ न कुछ तो पक रहा है लेकिन क्या पक रहा है, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। शिव सेना के टूटने के बाद शरद पवार की एन.सी.पी. क्यों टूटी, इसका भी किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि यह टूट सचमुच की है या दिखावा है। एन.सी.पी. में टूट के बाद एक हफ्ते के भीतर अजित पवार तीन बार क्यों शरद पवार से मिले, यह भी कोई नहीं जानता। इस बीच 18 जुलाई को दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ प्रफुल्ल पटेल और अजित पवार की मुलाकात हुई। चारों नेता एक साथ मिले और इस मुलाकात के बाद अजित पवार महाराष्ट्र लौटे तो उनकी पहली मुलाकात उद्धव ठाकरे से हुई। क्या यह संयोग है कि अजित पवार महा विकास अघाड़ी के दोनों घटक दलों के नेताओं से मिल रहे हैं? पहले वह शरद पवार की बीमार पत्नी को देखने घर गए थे। उसके बाद लगातार दो दिन वाईवी चव्हाण सेंटर में शरद पवार से मिले। फिर दिल्ली से लौटने के बाद विधानसभा भवन में उद्धव ठाकरे से मिले। दोनों पार्टियों ने इसे शिष्टाचार मुलाकात बताया, लेकिन यह संयोग नहीं था। ये मुलाकातें बता रही हैं कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ और भी नया देखने को मिल सकता है।
बंगाल में भाजपा की लोकप्रियता कम हुई
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिन राज्यों में छप्पर फाड़ जीत मिली थी, उनमें एक राज्य पश्चिम बंगाल है, लेकिन उसके बाद से ही भाजपा वहां ढलान पर है। उसके बाद जितने चुनाव हुए हैं, हर चुनाव में भाजपा का वोट कम हुआ है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को 40.6 फीसदी वोट मिले थे। उसके बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट दो फीसदी कम होकर 38 फीसदी पर आ गया था। यहां तक फिर भी ठीक था, लेकिन उसके बाद जितने उप-चुनाव हुए और जितने स्थानीय निकायों के चुनाव हुए, उनमें भाजपा को बहुत नुकसान हुआ। हाल का पंचायत चुनाव मिसाल है, जिसमें भाजपा को सिर्फ  22 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस और लेफ्ट का साझा वोट 20 फीसदी पहुंच गया जो विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी था। ममता की पार्टी को विधानसभा के 48 फीसदी के मुकाबले 51 फीसदी वोट मिले। जाहिरा तौर पर कांग्रेस और लेफ्ट को आठ फीसदी और तृणमूल कांग्रेस को तीन फीसदी वोट का जो फायदा हुआ, वह भाजपा का नुकसान था। इससे पहले भवानीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा का वोट 35 से घट कर 22 फीसदी हो गया और सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव में उसका वोट 24 से घट कर 14 फीसदी रह गया। आसनसोल की अपनी जीती हुई सीट पर वह बुरी तरह से हारी। अगले लोकसभा चुनाव से पहले वोट का यह रुझान भाजपा के लिए चिंता की बात है।
एक ही पार्टी का एक गुट इधर, दूसरा उधर
पिछले सप्ताह दिल्ली और बेंगलुरु में हुई दो गठबंधनों की बैठकों में कुल 64 राजनीतिक पार्टियां शामिल हुईं। दोनों ही बैठकों में दिलचस्प बातें देखने को मिलीं। कई ऐसी पार्टियां जो पहले भाजपा के साथ रही थीं, वे कांग्रेस के गठबंधन में दिखीं और कांग्रेस की सहयोगी रही पार्टियां भाजपा के गठबंधन की बैठक में शामिल हुईं। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह रही कि कई पार्टियों में पिछले कुछ समय से विभाजन हुआ है और उनका एक धड़ा एक तरफ  था तो दूसरा धड़ा दूसरी तरफ । ऐसा भी हुआ कि दोनों धड़े एक ही बैठक में मौजूद रहे और यह भी हुआ कि दूसरे गुट को किसी ने नहीं पूछा। जैसे अन्ना डी.एम.के. से ई. पलानीस्वामी एनडीए की बैठक में शामिल हुए और ओ. पनीरसेल्वम को किसी ने नहीं पूछा। लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों खेमे यानी चिराग पासवान और पशुपति पारस का खेमा एक साथ एनडीए की बैठक में शामिल हुए। शिव सेना के एक खेमे के नेता एकनाथ शिंदे एनडीए की बैठक में शामिल हुए तो उद्धव ठाकरे ‘इंडिया’ की बैठक में गए। एन.सी.पी. के शरद पवार इंडिया की बैठक शामिल हुए तो एन.सी.पी. के विभाजित धड़े के नेता प्रफुल्ल पटेल एनडीए की बैठक में पहुंचे। अपना दल (सोनेलाल) की नेता अनुप्रिया पटेल एनडीए की बैठक में मौजूद रहीं तो उनकी मां और अपना दल (कमेरावादी) की नेता कृष्णा पटेल ने ‘इंडिया’ की बैठक में भाग लिया।
सिंधिया और उनके समर्थकों की चिंता बढ़ी 
मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की हसरत लेकर कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों की चिंता बढ़ गई है। यह तो तय है कि मौजूदा विधानसभा के रहते सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे। ऊपर से अगले विधानसभा चुनाव में उनके समर्थकों के टिकट कटने का खतरा बढ़ गया है। पार्टी नेतृत्व ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश की चुनाव अभियान समिति का संयोजक नियुक्त किया है। मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश प्रभारी के साथ मिल कर चुनाव अभियान समिति का संयोजक ही चुनाव की रणनीति बनाता है और टिकटों के बंटवारे में भी उसकी अहम भूमिका होती है। नरेंद्र सिंह तोमर मध्य प्रदेश के ग्वालियर, चंबल संभाग के नेता हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इसी संभाग के हैं। उनके ज्यादातर समर्थक जो उनके साथ भाजपा में शामिल हुए थे और बाद में भाजपा की टिकट पर उपचुनाव लड़े थे, उनमें से ज्यादातर इसी संभाग के थे। उन्होंने पहले भाजपा के नेताओं को हराया था और बाद में भाजपा नेताओं के टिकट काट कर उपचुनाव में उनको टिकट दिया गया था। अब सिंधिया समर्थक इस चिंता में हैं कि कहीं उनके टिकट कट न जाएं अथवा तोमर समर्थकों को ज्यादा टिकट न मिल जाएं। अगर भाजपा के पुराने नेताओं को तरजीह दी जाती है या तोमर अपने समर्थकों को टिकट दिलाने पर जोर डालते हैं, तो सिंधिया समर्थकों की टिकट कटना तय है। अगर ऐसा होता है तो उनकी स्थिति ‘न घर के रहे, न घाट के’ वाली हो जाएगी।
कई पार्टियां न इधर और न उधर 
दिल्ली और बेंगलुरु में सत्तापक्ष और विपक्ष के गठबंधन की बैठक में भाजपा और कांग्रेस दोनों की ओर से ज्यादा से ज्यादा पार्टियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास हुए। लेकिन इसके बावजूद कई पार्टियां ऐसी हैंए जो किसी भी बैठक में शामिल न होते हुए तमाशबीन बनी रहीं और आगे भी तमाशबीन ही बनी रहेंगी। ऐसी सभी पार्टियां बड़ी हैं और राज्यों में सत्तारूढ़ हैं लेकिन किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं। इन पार्टियों ने अपने को भाजपा और कांग्रेस दोनों से अलग रखा है। इनमें से कुछ पार्टियां ऐसी हैं, जो मुद्दों के आधार पर केंद्र सरकार को समर्थन देती हैं। ऐसी पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी, ओडिशा की बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की दोनों पार्टियां वाई.एस.आर. कांग्रेस तथा तेलुगू देशम पार्टी शामिल हैं। बसपा के अलावा तीनों पार्टियां संसद में सैद्धांतिक रूप से केंद्र सरकार का साथ देती हैं। वैसे पिछले कुछ समय से बसपा भी सरकार का साथ देती आ रही है। इसी तरह तेलंगाना में सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति का रुझान भाजपा विरोध का रहा है लेकिन अभी तक उसने विपक्षी गठबंधन से भी दूरी बनाए रखी है। अकाली दल लम्बे समय तक भाजपा का सहयोगी रहा है लेकिन वह भी अभी किसी के साथ नहीं है हालांकि उसके भाजपा के साथ जाने की संभावना ज्यादा है। इन पार्टियों के अलावा एम.आई.एम.ए., जेडीएस और ए.आई.यू.डी.एफ . भी किसी के साथ नहीं हैं।