टूटे हुए इन्द्रधनुषों के वारिस

क्या आज अगर कालिदास होते तो आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देख कर उनका मन एक और मेघदूत लिखने के लिए होता? चित्रकारों ने अपने सर्वश्रेष्ठ चित्र बारिश में भीगती हुई उस विरहणी के बनाये हैं, जो अपनी खिड़की का पल्ला खोल कर उस पर बारिश की बौछारों से अपना भीगता हुआ चेहरा टिका कर परदेस गये अपने प्रेमी के घर लौटने का इंतज़ार कर रही है। और आज बरसती बूंदों की रुमानियत कैसे और किससे साझी करे? क्या उस लोकगीत की धुन को अपने अन्तस में संजो कर कि ‘रब्ब खैर कर, उतों मींह बसदा छम-छम वे’ और इस माहौल में ‘माही भिजदा-भिजदा कितों आन वड़े।’ कभी इस भिगोती बरसात में उसे अपने पार्श्व में देख कर नायिका को कितना सुकून मिलता होगा। कहती होगी सखी मुझे तो आंखों में काजल, और सोलह शृंगार करने की भी फुर्सत नहीं। मेरा माही घर लौट आया बस यही मेरा सोलह शृंगार है और बरसती बूंदों के रुकने पर सप्तवर्णी इन्द्रधनुष का क्षितिज में उभर आना कितने कवियों के लिए महाकाव्य लिख देने की प्रेरणा बन जाता होगा। होगा, आज नहीं। 
एक ही छतरी के नीचे एक दूसरे से चिपके हुए दो प्रेमी, बाहर बरसते बादल को उनकी लटों से लेकर हवा में उड़ते देखते होंगे। उनके कपड़ों के साथ आंख मिचौली, और सड़क के किनारे चूल्हे पर चाय बनाता बूढ़ा चाय वाला। सड़क के दूसरे कौने से बरसाती में लिपटे हुए स्कूल से लौटते तीन बच्चे। सारा माहौल जैसे गा उठता था ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ प्यार से फिर क्यों डरता है दिल।’
बच्चे सड़क पर आगे बढ़ जाते हैं, ‘हम न रहेंगे, तुम न रहोगे, फिर भी रहेगी निशानियां’ कहां है वह माहौल? सच कहिये बरसती बरसात के यह रुमानी बिम्ब हैं न जो बारिश का नाम लेते ही अन्तस में उभरने लगते थे, और साथ ही उभरता था एक अमर संगीत जिसकी उम्र कालिदास के मेघदूत से लेकर आज तक आपके वर्तमान से भगौड़े हो रहे दिल को अपनी मुट्ठियों में जकड़ लेती है। लेकिन दृष्टि बिम्ब में किसी चित्र का ठहर जाना तो युग की पहचान नहीं बनता, बल्कि उसे इस भारी बरसात में देखो। अपना पति खो कर बिलख-बिलख कर रोती हुई, इस अन्धड़ में भटक गये अपने बच्चे की तलाश में छटपटाती हुई, उसके लिए तो आकाश में घुमड़ते-घुमड़ते बादलों की आमद किसी मधुर संगीत की ध्वनि नहीं रही एक सर्वग्रासी दुकान की चेतावनी लगती है।  अरे, इस मौसम में बारिश में भीगे हुए गुलाबों की रखवाली न करना, बल्कि उस धान की पनीरी को तनिक सम्भाल लो, जो कल तुमने बोई, और आज अनचाहे मेहमान की तरह आये जल प्रवाह ने उसका कोई चिन्ह भी नहीं रहने दिया। सब बह कर किसी अजनबी गंजे जैसा सपाट खोपड़ी हो गया। धूसर प्रांतर। आजकल आने वाले दिनों में भी इसी धूसर प्रान्तर की सूचना देता है, कि जिसमें कई दिन अब घास का एक तिनका भी सिर उठाता नज़र न आएगा। पहले बारिश में बिछलती हुई सड़क पर कोई पैर रपटने से गिर जाता तो, फुटपाथों पर रुके हुए लोग तालियां बजा-बजा कर हंस देते। लेकिन अब क्या सड़क और क्या फुटपाथ? भीगी बरसात में कुछ सिरहता नहीं। जल-थल में सब आप खो देते हैं। अब कोई इनमें फिसल कर गिरा, तो किसी के होंठों पर हंसी नहीं फूटती, लोग उसे बचाने के लिए रस्सी और बांस फेंकते नज़र आते हैं। तब भी डूबे हुए आदमी की खोज खबर नहीं मिलती। इस बीच सड़क का गड्डा बोरवैल हो गया, और सड़क पर डूबा आदमी भूतपूर्व। अब आपके हाथ में बाकी कचरे के ढेर तैरते हुए कोर्निश बजाते हैं।
बड़ी समस्या थी न कि सफाई कर्मचारी कचरा नहीं उठाते। अब इनके पहाड़ बनते इनकी ऊंचाई देखने की ज़रूरत नहीं रही। सड़कों के किनारे पर ही जो कचरे के पहाड़ उभर आये थे वे ताना देते थे न कि कैसी कचरा नेस्तारण मशीनें मंगवाई हैं कि एक दिन भी इन्होंने काम नहीं किया। आप तो यही शिकायत करते रहते हैं न कि कचरा है तो मशीन नहीं, और मशीन नहीं तो उसे चलाने वाला प्रशिक्षित ड्राइवर भी नहीं।
एक ही झटके में इस अयाचित बारिश के त़ूफान ने इन समस्याओं का समाधान कर दिया। अब कौन मशीन मांगता है या उसके चालक। जल प्रलय के रूप में धरती ने अट्टहास किया है और समय की सरकार धरती संरक्षण दिवस मनाती रह गयी। अब जल प्रवाह ने अपना झाड़ उठा पूरा कचरा उठा तुम्हारे घर की देहरी पर फेंक दिया। घर का कूड़ा था फिर घर द्वार तक लौट कर आ गया। खिड़की से झांक कर घर के किसी सदस्य ने उसकी अभ्यर्थना नहीं की, क्योंकि इस अभ्यर्थना का मतलब होता है रूप बदल कर आये डेंगू के वारिस का स्वागत। यह लो रूप बदल कर महामारी फिर आपके द्वार पर दस्तक देने आयी है। नई बीमारियों के वायरस लाई है। काले बाज़ार में दवा बेचने वालों के चेहरे पर कुटिल मुस्कान लौटा लाई है। ‘दवा नहीं है’ के पोस्टर इन दवा बेचने वालों के चेहरे पर मुस्कराने लगे। आधी रात को गोदामों के बन्द दरवाज़ों के चोर दरवाज़े से ये नदारद दीवार प्रगट होंगी और दुगने-चौगुने दाम यह दवा निकल कर, बिक कर अपने मालिकों की जेब भरेगी। ‘मारू घुटना फूटे आंख की तरह कुछ गुमनाम दवा विक्रेताओं को करोड़पति बना जायेगी।’ अजी आर्थिक तरक्की का आधार तो अब इन व्यापारियों पर है, जो कभी एक कमरे में पूरा परिवार समेट कर सोते थे, आज भव्य अट्टालिकाओं के भव्य कमरों में भी उन्हें जगह पूरी नहीं होती। पूछो क्या कष्ट है? जी बाकी तो सब ठीक है, शुरू से हम पलंग के सिवा किसी सपाट धरती पर नहीं सो सकते। उधर धरती पर सोने वाले इस गूदड़नुमा आदमी को देख लें तो अमीर की तरक्की को देख हज़म नहीं होती पीड़ित अपने लिये मुआवज़े की घोषणा का इंतज़ार कर रहे हैं। जी हां घोषणा तो इन बाढ़ पीड़ितों के लिए होती है, लेकिन जाती इन बांटने वाले की जेब में है, लेकिन इस पैसे अपनी झोंपड़ी को प्रासार और बाढ़ ग्रसित को एक टूटा हुआ इन्द्रधनुश  देने का कल्याणकारी वायदा करके लाभ खुद उठा ले गये।