लोकतंत्र के लिए ़खतरनाक है संसद में लगातार गतिरोध

तकनीकी रूप से संसद का मानसून सत्र पिछले पांच दिनों से चालू है, लेकिन वास्तविकता में अभी तक एक घंटे भी कोई संसदीय कामकाज नहीं हुआ। यह 1 अरब 40 करोड़ की आबादी वाले लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। संसद के पिछले बजट सत्र में भी लोकसभा में महज 35 प्रतिशत और राज्यसभा में सिर्फ 24 प्रतिशत कामकाज हुआ था। बाकी समय हंगामे की भेंट चढ़ गया था। पिछले सत्र में सदन की 25 बैठकें हुई थीं, लेकिन ज्यादातर समय हंगामा होता रहा। इस साल 31 जनवरी से 6 अप्रैल 2023 तक चलने वाले बजट सत्र में सिर्फ 35 प्रतिशत यानी लगभग एक तिहाई कामकाज होना बताता है कि हम संसदीय व्यवस्था को लेकर कितना असंवेदनशील हो गये हैं। क्या यह हिंदुस्तान जैसे वयस्क लोकतंत्र के लिए शोभा देता है? सोचिये, कोई कारपोरेट कंपनी अपने उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण सत्र में सिर्फ  34.15 प्रतिशत समय तक ही काम करती तो क्या वह अपना अस्तित्व बनाये रख सकती? ऐसी कंपनी एक साल भी नहीं चल सकती क्योंकि किसी भी कारपोरेट कंपनी को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जरूरी है कि वह अपने को उत्पादक बनाये रखे। जरा सोचिए, अगर संसद को भी अपने बने रहने के लिए, उसका उत्पादक बने रहना ज़रूरी होता तो क्या संसद बच पाती?
आम लोगों की खून पसीने की कमाई से कटने वाले टैक्स से चलने वाली संसद को लेकर अगर इसके प्रतिनिधि जरा भी अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसी लापरवाही या इसके प्रति ऐसी अनदेखी नहीं करते। यह कोई पहला या दूसरा सत्र नहीं है,जब लगातार गतिरोध कायम रहा हो। हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से संसद में लगातार गतिरोध रहना इसका स्थायी स्वभाव बन गया है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि जब भी संसद का सत्र कोई नया सत्र शुरू होता है, तो इसके शुरुआती कुछ दिन तो हंगामे की भेंट चढ़ ही जाते हैं। 20 जुलाई से शुरू हुए संसद के मौजूदा मानसून सत्र में भी यही हो रहा है। अभी तक यानी इन पंक्तियों के लिखे जाने तक संसद का 5 प्रतिशत कामकाज भी नहीं हुआ। संसद के पिछले यानी बजट सत्र के शुरुआती हिस्से में चूंकि लम्बा समय बजट पेश करने,बजट से पहले आर्थिक सर्वे प्रस्तुत करने आदि के लिए निर्धारित होता है। इस वजह से वहां गतिरोध नहीं होता, लेकिन जैसे ही सदन में पक्ष विपक्ष की सार्थक बहस का दौर शुरू होता है तो हर तरफ से गतिरोध आ धमकता है। अगर संसद के इस सत्र में वाकई हाल के कई सत्रों की तरह ज्यादातर समय गतिरोध में गुजरा तो यह न सिर्फ लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला होगा बल्कि इससे संसदीय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जायेगा।
इस समय मणिपुर में जो तनाव है, जातीय हिंसा का भयानक माहौल है और कानून व व्यवस्था पूरी तरह से तहस-नहस की स्थिति में है, ऐसे में अगर संसद का यह सत्र हंगामों से घिरा रहता है तो यह महज मणिपुर के लोगों से मज़ाक नहीं होगा, यह समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह होगा। दो दर्जन से ज्यादा विधेयक इस सत्र में प्रस्तुत किए जाने हैं। कई विधेयकों पर बहस और विमर्श हो चुके हैं, उन्हें कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ना है, लेकिन जिस तरह से संसद शुरू होने से लेकर पहले पांच दिनों में सांसदों की कम उपस्थिति और लगातार हंगामे का माहौल रहा है, उससे लगता नहीं है कि संसद का यह सत्र सुचारू रूप से कामकाज कर सकेगा। यह सत्र बहुत ही ज़रूरी है क्योंकि अगले लोकसभा चुनावों के पहले महज एक सत्र ही और हो सकता है संसद का शीत सत्र। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पांच सालों की संसदीय व्यवस्था के समापन की ओर बढ़ते हुए इस तरह की गैर जिम्मेदारी नहीं बरती जानी चाहिए। 17वीं लोकसभा के 11वें सत्र के दौरान 45 घंटे और 55 मिनट की बैठक चली। साफ मतलब है कि औसतन ये सभी बैठकें दो घंटे से ही कुछ ज्यादा समय तक चलीं जबकि 6वें और 7वें दशक में संसद की हर बैठक औसतन साढ़े तीन से चार घंटे की होती थी। इस दौरान सांसदों को मिलने वाला वेतन, भत्ता और बाकी सारी सुविधाएं आज के मुकाबले 10 फीसदी भी नहीं होती थी।
आज संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए ज्यादा लम्बी बैठकों और गंभीरता से विमर्श की जरूरत है, क्योंकि चार दशक पहले के मुकाबले आज भारतीय लोकतंत्र की हर चीज कहीं ज्यादा विस्तृत हुई है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अब जबकि पहले से ज्यादा बैठकों और विचार विमर्श की जरूरत है, तब लगातार संसद के सत्रों की अवधि कम होती जा रही है। संसद के पिछले सत्र के धन्यवाद प्रस्ताव पर महज 143 संसद सदस्यों ने भाग लिया था। यह आंकड़ा परेशान करने वाला है। इससे साफ पता चलता है कि 545 सदस्यों में आधे सदस्यों को भी संसद के सबसे महत्वपूर्ण धन्यवाद प्रस्ताव पर उपस्थित रहना जरूरी नहीं लगता जबकि सरकार के कामकाज पर सार्थक नजर डालने का काम इसी सत्र में हो सकता है। जिस तरह से प्रश्नकाल के बाद संसद सदस्यों द्वारा शून्य काल में लोक महत्व के पूछे जाने वाले सवालों में कमी आ रही है, उसको देखते हुए भी लगता है कि हमारे संसद सदस्य संसद को गंभीरता से नहीं ले रहे।
हाल के सालों में संसद का हर सत्र उसके पिछले सत्र के मुकाबले ज्यादा बड़े हंगामे, ज्यादा खराब आचरण और ज्यादा गाली गलौज के लिए जाना गया है। हर गुजरते साल के साथ संसद का व्यवहार खराब होता जा रहा है। हर कोई निजी रूप से विलाप कर रहा है। मणिपुर के मामले में बेचौनी दिखा रहा है, लेकिन जिन लोगों के बेचैनी दिखाने से संसद में बात बनने से पीड़ितों को जल्दी से जल्दी न्याय मिलने की आश बनी रहती है, वे संसद के इस महत्वपूर्ण सत्र में मौजूद ही नहीं हैं। एक तरह से संसद का यह सत्र भी पक्ष-विपक्ष की अहंकारी चुनौतियों की भेंट चढ़ने की दिशा में अग्रसर है।
मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी यानी भाजपा सत्ता में आने से पहले लम्बे समय तक विपक्ष में रही है। उसे मालूम है कि कैसे संसद के गतिरोध को तोड़ा जा सकता है, जिससे कि सार्थक बातचीत हो, लेकिन संसद में किसी तरह के विमर्श का माहौल बनाने की बजाय आज हर सांसद अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से इस सत्र का समापन करने हेतु आमादा है। जिस तरह से संसद में बेतरतीबी छायी हुई है, उससे लगता नहीं है कि हम अपनी मौजूदा हकीकतों के साथ लोकतंत्रों में महत्वपूर्ण स्थान पा सकते हैं।

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