जम्मू-कश्मीर के सिखों को भी बनता अधिकार दिया जाये


सींचा था जिसको ़खून-ए-तमन्ना से  रात दिन,
गुलशन में उस बहार के हकदार हम नहीं।
नक्श लायलपुरी का यह शे’अर उस समय याद आया, जब यह पता चला कि केन्द्र सरकार जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों की तैयारी कर रही है। चाहे पहले ये चुनाव 5 अन्य प्रदेशों की विधानसभाओं के साथ ही होने थे परन्तु अब इनके लोकसभा चुनावों के साथ होने की सम्भावना बनते दिखाई दे रही है। चुनावों से पहले धारा 370 हटाने के बाद बनाये ‘जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट-2019’ में संशोधन की तैयारी पूर्ण है। इस संशोधन में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में तीन सीटें आरक्षित किये जाने की व्यवस्था है। इन तीन सीटों में दो कश्मीरी पंडितों के लिए आरक्षित होंगी तथा एक सीट कथित आज़ाद कश्मीर (पाकि के कब्ज़े वाले कश्मीर से विस्थापित हुए लोगों) के लिए आरक्षित होगी। चाहे हम कश्मीरी पंडितों के लिए दो सीटें आरक्षित करने के विरुद्ध नहीं हैं परन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि कश्मीर में उन कश्मीरी पंडितों के लिए तो दो सीटें आरक्षित रख ली जाएंगी, जो आतंकवादियों का मुकाबला करने की बजाय कश्मीर की धरती को अलविदा कह कर देश के अन्य भागों में सरकारी सहायता से आगे बढ़े तथा सफल हुये, परन्तु उन सिखों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं की जा रही, जो ‘राष्ट्रवादी’ सोच पर पहरा देते हुए कश्मीर में डट कर अत्याचार का सामना करते रहे तथा शहीदियां देते रहे। विस्थापित लोगों में भी सिखों की संख्या काफी थी परन्तु सभी जानते हैं कि विस्थापित लोगों के लिए रखी जा रही आरक्षित सीट भी किसे मिलेगी?
एक अनुमान के अनुसार 1947 के विभाजन के समय तथा कश्मीर पर कबायली (पाकिस्तानी) हमले में लगभग एक लाख सिख मारे गये थे। कहा जाता है कि कबायली हमले के दौरान अकेले मुजफ्फरनगर क्षेत्र में ही 70 हज़ार सिखों का नरसंहार किया गया था परन्तु यदि इन अनुमानों को सच न भी माना जाये तो एक अध्ययन जो डा. कमल जी.बी. सिंह ने अपने पी.एच.डी. थीसस के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसी सम्माननीय संस्था से ‘विभाजन की अधूरी दास्तानों’ संबंधी किया गया, में प्रमाणित किया गया है कि जम्मू-कश्मीर  के दूरस्थ क्षेत्रों में 18 से 20 हज़ार सिखों की हत्याएं 21 से 26 अक्तूबर (1947) के दौरान हुई थीं, जो कहीं भी दर्ज नहीं हैं।
21 से 26 अक्तूबर, 1947 के दौरान घटित घटनाओं को समझना ज़रूरी है, जब श्रीनगर को बचाने के लिए कबायलियों (हमलावरों) का रुख रफियाबाद तक मोड़ दिया गया तो रास्ते में हथियारबंद हमलावरों ने सिखों तथा हिन्दुओं को मार दिया या घायल कर दिया। उनके गांवों के गांव बर्बाद कर दिये गये। सिखों का कत्लेआम इसलिए भी अधिक हुआ क्योंकि वे अपनी पगड़ी तथा दाढ़ी के कारण दूर से ही पहचाने जाते थे।
कोमल का कहना है कि इतिहास सिखों के लिए ‘क्रूर’ रहा है, जिन्होंने बड़ी संख्या में जानें गंवाईं तथा अपनी जान की कीमत पर हमलावरों को पकड़ने में विशेष भूमिका निभाई, परन्तु (खेद) इतिहासकारों तथा स्थानीय प्रशासन ने इस कुर्बानी को कभी दर्ज ही नहीं किया। मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली, डोमेल, पुंछ तथा राजौरी में सिखों के साथ क्या घटित हुआ (उसका वर्णन बहुत मुश्किल है), सिर्फ इस बात से अनुमान लगा लें कि क्षेत्र के लोग आज भी याद करते हैं कि उस समय कबायली हमलावरों का नारा था, ‘हिन्दू का ज़र-सिख का सर-मुस्लिम का घर (हमारा) है। अभिप्राय हिन्दुओं की दौलत, सिखों के सिर या जान तथा मुसलमान के घर पर कब्ज़ा करना उनका लक्ष्य था। स्पष्ट है कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों को तो सिर्फ  लूट कर उन्हें जिन्दा छोड़ दिया जाता था, परन्तु सिखों को तो जान से ही हाथ धोना पड़ता था। सिखों की महिलाएं भी वे साथ ले गए, परन्तु कोमल इस बात के लिए कि इतिहास सिखों के संहार के प्रति खामोश है, इस संबंध में किसी सीमा तक सिखों को ही ज़िम्मेदार ठहराती हैं, क्योंकि एक तो वे कम पढ़े-लिखे थे और दूसरा उनके साथ जो घटित हुआ, वे किसी के साथ सांझा करने के लिए तैयार नहीं थे। शायद स्वाभिमान इजाज़त नहीं देता था और उनके साथ हुई अत्याचार की इंतिहा क्रूर इतिहासकारों की कलम से दूर ही रही। 
़खैर! सच्चाई सभी के सामने है कि जम्मू-कश्मीर लम्बी अवधि तक सिख शासन का हिस्सा रहा। पहले जम्मू-कश्मीर पर सिख शासन स्थापित करते समय तथा बाद में इसका बड़ा भाग पाकिस्तान से बचाते समय हजारों सिखों ने अपनी जान कुर्बान की थी। वर्तमान में भी जम्मू-कश्मीर में सिखों की संख्या लगभग तीन लाख है, जो दो विधानसभा सीटों के आस-पास है। इस प्रकार सिखों की कुर्बानी और संख्या दोनों के लिहाज से सिख जम्मू-कश्मीर में दो विधानसभा सीटें लेने का अधिकार रखते हैं।
हम फिर कहते हैं कि सिख कश्मीरी पंडितों के लिए आरक्षण के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु सिखों का अधिकार भी तो उन्हें मिलना ही चाहिए। 
आज एक दाना-ए-गंदुम के भी हकदार नहीं,
हम ने सदियों इन्हीं खेतों पे हकूमत की है।
सिख संगठन ध्यान दें
इस मामले में अभी तक दो स्वर ही सुनाई दिए हैं। एक अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल इस संबंध में सिखों के अधिकारों के लिए खुल कर बोल रहे हैं, और दूसरे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन तरलोचन सिंह हैं, जो सिख इंटैलीजैंसियां भारत सरकार के अधिकारियों, मंत्रियों को सावधान करने का यत्न कर रहे हैं कि सिखों को जम्मू-कश्मीर में उनके अधिकार मिलें। खुशी की बात है कि जब इस संबंध में शिरोमणि कमेटी के प्रधान एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी से बात की गई तो वह भी इस संबंध में आवाज़ उठाने के लिए सहमत हुए परन्तु मेरी सिख कौम से सम्बंधित सभी पक्षों को, सभी राजनीतिक दलों, धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, मौजूदा एवं सेवानिवृत्त सिख अधिकारियों, जजों आदि से अपील है कि वे समय रहते इस संबंध में आवाज़ उठाएं। वैसे देश के प्रधानमंत्री जो बार-बार सिखों के हमदर्द होने की बात करते हैं, को भी निवेदन है कि वे इस मामले में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करके पेश किये जाने वाले संशोधन में तीन की बजाय पांच सीटें आरक्षित करने की व्यवस्था करवायें, ताकि दो सीटें सिखों के लिए भी आरक्षित हो सकें। इससे सिख संगत में प्रधानमंत्री की अपील एवं स्वीकृति बढ़ेगी तथा हमें विश्वास होगा कि प्रधानमंत्री बातों में ही नहीं वास्तव में सिखों के हमदर्द हैं। 
सुनते हैं ऐसा ज़माना भी यहां गुज़रा है,
हक उन्हें मिलता जो हकदार हुआ करते थे।
सिख नेताओं पीड़ितों के लिए कुछ करो 
दूसरे विश्व युद्ध के समय की एक कविता का ज़िक्र इन कालमों में पहले भी हुआ है। शायद कुछ पाठकों को तो यह मौखिक रूप में याद भी हो गई हो। मार्टिन नीमोविलर की कविता है : 
ओह कम्युनिस्टां लई सब तों पहलां आए
अते मैं इस लई नहीं बोलेया
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं सां।
फिर ओह यहूदियां लई आए, ते मैं
नहीं बोलेया, क्योंकि मैं यहूदी नहीं सां।
फिर ओह ट्रेड यूनियनिस्टां लई आए, 
अते मैं नहीं बोलेया
मैं किहड़ा ट्रेड यूनियनिस्ट सां?
फिर ओह कैथोलिकां लई आए, अते मैं
कोई गल नहीं कीती, मैं तां प्रोटैस्टैंट सां।
फिर ओह मेरे लई आए, अते ओस समय तक 
मेरे लई बोलण वाला कोई नहीं सी बचिया। 
सिख नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, स्कालरों, संत-महापुरुषों, सिख संगठनों तथा तख्तों के जत्थेदार साहिबान के लिए सोचने का समय है कि साहिब श्री गुरु तेग बहादुर साहिब तथा साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सरबंस कुर्बान करने तक का बलिदान क्यों किया था। आज जो मणिपुर में हो रहा है, यदि हम समय रहते उसके लिए न बोले तो अंत में शायद हमारी बारी भी आ सकती है। फिर हमारे लिए बोलने वाला भी कोई नहीं शेष बचा  होगा।  
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