तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव सत्ता विरोधी रुझान को पलटने की कोशिश में हैं कांग्रेस व भाजपा

क्या सरकार से नाराज़ मतदाताओं की नाराज़गी दूर की जा सकती है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका ठोस उत्तर देना मुश्किल है। पर सत्ता में टिके रहने की युक्तियां विकसित करने के लिए इसका जवाब खोजना ज़रूरी है। मसलन, वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि इस बार लोग भाजपा के नेताओं में आए अहंकार की ज़िक्र कर रहे हैं। वे यह भी कहते हैं कि भाजपा को एक झटका देना चाहिए। क्या नीरजा चौधरी का यह अवलोकन सही है? फिर सवाल यह भी है कि वे लोग कौन हैं जो ऐसा कह रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर ये लोग वे हैं जिन्होंने पिछली बार विपक्ष को लगातार दूसरा झटका दिया था। यानी, ये भाजपा के वोटर हैं। अगर भाजपा के ऐसे वोटरों का एक छोटा हिस्सा भी उसका साथ छोड़ कर विपक्ष की तऱफ जाता है, तो उसे तीन प्रतिशत के स्विंग का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यानी, उसकी 70-70 सीटें कम हो जाएंगी। मतलब, भाजपा केवल अपने दम पर बहुमत प्राप्त करने में नाकाम हो जाएगी। तो क्या मोदी जी और भाजपा को कुछ ऐसा रुख अख्तियार करना चाहिए जो उन्हें कम अहंकारी और ज्यादा विनम्र दिखा सके? इसी प्रश्न के उत्तर में एंटीइनकम्बेंसी का मुकाबला करने की वे कोशिशें छिपी हुई हैं जिनका प्रदर्शन इस समय लोकसभा और विधानसभा स्तर पर देखा जा सकता है। 
चुनावी मौसम में सबसे ज्यादा दिलचस्प यह देखना होता है कि सत्तारूढ़ दल सरकार विरोधी भावनाओं या नाराज़गी (एंटीइनकम्बेंसी) का सामना करने के लिए किस तरह पेशबंदी कर रहा है। ध्यान रहे कि अंग्रेज़ी की डिक्शनरी में एंटीइनकम्बेंसी शब्द नहीं मिलता। दरअसल, यह ़खास तौर से भारतीय चुनावी लोकतंत्र की उपज होने का साथ-साथ भारत की तरफ से अंग्रेज़ी भाषा में किया गया योगदान भी है। यहां की सत्तारूढ़ पार्टियों और नेतागणों ने एंटीइनकम्बेंसी का मुकाबला करने, उसकी धार कुंद करने और अंतत: उसे पलट कर सत्ता में टिके रहने के हथकंडों में महारत हासिल कर ली है। यह एक ऩफीस ़िकस्म की ़काबिलियत है जो दूसरे देशों की राजनीतिक प्रणालियों में शायद ही पायी जाती हो। जो भी हो, अपने गठजोड़ के चालीस-पचास सांसदों के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया भाषण भारतीय राजनीति की इस अनूठी विशेषता का पहला उदाहरण है। इसी तरह के उदाहरण राज्यों की राजनीति में भी पसरे हुए हैं। मसलन, ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी को पलट देने में जो अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की थी, उसके म़ुकाबले भारतीय जनता पार्टी की ज़बरदस्त बमबारी भी बेअसर साबित हो गई थी। इसी तरह के नज़ारे इस समय कुछ छोटे स्तर पर राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान द्वारा की जा रही सुनियोजित पेशबंदियों के रूप में देखे जा सकते हैं।
कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने सांसदों के एक समूह से जो कहा, वही बात वे अपने सांसदों के ऐसे ही छोटे-छोटे समुहों के सामने बारी-बारी से थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ कहने वाले हैं। इसे उनके खिलाफ पनप रही दस वर्षीय एंटीइनकम्बेंसी को मंद करने और परास्त करने की लम्बी योजना की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए। मोदी ने सांसदों को समझाया कि वे लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिहाज़ से किन बातों पर ज़ोर दें, और किन बातों पर न दें। मसलन, उन्होंने नसीहत दी कि राममंदिर, धारा 370, पाँच खरब की अर्थव्यवस्था बनाने या विदेश नीति से संबंधित ‘उपलब्धियों’ का बखान करने में वक्त खराब न करें। बल्कि, जनता की समस्याओं के साथ जुड़ें, उसके साथ समय बिताएं और उसके बीच काम करें। मोदी की यह सलाह दो पहलुओं की तऱफ इशारा करती है। 
पहला, मोदी को लगता है कि सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर या निर्वाचनक्षेत्र स्तर पर नाराज़गी है जिसे समझ कर, निजी स्पर्श दे कर और जनता का हितैषी बन कर दुरुस्त किया जा सकता है। स्थानीय स्तर की नाराज़गी बड़ी-बड़ी हवाई लगने वाली बातों से दूर होने वाली नहीं है। दूसरा, मोदी को पता है कि 2014 और 2019 में वे किस वज़ह से जीते थे। 2014 में कांग्रेस के दस वर्षीय शासन से पैदा हुई थकान और ऊब के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की धार जुड़ गई थी। मोदी तब नये थे। उनकी हर बात नई थी। लोगों ने उनकी चुनौती पर य़कीन करके उन्हें जिता दिया था। इसके बावजूद वह जीत केवल 31 प्रतिशत वोटों से हासिल की गई थी। 2019 में बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक और मोदी द्वारा बनाये गए सब्सिडी तंत्र के मेल ने जीत दिलाई थी। मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिक मुद्दों और विदेश नीति की बातों का इन दोनों जीतों में कोई योगदान नहीं था। फिर, यह जीत भी 37 प्रतिशत वोटों पर आ कर रुक गई थी। मोदो के साफ तौर पर लग रहा है कि अगर भाजपा की चुनावी मुहिम हवाई बातों में फंस गई तो इस बार 31 से 37 प्रतिशत वोट भी नहीं मिलेंगे। तीन प्रतिशत से पांच प्रतिशत का स्विंग अगर भाजपा के खिलाफ हुआ तो दस साल की राजनीति सिफर में बदल जाएगी। 
अब आइए राजस्थान पर। वहां एक बार भाजपा जीतती है तो दूसरी बार कांग्रेस। यानी पांच साल में यहां काफी एंटीइनकम्बेंसी तैयार हो जाती है। इस लिहाज़ से इस द़फा भाजपा का नम्बर होना चाहिए। लेकिन, अगर राजस्थान के वोटरों से बात कीजिए तो कोई भाजपा की जीत की गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है। अभी मैं बीकानेर गया। दो दिन तक मैंने बहुत से पत्रकारों और सामान्य ़गैर-राजनीतिक लोगों से बात की। सब यही कह रहे थे कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव को नज़दीकी बना दिया है। यह काम गहलोत ने कैसे किया? कुछ टिप्पणीकारों की मान्यता है कि गहलोत ने स्वयं को एक ब्रांड के रूप में पेश करके, राज्य स्तर पर अपना सब्सिडी तंत्र तैयार करके, जनता के साथ अपने सीधे जुड़ाव को बड़े पैमाने पर बढ़ा कर और अपनी ओबीसी नेता की छवि चमका कर ऐसे राजनीतिक हालात पैदा किये हैं। गहलोत की राजनीतिक कुशलता में शायद ही किसी को शक हो। वे भाजपा के भीतर मौजूद गुटबाज़ी का भी ़फायदा उठा रहे हैं। अभी साल-डेढ़ साल पहले सभी लोग कहते थे कि इस बार राजस्थान में भाजपा का आना तय है। पर अब यह कहने से पहले सभी कुछ सोच में पड़ जाते हैं। 
पाले के दूसरी तरफ नज़र डालें तो मध्य प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने लम्बे शासन के कारण पैदा हुई एंटीइनकम्बेंसी को पलटने के लिए कुछ ऐसी ही कोशिशों में लगे हुए दिख रहे हैं। उन्होंने अपनी ‘मामाजी’ वाली छवि को ज़ोरदारी से अपने प्रचार के केन्द्र में स्थापित किया है। इससे महिलाओं और लड़कियों में अपनेपन का संदेश जाता है। शिवराज सिंह की चुनौती कड़ी है, पर वे जमे हुए हैं और पूरी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस कमलनाथ और दिगविजय सिंह के बीच की एकता के बावजूद बाजी न मान सके। छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल संभवत: तीनों मुख्यमंत्रियों के बीच सर्वाधिक आश्वस्तकारी स्थिति में हैं। पर वे भी अपने विज्ञापनों और अन्य प्रचार के ज़रिये ज़बरदस्त धूम मचाए हुए हैं। चुनाव नतीजे ही बताएंगे कि एंटीइनकम्बेंसी से टकराने की ये विधियां कारगर साबित होती हैं या नहीं। लेकिन इनका अध्ययन करना भारतीय राजनीति की उस अहम खूबी का पता लगाना है जो उसे दुनिया में अनूठी साबित करती है।
 
-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।