केजरीवाल की निराशा

विगत दिवस संसद द्वारा दिल्ली सेवा बिल पारित होने से वहां केजरीवाल की सरकार के अधिकार बहुत सीमित हो  गये हैं। दिल्ली को कभी भी पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। इसके स्थान पर यह हमेशा केन्द्र शासित प्रदेश ही रहा है। देश के स्वतंत्र होने के बाद 1 नवम्बर, 1956 से संविधान में इसे केन्द्र शासित प्रदेश ही माना गया था। एक फरवरी, 1992 को इसे ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली’ घोषित किया गया था, जिसमें निर्वाचित सरकार बनाने की घोषणा की गई थी तथा इसकी भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में शक्तियां निश्चित की गई थीं। इसमें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त लैफ्टीनैंट गवर्नर (उप-राज्यपाल) की शक्तियां भी निर्धारित की गई थीं। उस समय हुए चुनाव में कांग्रेस के चौधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री बने थे। भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज भी मुख्यमंत्री बनी थीं तथा उसके बाद तीन बार कांग्रेस की शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनी थीं। यह आम कहा जाता है कि शीला दीक्षित के शासन में दिल्ली का बेहद विकास हुआ।
अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की पहली सरकार दिसम्बर 2013 में बनी थी, जो कुछ मास के बाद ही टूट गई थी। इससे पूर्व केन्द्र में भिन्न-भिन्न पार्टियों से संबंधित सरकारें भी बनती रही थीं। केन्द्र शासित प्रदेश होने के कारण तथा निर्वाचित विधानसभा की शक्तियां निश्चित होने के कारण केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने से पहले इस संबंध में कोई गम्भीर विवाद सामने नहीं आया था तथा अपने-अपने निश्चित क्षेत्रों में काम सही ढंग से चलता रहा था। देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली में संसद के अतिरिक्त राष्ट्रपति भवन, निर्वाचित केन्द्र सरकार के कार्यालय तथा विश्व भर के दूतावास हैं। इसके अलावा यहां हमेशा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की गतिविधि भी बनी रहती है। इसीलिए 1993 में विधानसभा बनाने के साथ इसे कई क्षेत्रों में सीमित अधिकार दिये गये थे। इसके मुख्यमंत्रियों में भाजपा के मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा तथा सुषमा स्वराज भारतीय जनता पार्टी के नेता थे। कांग्रेस की शीला दीक्षित यहां 1998 से 2013 तक 15 वर्ष से अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहीं। आम आदमी पार्टी की ओर से अरविन्द केजरीवाल 28 दिसम्बर, 2013 को मुख्यमंत्री बने। उनकी यह सरकार सिर्फ 48 दिन तक चल सकी तथा अब विगत 8 वर्ष से अधिक समय से वह मुख्यमंत्री बने आ रहे हैं, परन्तु उनकी तीव्र राजनीतिक लालसा कभी भी शक्तियों के सीमित दायरे में नहीं रही इसलिए उनका अक्सर विवाद तत्कालीन उप-राज्यपालों के साथ होता रहा तथा अधिकारों को लेकर ज्यादातर यह विवाद कड़ा होता गया। यहां तक कि यह सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में दिल्ली में उच्चाधिकारियों के तबादलों एवं नियुक्तियों संबंधी तथा कुछ अन्य अधिकार दिल्ली की निर्वाचित सरकार को दिये थे, परन्तु साथ ही इस फैसले में यह भी कहा था कि संसद यदि चाहे तो दिल्ली के किसी भी विषय के संबंध में कानून बना सकती है। केन्द्रीय शासन होने के बहाने केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद एक अध्यादेश जारी किया था, जिसमें उच्चाधिकारियों के स्थानांतरण और कई पक्षों से उप-राज्यपाल की शक्तियां निर्वाचित सरकार के मुकाबले बढ़ा दी गई थीं। केन्द्र के इस फैसले की भारी आलोचना भी हुई। 
केजरीवाल ने इसका विरोध करने के लिए देश भर की विपक्षी पार्टियों से सम्पर्क किया ताकि संसद में इस अध्यादेश का विरोध किया जा सके। देश में भिन्न-भिन्न विपक्षी पार्टियों के नये बने गठबंधन ने इसे राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप करार दिया तथा इसका विरोध किया। अब हो रहे संसद के अधिवेशन में पहले लोकसभा में तथा बाद में राज्यसभा में ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली’ की सेवाओं से संबंधित पेश किये गये इस बिल पर बहुत सख्त तथा विस्तृत चर्चा हुई। अब राज्यसभा में भी इसके बहुमत से पारित होने के बाद बन रहे कानून में केजरीवाल को मुख्यमंत्री के रूप में बड़ा झटका लगा है। उनकी उच्चाधिकारियों के तबादले संबंधी शक्तियां सीमित हो गई हैं। इस संबंध में गृह मंत्री अमित शाह ने संविधान की धारा 239-एए का हवाला देते हुए 1993 से 2015 तक भाजपा तथा कांग्रेस की सरकारों का हवाला देते हुए कहा कि इस विवाद के लिए सिर्फ केजरीवाल की लालसा ही ज़िम्मेदार है। इसलिए अमित शाह ने केजरीवाल को अपनी मानसिकता को बदलने तथा संयम में रहने की सलाह दी है। इस बिल के पारित होने के बाद आगामी समय में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली का शासन कैसे चलाती है तथा देश की राजनीति में उसका कितना प्रभाव बना रह सकेगा, यह देखना शेष होगा।


—बरजिन्दर सिंह हमदर्द