रूस-यूक्रेन युद्ध रुकना चाहिए

अब सम्भव है कि भारतीय मीडिया के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध कोई बड़ा मसला नहीं रहा। ़खबर का क्रम दिखाया जाना इस बात का सबूत है। युद्ध समाप्त नहीं हुआ, न ही विनाशलीला में कोई कमी आई है। हज़ारों सैनिकों की जान चली गई। कई शहर तबाह हो गये। नागरिक अपनी जान बचाने  को लेकर पलायन करना चाहते हैं, परन्तु एक-दूसरे पर हमलों और भारी तबाही में कोई कमी नहीं आई। इस साल जून महीने के आरम्भ से ही यूक्रेन ने रूस पर पलटवार किया। इस जवाबी हमले में रूस का तो नुकसान हुआ ही लेकिन रूस ने भारी संख्या में यूक्रेनी सेना को दिए नाटो के घातक हथियारों को नष्ट कर दिया। रूस-यूक्रेन युद्ध को शुरू हुए पन्द्रह महीने से अधिक समय हो चुका है। यह दूसरे महायुद्ध के बाद से यूरेशिया ज़मीन पर सबसे बड़ा युद्ध बन गया है। अब यह बात छुपी हुई नहीं है कि इस युद्ध के पीछे अमरीका और नाटो छद्द्म युद्ध लड़ रहे हैं और उनका उद्देश्य है कि रूस की सैनिक शक्ति को कमज़ोर कर उसे एक शक्तिहीन देश में बदल दें। ताकि इससे चीन को भी सबक मिल सके जो अमरीकी वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर रहा और रूस की मदद कर रहा है।
बताया जा रहा है कि अमरीका ने बहुत पहले ही रूस-यूक्रेन युद्ध की पटकथा लिखनी आरम्भ कर दी थी। 2014 के बाद ही यूक्रेन की जेलेंस्की सरकार को उकसाकर दोनबास और लोहान्सक इलाके में रूसी समुदाय पर कहर बरपाया जिससे रूस यूक्रेन के खिलाफ कदम उठाने पर मजबूर हो जाये। इसके साथ ही यूक्रेन को नाटो की तरफ लुभाने की गंदी चाल चली गई। यह कदम भी रूस को भड़काने वाला ही था। रूस किसी भी कीमत पर यह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि उसका पड़ोसी देश नाटो में शामिल हो जाये। 
जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो पूरी दुनिया को लगता था कि यूक्रेन की पराजय निश्चित है और अधिक से अधिक पन्द्रह दिनों में परिणाम सामने आएंगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं। कोई देश युद्ध शुरू कर सकता है लेकिन वांछित परिणाम पाना उसके बस का नहीं होता। अमरीका ने नाटो के साथ मिलकर हथियारों का जखीरा यूक्रेन को भेजना शुरू कर दिया। अमरीका और नाटो देशों का भेजा हुआ हथियारों के जखीरे का काफी हिस्सा भी मिसाइलों से नष्ट कर दिया। यूक्रेन की सेना उसमें से कुछ हिस्से का उपयोग भी नहीं कर पाई। इस दौरान यूरोपीय देशों की अर्थ-व्यवस्थाएं आर्थिक मंदी से कमज़ोर होती चली गईं। युद्ध वैसे भी कमर तोड़ देने में कोई कमी नहीं करता। रूस ने रियायती दर पर अपना कच्चा तेल बेचना शुरू कर दिया। भारत ने भी इस अवसर का लाभ उठाया।
अमरीका ने रूस को बदनाम करने की कोशिश जारी रखी। उसे केवल जी-7 देशों और कुछेक अन्य देशों का सहयोग भी मिला। कुछ देशों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। बताया जा रहा है कि पिछले तीन दशकों में अमरीकी साम्राज्यवाद का दुनिया की अर्थ-व्यवस्था पर काफी दबदबा रहा है। अमरीकी डॉलर पर अपने वर्चस्व अन्तर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला पर नियंत्रण और मनमाने ढंग से देशों पर प्रतिबंध लगाकर अपनी ताकत का प्रचार करता रहा है। 
पिछले तीन दशकों से उसने एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का भरपूर लाभ लिया है। इन साधनों ने रूस-चीन की अपेक्षा अमरीका को मज़बूत स्थिति दी है। नव-उदारवादी व्यवस्था का सबसे अधिक लाभ अमरीका को ही मिला है लेकिन कहा जाता है कि दुनिया हमेशा कुछ साधन सम्पन्न देशों की इच्छा से नहीं चलती। चीन भी नव-उदारवादी व्यवस्था का लाभ उठाकर पूंजीवादी विकास में आगे जा रहा है और अमरीका के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है। इस समय युद्ध एक ़खतरनाक स्थिति पर है और यह युद्ध रुकना चाहिए।