कित्तूर की रानी चेन्नम्मा जिन्होंने 1857 से पहले ही छेड़ दी थी जंग

 

कर्नाटक के बेलगाम ज़िला स्थित कित्तूर राज्य की इस रानी ने अंग्रेजों की हड़प नीति के विरुद्ध आज़ादी की पहली लड़ाई शुरू होने के 33 साल पहले ही अंग्रेजों के विरुद्ध जंग का डंका बजा दिया था और वह भी किसी जवानी के जोश में नहीं बल्कि 50 साल की परिपक्व उम्र में जबकि उन दिनों आम लोगों की औसत उम्र ही 32 साल हुआ करती थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि रानी चेन्नम्मा का साहस कितना ठोस और कितना सुगठित रहा होगा। हालांकि वह अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष में पराजित हो गईं और फिर अंग्रेजों की जेल में ही प्राण त्यागे लेकिन उन्होंने अपना बलिदान देकर करोड़ों भारतीयों में गुलामी के विरूद्ध उठ खड़े होने का जज़्बा भर दिया था।
रानी चेन्नम्मा को देश की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी भी माना जाता है। कहा जाता है कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हीं से अंग्रेजों के विरुद्ध टकराने का जज़्बा हासिल किया था। गोकि रानी चेन्नम्मा की तरह ही रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजों को मात नहीं दे सकीं, लेकिन अपने साहस और कौशल से इन दोनों रानियों ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। 
रानी चेन्नम्मा का जन्म मौजूदा कर्नाटक राज्य के बेलगाम शहर के पास स्थित एक गांव ककाति में सन 1778 को हुआ था। कम उम्र में ही उन दिनों की तरह उनकी शादी हो गई और कम उम्र में ही वह मां भी बन गईं, लेकिन दुर्भाग्यवश पहले उनके पति और फिर बेटे का निधन हो गया। इस तरह अंग्रेजों ने उत्तराधिकारी न होने के चलते उनकी रियासत को हड़प लिया। इस पर रानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजों के विरुद्ध जंग का ऐलान कर दिया। बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी में विशेष पारंगत होने के कारण एक साधारण घर में पैदा होने के बावजूद उनकी शादी कित्तूर राजघराने में हुई थी। जब उनके पति मलासारजा और पुत्र की मौत हो गई तो उन्होंने शिवलिंगप्पा को अपना उत्तराधिकारी बनाया, मगर अंग्रेजों ने इसे अस्वीकार कर दिया। फलस्वरूप अंग्रेजों और इनके बीच जबरदस्त जंग हुई। माना जाता है कि 1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तर और पूर्वी भारत में विद्रोह छिड़ा तो उसकी पृष्ठभूमि में रानी चेन्नम्मा की साहस कथा ही थी। उन्होंने सिर्फ डॉक्ट्रिन ऑफ  लेप्स का ही विरोध नहीं किया था बल्कि अंग्रेजों की भेदभावभरी कर संग्रह प्रणाली की भी मुखर आलोचना की थी। जब अंग्रेजों के साथ उन्होंने जंग की तो अंग्रेज उनके अपूर्व शौर्य का देखकर हत्प्रभ रह गये। हालांकि विशाल और संगठित अंग्रेजी सेना का रानी चेन्नम्मा देर तक मुकाबला नहीं कर सकीं, लेकिन उन्होंने जिस अद्भुत जुनून के साथ यह जंग की, अंग्रेज भी उनके मुरीद हो गये। उन्हें कैद करके बेलहोंगल किले में रखा गया।
माना जाता है कि अंग्रेज उन्हें सजा-ए-मौत नहीं देना चाहते थे जबकि उन दिनों अंग्रेजी राज्य का विरोध करने के एवज में विद्रोहियों को तोप के मुंह बांधकर उड़ा दिया जाता था, लेकिन जिन अंग्रेज सैनिकों ने रानी चेन्नम्मा की सेना और अकेले रह जाने पर भी उनके साहस भरे रणकौशल को देखा था, वे अंग्रेज रानी की जान नहीं लेना चाहते थे। वे शायद रानी चेन्नम्मा को छोड़ भी देते, लेकिन 21 फरवरी 1829 में वह अपनी बैरक में ही मृत पायी गईं। कुछ लोगों का अनुमान है कि उन्होंने अंग्रेजों के हाथों से मारे जाने के बजाय अपने हाथों से ही अपना खात्मा कर लिया था, लेकिन वह पीछे अपने साहस की जो कहानी छोड़ गईं, बाद में उसने हजारों हिंदुस्तानियों को प्रभावित किया। उन्हीं के रास्ते पर चलने का संकल्प हजारों हिंदुस्तानियों ने लिया।
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