स्नेह का सागर होती हैं बेटियां

वर्षों पहले जब हमारे यहां पहला बच्चा होने वाला था तो हम पति-पत्नी की तीव्र अभिलाषा थी कि वह बेटी हो। बच्चा और विशेषकर पहला बच्चा खिलौना होता है। बिटिया को रंग बिरंगे फ्राक, रिबन, चूड़ियां, पायल आदि पहना कर आप गुड़िया सा सजा सकते हैं। बेटे को लड़कों जैसा पहनावा ही तो पहनाएंगे। बेटियां मां का रूप ही नहीं होतीं। उन में शुरू से ही ममता, करूणा, स्नेह और प्यार की भावनाएं प्रबल होती हैं।  हर घर में देखने में आता है कि भाई आयु में छोटा होते हुए भी बहन को पीट लेता है। उसके हिस्से की वस्तुएं छीन लेता है। भाई को राखी बांधते हुए या भैयादूज का टीका करते हुए किसी भी बहन के चेहरे की आभा दिव्य और वात्सल्य असीम होता है। बेटियां बचपन से ही मां का सहारा बनती हैं। उसका हाथ बटाती हैं। विवाहोपरांत ससुराल जाने और अपने घर परिवार वाली हो जाने पर भी उनका लगाव मायके के प्रति वैसा और उतना ही बना रहता है। मनोवैज्ञानिक धारणा है कि बेटियों की आत्मीयता पिता के प्रति अधिक होती है। बेटे और बेटी में भेदभाव उनके जन्म से ही आरंभ हो जाता है। लाड़-प्यार हो, खिलाना-पिलाना हो, पहनाना-ओढ़ाना हो, शिक्षा की बात हो, कुछ भी हो, हर बात में वरीयता और प्राथमिकता बेटे को ही दी जाती है। मजे की बात यह है कि इस अन्यायपूर्ण भेदभाव में मां स्वयं एक स्त्री हो कर भी आगे रहती है। वही हर घड़ी बेटी को कोसती, डांटती और प्रताड़ित करती रहती है। सही या गलत, हर बात में बेटे का ही पक्ष लेती है। स्वयं जो अन्याय एक लड़की होने के नाते उस ने सहा था, बजाय उसका प्रतिकार करने के वही परंपरा और परिपाटी वह अपनी बेटी के साथ भी निभाती चलती है। उचित होगा अब हम भी अपने दृष्टिकोण को बदल डालें। बेटे और बेटी के भेदभाव को तिलांजलि दे दें। सदियों से चले आ रहे इस अन्याय का अंत कर डालें। वैसे अब बड़े शहराें में पढ़े लिखे माता-पिता बेटी-बेटे की परवरिश में अंतर कम रखते है पर छोटे शहरों और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में सुधार की आवश्यकता है। (उर्वशी)