नीलगिरी सफेदे का पेड़ यानी यूकेलिप्ट्स

उत्तर भारत में इसे सफेदा भी कहते हैं। कभी दलदली जमीन को सूखी जमीन में बदलने के लिए अंग्रेज इसे ऑस्ट्रेलिया से भारत लाए थे। निश्चित रूप से इस पेड़ के कई कारोबारी और औषधीय फायदे हैं। लेकिन पर्यावरण के लिहाज से यह  प्रकृति का दुश्मन है। क्योंकि यूकेलिप्ट्स या सफेदा धरती से बहुत बड़ी मात्रा में पानी सोखता है, जिस कारण इर्दगिर्द मौजूद पेड़ों को यह सुखा डालता है तथा अच्छी खासी जमीन को धीरे-धीरे बंजर जमीन में बदलने लगता है। इसलिए इसे उपजाऊ जमीन में लगाने से मना किया जाता है। लेकिन इसके कई सारे व्यापारिक फायदे हैं, जिसकी वजह से पर्यावरणविदों के कहने और लगातार इस बारे में लोगों द्वारा आगाह किए जाने के बाद भी लोग इसे अपने उपजाऊ खेतों के इर्दगिर्द लगाने से बाज नहीं आते। क्योंकि यह पेड़ बहुत तेज़ी से बढ़ता है और भारत में इसकी जो करीब 170 प्रजातियां मौजूद हैं, उनमें से ज्यादातर आगरोधी भी है यानी आग लग जाए तो भी यह पेड़ पूरी तरह से नष्ट नहीं होता। क्योंकि इमारती लकड़ी में इसका काफी ज्यादा उपयोग है और यह बहुत तेज़ी से बढ़कर महज पांच साल में 15 से 30 मीटर तक ऊंचा हो जाता है इसलिए इससे लोगों को अच्छी खासी आय हो जाती है। नतीजतन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के बावजूद लोग इसे लगाने से बाज नहीं आते।
उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में इसे किसान अपने खेतों की मेड़ पर या किनारे-किनारे लगा लेते हैं। जीटी रोड के दोनों तरफ भी बड़े पैमाने पर इसे लगाया गया है, जो पर्यावरणविदों को बहुत सालता है। वैसे भारत में इसकी मौजूदगी का इतिहास को लेकर दो बातें हैं- कहा जाता है सबसे पहले भारत में यूकेलिप्ट्स 1790 में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने अपने निजी संपर्कों के जरिये इसे ऑस्ट्रेलिया से मंगवाया था और इसे बेंग्लुरू के पास नंदी पहाड़ियों पर स्थित अपने महल के बगीचे में लगाया था। ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक टीपू सुल्तान ने ऑस्ट्रेलिया से इसकी 16 प्रजातियों के बीज मंगवाये थे। नंदी हिल्स में रोपण के बाद इसे 1843 तमिलनाडु की पहाड़ियों खासकर नीलगिरि में लगाया गया, जहां इसका उद्देश्य जलाऊ लड़की हासिल करना था। आज़ादी के बाद सन् 1954-55 में नंदी पहाड़ियों पर उगाये गये नीलगिरि के इन पेड़ों के हर्बेरियम नमूनों को ऑस्ट्रेलिया भेजा गया था, जहां से इसकी विभिन्न संकर किस्मों के बारे में पता चला था। 1877 में मालाबावी के जंगलों में पहली बार अंग्रेजी शासन के वन विभाग द्वारा इसे देवरायदुर्ग, तुमकुर के इलाके में बड़े पैमाने पर लगाया गया था।
आज देश में इसकी जितनी प्रजातियां हैं, उनमें सबसे पसंदीदा हाइब्रिड ई. टेरिटिकोर्निस है जिसे मैसूर गोंद के नाम से भी जाना जाता है। तमिलनाडु के वन विभाग द्वारा नीलगिरि में इसका एक बड़ा बागान खड़ा किया है, जिसमें करीब 10 लाख पेड़ हैं। साथ ही करीब 600 करोड़ इसके पेड़ आम लोगों द्वारा अलग-अलग जगहों पर लगाये गये हैं। क्योंकि इसकी लकड़ी की काफी मांग है। जबकि पर्यावरण के लिहाज से यह पेड़ बहुत नुकसानदायक है। मगर अपनी इस कारोबारी सफलता के कारण यह भारत में दिनोंदिन बढ़ रहा है और जिन भी क्षेत्रों में इसकी मौजूदगी ज्यादा से ज्यादा है, वहां भू-जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। यह ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया इलाके का मूल पेड़ है, वहां पहले से ही दलदली जमीन है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया हो या अफ्रीका या फिर दक्षिण यूरोप ही क्यों न हो, हर जगह इसे बड़े पैमाने पर लगाया गया है। क्योंकि एक तो यह बहुत लम्बा और बहुत पतला पेड़ होता है, जिससे यह जमीन कम घेरता है, आसमान की तरफ ऊंचे पहुंच जाता है। इसे इमारती लकड़ी के रूप में बेंचना बहुत आसान होता है। जिन इलाकों में यूकेलिप्ट्स को बड़े पैमाने पर कारोबार के लिहाज से लगाया जाता है, वहां इनकी खूब खरीद फरोख्त होती है। दरअसल दुनियाभर में जिन थोड़े से पेड़ों को कागज की लुग्दी के लिए सबसे उपयुक्त पेड़ पाया गया है, वह यही यूकेलिप्ट्स या सफेदा है। जिसे पर्यावरणविद न लगाने के लिए कहते हैं।
वैसे इसके बहुत सारे औषधीय फायदे भी हैं। यूकेलिप्टस  की पत्तियां नुकीली होती हैं, जिनकी सतह पर गांठ होती है और इन गांठों पर तेल होता है यह तेल बहुत सारी दवाओं को बनाने के काम आता है। यूकेलिप्टस का तेल जितना पुराना होता जाता है, उसका औषधीय असर उतना ही बढ़ता जाता है। कई लोग इसकी पत्तियों की चाय बनाकर भी पीते हैं, जो भरपूर ताजगी देने वाली होती है। दुनियाभर में यूकेलिप्टस की करीब 600 प्रजातियां हैं। यूकेलिप्ट्स के तेल का इस्तेमाल एंटीसेप्टिक और उत्तेजक औषधीयों को बनाने में होता है। मजे की बात यह है कि यूकेलिप्टस के तेल की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। यूकेलिप्टस के तेल का इस्तेमाल इंफेक्शन, बुखार, श्वांसतंत्र की एलर्जी और अस्थमा में, काली खांसी की समस्या की समस्या से निपटने में, टीबी में, ऑस्टियोआर्थराईटिस में, मुंहासे, डेंटल प्लेंक, कैंसर, भूख न लगने की समस्या और दाद से निपटने में भी यूकेलिप्ट्स या सफेदा का पेड़ बहुत खास होता है। लेकिन यह उपजाऊ जमीन में जब लगाया जाता है तो किसानों को तात्कालिक रूप से नगदी कमाईयां कराता है लेकिन यह उस इलाके के भू-जल को बड़े पैमाने पर कम कर देता है, इसलिए इसके सारे फायदों के बावजूद इसके रोपण बचना चाहिए।

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