‘सजन मेरे रंगुले जाए सुते जीराणि’

पिछले दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। बुरी बात यह कि इन दिनों में मेरे कई साथियों का निधन हो गया। मैं उनके श्रद्धांजलि समारोहों में भी नहीं जा सका। 
प्रगतिशील एवं प्रतिबद्ध पंजाबी लेखर हरभजन सिंह हुंदल मेरी उम्र था। उसके बुज़ुर्गों को अंग्रेज़ सरकार द्वारा अलाट की गई भूमि पाकिस्तान में रह गई। बंजर को कृषि के योग्य किया तो सन् 47 के देश के विभाजन के बाद सब कुछ छोड़ कर इधर फत्तूचक्क (कपूरथला) आकर डेरा लगाया। हुंदल पूरी आयु प्रगतिशील साहित्य व सभ्याचार से जुड़ा रहा। उधर से इधर आने वाला शिवनाथ भी मेरी उम्र था जिसने स्वाभाविक रचनाकारी से पाठकों का मन मोह लिया। वह सदा साइकिल पर सवार मिलता या फिर कापी, कलम लेकर किसी न किसी पेड़ की नीचे बैठा देखा जाता। उसकी कविताएं व कहानियां पेडों को आने वाले बूर जैसी होतीं।  
चले गए मित्रों में से दो रूहों का संबंध मेरी पढ़ाई के शुरुआती दिनों से है। उनमें से गांव बाहोमाजरा में जन्मे जस्टिस सुखदेव सिंह कंग की जीवन साथी रणबीर कौर मेरी बहन जैसी भाभी थी। मैंने भी मिडल तक की पढ़ाई बाहोमाजरा गांव में रह कर ए.एस. हाई स्कूल खन्ना से की थी जहां सुखदेव सिंह तथा उसके छोटे भाई दविन्दर सिंह व राजिन्द भी पढ़ते थे। मेरी मौसी के उस परिवार के साथ बहुत अच्छे संबंध थे। उनके पिता प्रीतम सिंह ने निकटवर्ती गांव लिबड़ा वालों के साथ मिल कर ट्रांस्पोर्ट का कारोबार किया और अपने बेटों को उच्च शिक्षा के योग्य बनाया। 
दविन्दर सिंह और राजिन्दर मेरे समकक्षों के समान थे। दविन्दर ने उन्नत कृषि में उपलब्धि हासिल की और ब्लाक समिति का कर्ताधर्ता भी रहा, जिस नाते मेरे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना में सेवाकाल के समय मुझ से जुड़ा रहा। 
तीसरी शख्सियत पूर्व डिप्टी स्पीकर बीर दविन्दर सिंह थे जिनके मेल-मिलाप व विनम्रता का मैं प्रशंसक रहा हूं। उनके अंतिम दिनों में मुझे पता चला कि उनकी भी बाहोमाजरा गांव की बेबे ईशर कौर के साथ नज़दीकी रिश्तेदारी थी। हम जल्द ही एक-दूसरे के साथ मिल बैठने का कार्यक्रम बना रहे थे कि वह अचानक ही अलविदा कह गए।
परमात्मा सभी की आत्मा को शांति बख्शे।
सरवण सिंह व उसका रचना संसार
सरवण सिंह रेखा चित्र लिखे, जीवन-वृत्त, आत्मकथा या सफरनामा उसकी वार्तक में ग्रामीण विनम्रता व बादशाही होती है। उस शहद के छत्ते जैसी जिसकी मक्खियां शहद बांटती हैं, डंक नहीं मारतीं। मैं दिल्ली से उसकी रचनाओं का अनुसरण कर रहा हूं। उसने अपने प्राथमिक रेखा चित्रों में एक खिलाड़ी को ‘धरती धक्क’ कहा था और एक अन्य को ‘मुड़के दा मोती’ उसकी लिखने की शैली में भी ये दोनों गुण प्रमुख थे। 
वह मेरे दिल्ली के मित्र प्रीतम सिंह का विद्यार्थी था जो मेधावी विद्यार्थियों का मार्ग-दर्शक था। शहद निकाले वालों का पारखी। खेल जगत के साथ अपने मोह-प्यार के कारण प्रीतम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में डायरैक्टर फिज़ीकल एजुकेशन के पद तक भी पहुंचा। मैं उसके परिवारिक सदस्यों के समान था। सरवण मुझ से अधिक। 
पंजाबी का शायद ही कोई प्रकाशक हो जिसने सरवण की रचनाकारी को गर्व से प्रकाशिक न किया हो। नवयुग प्रकाशक दिल्ली से लाहौर बुक शॉप तक। संगम पब्लिशर्स समाना तथा बरगाड़ी वालों सहित। ‘मेरी कलम दी मैराथन’ के साथ उसकी पुस्तकों की संख्या 50 हो चुकी है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई अन्य प्रकाशित हो जाए तो हैरान न होना। सरवण ने बचपन में पशु भी चराए, किशोर अवस्था में मुरब्बेबंदी के माध्मय से आई हरित क्रांति भी देखी और अपने खुले स्वभाव के कारण खेलों, खिलाड़ियों के अतिरिक्त  साहित्य व सभ्याचार के महारथियों की संगत का भी आनंद लिया, जिन्हें अपने शब्द-चित्रों में ‘पंजाब दे कोहेनूर’ नाम दिया। 
वह शब्दों का खिलाड़ी है। मिलखा सिंह को ‘उड़न सिख’ कहने वाले तो बहुत थे परन्तु प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. सरदारा सिंह जौहल को ‘कृषि अर्थ-व्यवस्था का ध्रुव तारा’ कहने वाला केवल सरवण सिंह ही है। भारत के एशियाई खेलों और मुम्बई की विश्व हाकी ही नहीं, उसकी कलम ने कनाडा की पतझड़ के रंग भी खूब पढ़े हैं। एशियाई खेलों के बारे उसके शब्द व शैली नोट करें। 
एशियाई खेलों का उद्घाटन समारोह शुरू हुआ तो प्रैस बाक्स में मेरे आस-पास के पूर्व एशिया की गोरी-पीली कौमों के चपटे नाक तथा टोपीदार आंखों वाले मीडियाकार ही नहीं अरब देशों के सफेद चोले वाले पत्रकार भी बैठे थे। आसमान में भी बादल उमड़ आए थे, जैसे उन्होंने भी खेलों के उद्घाटन की रौणक देखनी हो। 
सरवण सिंह की शैली में ग्रमीण शब्दावली राज करती है। सिर्फ कबड्डी के खेल बारे लिखते हुए उसने दो दर्जन शब्द पंजाबी की झोली में डाले थे। धोबी पटड़ा सहित खेल, खिलाड़ियों के बारे लिखता वह साहित्यिक लेखन के राह पर कैसे आ गया, उसकी ताज़ा पुस्तक बताती है। यह केवल उसकी कलम की मैराथन न होकर आत्मकथा भी हो निपटती है। उसकी आत्मकथा ‘हसंदिया खेलंदिया’ का अगला भाग।
आजकल वह अपने नाम के साथ प्रिंसीपल लिखने लग पड़ा है। इसकी क्या ज़रूरत पड़ गई, वहीं जाने। वह पंजाबी की रचनाकारी में गुरबख्श सिंह, नानक सिंह व जसवंत सिंह कंवल का स्नेह प्राप्त किया है। याद रहे कि वह मुकंदपुर से पहले ढुडिके के कालेज में प्रिंसीपल रहा है। ‘मेरी कलम दी मैराथन’ वाला प्रिंसीपल सरवण सिंह। 
पंजाबी ट्रिब्यून के 45 वर्ष
इस माह पंजाबी ट्रिब्यून के प्रकाशित होते 45 वर्ष हो गए हैं। इसे सलामत करने वालों में एम.एस. रंधावा प्रमुख थे और दिशा देने वाले सम्पादकों में बरजिन्दर सिंह हमदर्द, जिसे आगे चल कर सुरिन्द्र सिंह तेज ने खूब निभाया।    
अंतिका
(मिज़र्ा ़गालिब)
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल 
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।