दल-बदल कानून पंचायतों व नगर निगमों तक लागू क्यों नहीं ?

पंजाब सरकार ने गत 10 अगस्त को  सभी पंचायतें भंग कर दीं थी। इस उपरान्त मामला अदालत में जाने के बाद सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। जो स्थानीय स्वशासन है, उसका समय पर और सही ढंग से चुनाव होना जनता के हित में होता है। आम जनता की पहुंच प्रशासकीय अधिकारियों तक नहीं होती। अपने क्षेत्र के पंच-सरपंच, नगर पार्षद आदि तक आसानी से होती है। दुर्भाग्य से रुझान यह बन गया है कि बहुत-से गांवों के चुने हुए पदाधिकारी भी शहरों में बड़े-बड़े बंगले बनाकर रहते हैं और नगर निगमों के पार्षद भी जनता की पहुंच से धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं। कानून ऐसा होना चाहिए कि जो दल बदलता है, उसकी सदस्यता तुरंत समाप्त हो जाए। एक वर्ष देखें में ऐसे बहुत-से पार्षद हैं जिन्होंने अपनी पार्टी बदली और दूसरी पार्टी में चले गए। 2022 के चुनाव से पहले ही अमृतसर नगर निगम में भी दल-बदल के कारण कांग्रेस का नगर निगम ‘आप’ पार्टी का हो गया और वही मेयर ‘आप’ का मेयर बनकर नगर निगम पर पूरा समय शासित रहा। यद्यपि उसकी पार्टी ‘आप’ बन गई और उनके साथ ही बहुत-से पार्षदों ने दल बदल लिया। चंडीगढ़ के निगम में भी दल-बदल के कारण सारा परिवर्तन हो गया। एक व्यक्ति का दल बदलना पूरी व्यवस्था को बदल देता है। इन दिनों भी पंजाब के होशियारपुर, मोगा आदि शहरों में ‘आप’ पार्टी का वर्चस्व पार्षदों के दल-बदल के कारण ही हुआ। निश्चित ही चुनाव आयोग और संसद को यह ध्यान रखना चाहिए कि अपने दल और जनता से वफादारी बदलने वालों का स्थान दूसरी पार्टियों में न हो, इसके लिए दल-बदल कानून को पंचायत तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। वैसे यह बुराई पूरे देश में है। पूरा वर्ष ऐसे समाचार मिलते रहते हैं कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जनता से किए वचन ही नहीं भूलते, अपितु यह भी भूल जाते हैं कि किस दल और किस नेता का गुणगान करते हुए वे जनप्रतिनिधि बने हैं। उसके पश्चात वे जनप्रतिनिधि नहीं केवल पार्षद, पंच या सरपंच रह जाते हैं। जब राजीव गांधी ने स्थानीय स्वशासन में पंचायत से लेकर नगर निगम तक महिलाओं को आरक्षण का अधिकार दिया था, उनके लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित की गईं थी, तब यह लगा था कि यह बहुत बड़ा अवसर महिलाओं को राजनीतिक जीवन में प्रभावी स्थान देने के लिए दिया गया है, परन्तु यह भी लगभग पूरे देश में प्रभावी नहीं हो सका। 
सीधी बात यह है कि यह आरक्षण महिलाओं को नहीं मिला, अपितु उन परिवारों को मिला जो सभी दलों के नेताओं के चहेते थे, ज्यादा प्रभावी कार्यकर्ता या नेता थे अथवा जिनको चुनाव में टिकट देने से उनकी जाति विशेष के वोट मिल सकते थे। मतलब यह कि महिलाओं का नाम तो आरक्षण के लिए प्रयोग में लाया गया, परन्तु वास्तव में सत्ता का केंद्र पुरुष वर्ग ही रहा। महिलाओं के साथ एक तरह से अन्याय किया गया। जो वार्ड महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, वह पांच वर्ष का समय पूरा होते-होते उनके लिए आरक्षित नहीं रहती, उसे जनरल वार्ड कहा जाता है। वहां से महिला या पुरुष कोई भी चुनाव लड़ सकता है। जो महिलाएं चुनाव जीतती हैं, उनको क्षेत्र में उनकी पहचान बनाने देने के स्थान पर उनके परिवार के पुरुष कार्यकर्ता ही कार्य क्षेत्र में, सरकारी तंत्र में अपना प्रभाव जमाते हुए दिखाई देते हैं। उन्हें अगला चुनाव लड़ने के लिए तैयारी का अवसर मिल जाता है। बहुत वर्ष पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने एक कानून बनाया था। उसका अभिप्राय यह था कि महिलाओं के साथ या उनके स्थान पर किसी भी सरकारी मीटिंग में उनके पति नहीं उपस्थित रह सकेंगे, परन्तु यह कानून भी कागज़ों तक सीमित रह गया। अति तब हो गई जब यह देखने को मिला कि सरपंच या पार्षद की स्टैंप जेब में डाले ये सरपंच पति और पार्षद पति सारा काम स्वयं करते हैं, उनकी जगह हस्ताक्षर भी खुद करते हैं। 
कुछ पार्षद पति छिप-छिपा कर नहीं, अपितु सरेआम अपनी पार्षद पत्नियों के हस्ताक्षर स्वयं कर देते हैं। यह सब जानते हुए भी सरकारें, अधिकारी और दूसरे नेता अनजान बने रहते हैं। अपराध के साक्षी होते हैं और उन्हें अपराधी कहने का साहस नहीं कर पाते। आज भी जब अमृतसर नगर निगम अस्तितत्व में नहीं है, बहुत-सी महिला पार्षदों के पति मंच पर स्वयं को पार्षद कहकर सम्मान करवाते, भाषण झाड़ते और सरकारी दफ्तरों में घूमते हैं। ऐसे लोगों को अयोग्य करार क्यों नहीं दिया जाता? जो महिलाएं किसी विवशता या पारिवारिक क्लेश के कारण अपनी सत्ता परिवार के या पार्टी के पुरुषों को सौंप देती हैं, उनको चुनाव लड़ने के अयोग्य करार देना चाहिए। जो महिला पार्षद या सरपंच दल बदलती हैं, इसमें उनकी इच्छा या अनिच्छा का कोई प्रश्न नहीं होता। उनकी स्टैंप जेल में डालकर चलने वाले पति किसी दूसरी पार्टियों में शामिल हो जाते हैं। वे बेचारी नई पार्टी का झंडा हाथ में उठाकर उस पार्टी की हो जाती हैं। 
संसद और चुनाव आयोग को गंभीरता से इस पर विचार करना चाहिए। जनता को सबसे ज्यादा अपने प्रतिनिधियों की आवश्यकता गांवों व शहरों में काम करवाने के लिए होती है। अगर गांव-शहर, गली-बाजार में सफाई नहीं, नल का पानी पीने योग्य नहीं, सीवरेज का पानी सड़कों पर बहता है या जलजनित बीमारियां फैलती हैं तो उन तक लोगों आवाज़ कौन पहुंचाए, क्योंकि महिलाएं चुनाव जीतकर भी पार्षद नहीं होंती।
भारत सरकार से यह विशेष आग्रह है कि जहां-जहां जनता मतदान कर अपने प्रतिनिधि चुनती है, उसी स्तर पर दल-बदल कानून सख्ती से लागू हो और महिलाएं अपना कार्य क्षेत्र चुनने और जन-प्रतिनिधि के नाते काम करने में स्वतंत्र हों। ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए जो महिलाएं स्वयं काम नहीं कर रहीं, उन्हें अगले चुनाव के लिए अयोग्य ठहराया जाए और जो पुरुष अपने परिवार की पार्षद महिला के हस्ताक्षर स्वयं करते हैं, उनके स्टैंप और नाम का दुरुपयोग करते हैं, उन पर आपराधिक केस दर्ज किया जाना चाहिए।