संघवाद की भावना बनी रहे

पिछले कुछ दिनों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का समर्थन करने तथा इस संबंध में केन्द्र सरकार द्वारा पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में समिति बनाने से देश में इस संबंधी व्यापक स्तर पर चर्चा भी शुरू हो गई है। हम इस चर्चा को कोई नया नहीं समझते। पूर्व की सरकारों के शासन में भी इस मुद्दे पर समय-समय पर चर्चा चलती रही है। इस विषय की जांच-पड़ताल संबंधी भिन्न-भिन्न अंतराल में तीन समितियों का भी गठन किया गया था, जिनके विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श के बाद लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक ही समय पर करवाए जाने की वास्तविक समस्याओं के दृष्टिगत इस विचार को रद्द कर दिया था। 
यदि देश में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनावों के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ये चुनाव 1967 तक एक साथ ही होते रहे हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद लिखित संविधान को अपनाये जाने के बाद पहले आम-चुनाव 1952 में, दूसरे आम चुनाव 1957 में, तीसरे चुनाव 1962 में तथा चौथे चुनाव 1967 में करवाए गए थे। उस समय लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक ही समय में होते रहे थे, परन्तु उसके बाद कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग हो गई थीं। 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई थी, जिस कारण क्रियात्मक रूप में पहली परम्परा खत्म हो गई, परन्तु प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता सम्भालते ही एक ही समय में लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव करने की इच्छा प्रगट करनी शुरू कर दी थी। 
अब इस संबंध में गठित की गई समिति में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इसका प्रमुख बनाया गया है। कोविंद स्वयं भी इस संयुक्त चुनाव प्रक्रिया के पक्ष में रहे हैं। उन्होंने राष्ट्रपति होते हुए संसद को सम्बोधित करते अनेक बार अपने ऐसे विचारों का प्रगटावा किया था तथा कहा था कि इससे चुनावों में व्यापक स्तर पर किया जाता खर्च कम हो जाएगा तथा समय-समय पर देश भर में होते चुनावों से पहले लगाई जाती चुनाव आचार संहिता से विकास के काम भी रुके रहते हैं। संयुक्त चुनाव होने से ऐसी स्थिति बार-बार नहीं आएगी। वर्ष 2018 में केन्द्रीय कानून आयोग द्वारा तैयार किए गए एक प्रारूप में भी ‘एक देश, एक चुनाव’ का समर्थन किया गया था। आयोग ने कहा था कि यदि लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ करवाये जाते हैं तो अधिक समय विकास कार्यों पर लगाया जा सकता है। एक साथ चुनाव करवाने से जनता का पैसा भी बचेगा। प्रशासनिक तथा सुरक्षा बलों पर भी कम दबाव पड़ेगा, परन्तु दूसरा पक्ष यह भी है कि अब देश में जिस तरह का संघीय (फैडरल) ढांचा बन चुका है, उसमें ऐसा विचार क्रियान्वयन में ला पाना बेहद कठिन है। 
यह एक ऐसा विचार है, जिस पर देश में प्रत्येक स्तर पर लम्बे विचार-विमर्श की ज़रूरत है। इसके लिए सभी राजनीतिक पार्टियों का एक स्वर होना भी ज़रूरी है तथा इसके अलावा चुनाव प्रक्रिया से संबंधित सभी हितधारकों की भागीदारी भी बनाई जानी आवश्यक है। लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं। देश की दो दर्जन से अधिक राजनीतिक पार्टियां भाजपा के विरुद्ध एक मंच पर एकजुट होने का यत्न कर रही हैं। ऐसे समय में सरकार द्वारा इस बेहद आधारभूत प्रजातंत्रीय ढंग-तरीके संबंधी उन्हें विश्वास में न लेने को लोकतांत्रिक भावना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस संयुक्त मंच पर एकजुट हुईं ज्यादातर पार्टियों के नेताओं ने इस घोषणा संबंधी आलोचनात्मक व्यवहार धारण कर लिया है। यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति कोविंद के नेतृत्व वाली समिति के सदस्यों की घोषणा के बाद लोकसभा में विपक्ष के नेता तथा कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस उच्च स्तरीय समिति में शामिल होने से ही इन्कार कर दिया है। इस मामले पर लोकसभा चुनाव निकट होने के कारण सरकार की नीयत पर भी सन्देह किया जाने लगा है। यह भी कि सरकार ऐसे मामले उठा कर विपक्षी पार्टियों के एक मंच पर एकजुट होने के यत्न को असफल करने के प्रयास में है। ऐसे विरोध के चलते इस संबंधी कोई समाधान हो पाना बेहद कठिन है क्योंकि शेष विपक्षी पार्टियों तथा खास तौर पर क्षेत्रीय पार्टियों ने इसे भारतीय संघवाद का क्षरण करने की कोशिश बताया है।
 केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने भी इस संबंध में स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस धारणा को लागू करने के लिए संविधान की कम से कम पांच धाराओं में संशोधन करना पड़ेगा। इसमें संसद के सदनों की अवधि से संबंधित धारा-83, राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा भंग करने तथा संबंधित धारा-85, विधानसभाओं की अवधि से संबंधित धारा-172, राज्य विधानसभाएं भंग करने से संबंधित धारा-174 तथा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने से संबंधित धारा-356 में संशोधन करना पड़ेगा, परन्तु इसके साथ ही केन्द्रीय मंत्री ने यह भी कहा है कि इसके लिए सभी राजनीतिक पार्टियों में आम सहमति बनानी होगी। समय की नज़ाकत को देखते हुये इस समय ऐसी घोषणा सरकार की नीयत पर सन्देह करने वाली बन जाती है, क्योंकि इसे एक सीमित समय में क्रियान्वयन करना कठिन है तथा इस संबंध में चर्चा किसी निर्णायक चरण पर पहुंचने से पहले जल्दबाज़ी मेें कोई बिल लाना ़गैर-संवैधानिक होगा तथा वह बड़े संवैधानिक टकराव का भागी बन सकता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द