‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ : बेमतलब का मुद्दा गढ़ रहा है विपक्ष

विपक्ष शायद सुर्खियों में बने रहने के मोह के कारण या अपनी अतिरिक्त राजनीतिक सजगत के चलते भाजपा और उसके समर्थक देश के बहुसंख्यक मध्यवर्ग को एक ऐसा मुद्दा थमा रहा है, जो शायद इतनी मज़बूती के साथ पहले उनके दिमाग में भी नहीं था। दरअसल देश में होने जा रहे पहले जी-20 सम्मेलन के दौरान 9 सितम्बर, 2023 का रात्रि-भोज प्रगति मैदान के जिस नये बने ‘इंटरनेशनल एग्ज़िबिशन कम कन्वेंशन सेंटर’ उर्फ ‘भारत मंडपम’ में रखा गया, उस रात्रि-भोज के लिए भेजे गये निमंत्रण पत्र में भारत के राष्ट्रपति के लिए प्रेसिडेंट ऑफ  इंडिया की बजाय प्रेसिडेंट ऑफ ‘भारत’ लिखा गया। कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक ट्वीट के मुताबिक ‘रिपब्लिक ऑफ  इंडिया’ की जगह ‘रिपब्लिक ऑफ  भारत’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। शायद भाजपा के अंदाज़ में ही मुद्दे गढ़ने की नकल में विपक्ष इतना संवेदनशील हो चुका है कि इस एक शब्द ‘भारत’ को देखते ही पैनिक मोड में आ गया और तूफान खड़ा कर दिया। सोशल मीडिया में पक्ष और विपक्ष के बयानवीरों के बीच जबरदस्त जंग छिड़ गयी है। जबकि तह में कोई ठोस बात ही नहीं है, जिसके लिए निर्मम हुआ जा सके। मगर दोनों ही तरफ  के लोग इस पर धरती आसमान एक किए हुए हैं। विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार देश का नाम बदलकर ‘भारत’ कर रही है, जबकि न तो यह बात केंद्र सरकार की तरफ  से कही गई है और न ही राष्ट्रपति भवन के द्वारा इस संबंध में कुछ कहा गया है। इसके बावजूद हर तरफ  हंगामा पसरा। शायद ही कोई ऐसा नेता हो जो बढ़ चढ़कर इस बहती गंगा में हाथ न धोना चाह रहा हो। विपक्ष के हर नेता के दिलो-दिमाग में अचानक ‘इंडिया’ शब्द के लिए इतना प्रेम उमड़ आया है कि वह इसे लेकर हल्ला मचाने से लेकर आरपार की लड़ाई लड़ने तक की दबी जुबान में बात कर रहा है।
जयराम रमेश से शुरु हुआ विपक्षी हमला तेजस्वी यादव तक  पहुंच गया है, जिन्हें हकीकत में शायद ही इस शब्द से कुछ लेना, देना हो। लेकिन वह भी आह भरकर इस मसले पर कुछ इस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं, मानो ‘भारत’ शब्द लिखे जाने से गाज गिर गई हो जबकि संविधान के पहले अनुच्छेद में ही लिखा है ‘इंडिया दैट इज़ भारत, इज़ ए यूनियन ऑफ  स्टेट्स’ यानी इंडिया जो कि भारत है, वह राज्यों का एक संघ है। आज़ादी के इतने सालों से जब हमेशा प्रेसिडेंट ऑफ  इंडिया लिखा जाता रहा, तब तो किसी ने हंगामा नहीं खड़ा किया कि जब संविधान के मुताबिक भारत के दोनों नाम हैं, तो फिर कभी-कभी प्रेसीडेंट ऑफ भारत क्यों नहीं हो सकता। अगर महज एक बार ऐसा लिखने से यह सवाल खड़ा हो सकता है, तो हज़ारों-लाखों बार वैसा लिखने पर भी तो यह सवाल किया जा सकता था। जबकि बहुत-से लोगों का यह मानना है कि इंडिया भारत का मूल नाम नहीं हो सकता, मूल तो भारत ही है तो ‘भारत’ लिखने से इतना उछलना क्यों ?  
अंग्रेज़ों से पहले तो भारत को इंडिया नहीं कहा जाता था। भले कुछ लोग भारत को इंडिया मानते रहे हों, भले कुछ लोग आज बहस करें कि यह तो सिंधु नदी के कारण है, लेकिन अंग्रेज़ों से पहले भारत के दस्तावेजों में भारत को इंडिया तो नहीं लिखा जाता था। इसलिए संविधान के इस अनुच्छेद में होना तो चाहिए था, ‘भारत दैट इंडिया’, लेकिन अब तो कुछ लोगों को भारत शब्द ही भड़का रहा है। दरअसल सुर्खियों में बने रहने के लिए गैर-ज़रूरी मुद्दे को विपक्ष देश का राजनीतिक मुद्दा बना रहा है। शायद उसे इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि इससे उसे फायदा कुछ नहीं होना, उल्टे नुकसान होना है क्योंकि देश के विशाल मध्यवर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा इस बहस से यह संदेश ग्रहण करेगा कि विपक्ष को भारत के ‘मूल’ और उसकी संस्कृति से ही चिढ़ है। ऐसा अनुमान लगा लेना कम से कम तथ्यों के आईने में गलत भी नहीं होगा क्योंकि भले निमंत्रण पत्र की यह घटना एक दुर्घटना के तौर पर पेश की जा रही है, लेकिन देश में लाखों के मन में आज़ादी के बाद से ही यह दबी इच्छा रही है कि अब भारत का नाम ‘इंडिया’ नहीं होना चाहिए क्योंकि इंडिया शब्द में अपने-आप में एक गुलामी की बू है। पिछले 76 सालों में हज़ारों आम लोग ही नहीं सैकड़ों बुद्धिजीवी भी इंडिया का नाम स्थायी रूप से भारत किये जाने की मांग करते रहे हैं। अगर संविधान में भी इस निर्णय पर पहुंचने में करीब एक साल की बहस हुई थी कि भारत का नाम अधिकृत रूप से क्या रखा जाए तो इस बात को समझा जा सकता है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी हज़ारों, लाखों लोगों के मन में यह संकल्पना थी कि आज़ादी के बाद देश का स्थायी नाम भारत हो जो राजनीतिक और राजनयिक दस्तावेजों में मान्य हो।
लेकिन अंग्रेज़ी शासन से लड़ते हुए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का भी एक तबका भारत की जगह देश के नाम को इंडिया ज्यादा मुफीद समझता था। इसलिए यह बहस एक साल तक चली और अंत में संविधान में ‘इंडिया दैट इज़ भारत’ लिखा गया। अगर इसकी जगह ‘भारत दैट इज़ इंडिया’ लिखा जाता तो माना जाता कि वे लोग बहस में इक्कीस रहे जो आज़ादी के बाद देश के नाम को मूलत: ‘भारत’ से ध्वनित होते सुनना चाहते थे, लेकिन अगर मौजूदा हंगामे को देखें तो यह बेमतलब है। विपक्ष को शायद लगता है कि वह इस हंगामे के ज़रिये भाजपा को संर्कीण राष्ट्रवादी पार्टी साबित कर देगा। उन्हें यह भी लगता है कि यह हंगामा खड़ा करके वे ऐसा माहौल बना लेंगे, जिससे कि भाजपा और उसके पीछे चलने वाला सहयोगी दल बैकफुट पर चला जायेगा।  
लेकिन यह विपक्ष का सरलीकरण है। जयराम रमेश से लेकर केजरीवाल तक चाहे जितना लच्छेदार ढंग से यह कहने का माहौल बना रहे हों कि भाजपा देश का नाम भारत के रूप में बदलने जा रही है, लेकिन जब यह बहस शुरु होगी, तो लोग इसकी तह तक जाएंगे, तब वे पाएंगे कि भारत शब्द तो इस देश की मूल सांस्कृतिक अवचेतना में है। पुराणों में एक मशहूर श्लोक है जिसका अर्थ है, जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वो भारतवर्ष है और उसमें भारत की संतानें बसी हुई हैं। क्या इस अतीत से इस देश की सांस्कृतिक अवचेतना को दूर किया जा सकता है? 
क्या भारत के अतीत में कहीं इंडिया शब्द का ज़िक्र है? अंग्रेज़ सरकार के दास्तावेजों या विदेशियों द्वारा भारत की पहचान के लिए उल्लेख किए जाने वाले शब्दों व वाक्यांशों को छोड़ दें।  विदेशी भले हमें कुछ कहते रहे हों, लेकिन देश के गहरे सांस्कृतिक अतीत में भारत शब्द बार-बार आता है और उसकी मौजूदगी बार बार दर्ज होती है। इसलिए विपक्ष को अपने पक्ष में राजनीतिक माहौल बनाने के लिए इस बेमतलब की चतुराई से बाज आना चाहिए। किसी शायर ने कितना खूबसूरत लिखा है, ‘जो आपके पास है, वो आपका है, ये भरोसा है या गलतफहमी।’ लगता है विपक्ष कुछ ज्यादा ही जल्दी में है इसीलिए गलतफहमी का चश्मा पहने बदहवास होकर भाग रहा है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर