2024 में ही करें संसद में ‘नारी शक्ति वंदन’ का प्रदर्शन

यह संयोग ही है कि 27 वर्ष पहले एच.डी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने सबसे पहले महिला आरक्षण संबंधी बिल को 12 सितम्बर 1996 में लोकसभा में पेश किया। अब 21 सितम्बर, 2023 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इसे संसद में पारित करवाया। इन 27 वर्षों में महिला आरक्षण के कानून बनाने को लेकर कई उतार-चढ़ाव संसद में देखे गए। मनमोहन सरकार ने 9 मार्च, 2010 को राज्यसभा में तो इसे पारित करवा लिया था लेकिन कुछ दलों के प्रतिरोध के कारण लोकसभा में नहीं ले जाया जा सका। संसद ने महिला आरक्षण के कानून बनाने की दिशा में वह दिन भी देखे जब अटल बिहारी वाजयेयी की सरकार ने कानून मंत्री एम, थम्बी दुरई ने यह बिल पेश किया तब राजद और सपा के सांसद इसका विरोध करने में सबसे आगे थे। राजद के एक सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने तो विधेयक की कापी स्पीकर बालयोगी से छीन ली थी। इसके बाद स्पीकर ने यह कहा कि सहमति के अभाव में यह बिल संसद में पेश करना संभव नहीं। 22 दिसम्बर, 1999 को तत्कालीन कानून मंत्री रामजेठमलानी ने इसे फिर से पेश करने की कोशिश की, लेकिन इस बार भी सपा, बसपा और राजद ने विरोध किया। वाजपेयी सरकार ने सन 2000, 2002 और 2003 में इस विधेयक को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। कांग्रेस और वामदलों के समर्थन के बावजूद हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी संप्रग सरकार ने इस विषय को अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया। कुल मिलाकर यह कि राजनीतिक दलों के अपने हित यूं कहिए कि स्वार्थ आगे रहे और महिला आरक्षण का कानून संसद में पास नहीं हो सका।
वैसे जिस देश में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी सशक्त महिला रहीं, जिस भारत में दूसरी बार भारत की एक बेटी राष्ट्रपति बनी, उस भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व दुनिया के मुकाबले 141वें नम्बर पर है। इस समय हमारी संसद में केवल 78 महिलाएं हैं जो 15 प्रतिशत से भी कम हैं। न्यूज़ीलैंड और यूएई में तो पचास प्रतिशत महिला सांसद हैं। मेरा प्रश्न यह है कि आखिर भारत की राजनीति में महिलाओं को विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व देने के लिए संसद से कानून बनने की प्रतीक्षा क्यों की जा रही है। यह ठीक है कि जब स्थानीय सुशासन में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देना था तो कोई बाधा नहीं, कोई विरोध नहीं और चाहे नाममात्र के लिए ही सही महिलाएं पंचायत से लेकर नगर निगम तक चुनाव लड़ रही हैं। सच्चाई तो यह है कि महिलाओं के चुनाव लड़ने के साथ ही सरपंच पति, पंच पति, पार्षद पति जैसे नए शब्द शब्दकोष में आ गए। इनका चलन भी होने लगा और उत्तर प्रदेश सरकार ने तो प्रधान पति कानून भी बना दिया, परन्तु वह कानून केवल कागजों में रहा। वर्चस्व पतियों का ही रहा। 
सभी राजनीतिक दलों से यह प्रश्न है कि जब वे अपनी-अपनी पार्टी के उम्मीदवार चुनावी रण में उतारते हैं तो देश का कोई कानून उनको रोकता है कि वे महिलाओं को उम्मीदवार न बनाएं? राजनीतिक दलों के संगठक बड़े नेता यह कहिए संसदीय कमेटी के सदस्य जब उम्मीदवारों की सूची सामने रखकर चयन करते हैं तो क्या कारण है कि महिलाओं को लगभग नकार दिया जाता है। क्या देश में योग्य महिलाओं की कमी है? इसका दूसरा पक्ष यह है कि क्या जितने पुरुष चुनाव लड़ते हैं, वे सभी शिक्षित हैं? कानून को समझते हैं? विधानसभा और संसद में पहुंचकर सही ढंग से जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं? ऐसा नहीं है, न ही देश में योग्य महिलाओं की कमी है। आज भारत की महिलाएं केवल भारत में ही नहीं, अपितु विश्व पटल पर प्रसिद्धि प्राप्त कर रही हैं। न्यायाधीश के रूप में, वकील के रूप में, प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों के रूप में, व्यापारी, उद्योगपति के रूप में, सेना के तीनों अंगों में सब जगह हमारी बहनें, बेटियां काम कर रही हैं। देश के कितने महानगरों और जिलों में पुलिस कमिश्नर,एसएसपी इस देश की बेटियां हैं। डिप्टी कमिश्नर बनकर पूरे विश्वास और कुशलता से प्रशासन चला रही हैं। चीफ  सेक्रेट्री हैं, डीजीपी भी हैं। बैंकिंग के क्षेत्र में भी महिलाएं अब किसी से कम नहीं। मेडिकल और कानून के विद्यालय, विश्वविद्यालयों में महिला विद्यार्थियों की संख्या बहुत है। देश भर के बड़े-बड़े अस्पतालों में विशेषज्ञ डाक्टर महिलाएं हैं। कुल मिलाकर यह कि जब महिलाएं शिक्षित, सुशिक्षित, ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में आगे हैं और अभी ताजा-ताजा गौरवमयी पृष्ठ भारत का यह भी है कि जिन्होंने चंद्रयान को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में भेजा उनमें बहुत-सी वैज्ञानिक महिलाएं हैं। ऐसे में कोई तो स्वार्थ होगा जिस कारण महिलाओं को ये राजनेता चुनावों में उम्मीदवार नहीं बनाते। इसके दो कारण दिखाई देते हैं—एक तो दल बल पर अधिकतर पुरुषों का अधिकार रहता है और दूसरा यह कि जिन हाथों में आज राजनीति की कमान है, वह यह अधिकार छोड़कर किसी महिला को नहीं देना चाहते।
बात 1998 की है। एक मीटिंग में देश के एक विशिष्ट व्यक्ति ने यह कहा कि महिला आरक्षण बिल्कुल नहीं होना चाहिए, हमारी गृहस्थी बिगड़ जाएगी। इसमें यह झलकता है पुरुष प्रधान राजनीति का वास्तविक स्वार्थ और चेहरा। देश की महिलाओं को यह समझना होगा कि वे वोट देने के लिए जाती हैं, उम्मीदवारों के लिए प्रचार भी करती हैं, गली-गली में नारे लगाकर अपने-अपने उम्मीदवार का प्रचार भी करती हैं, परन्तु उन्होंने कभी यह मांग नहीं की कि वे स्वयं चुनाव लड़ना चाहती हैं तो क्यों नहीं लड़ सकती? याद रखना होगा कि अमरीका की महिलाओं ने जो संघर्ष किया था वैसा संघर्ष आज तक भारत की महिलाएं सामाजिक व राजनीतिक क्रांति के लिए या संसद या विधानसभा में पहुंचने के लिए नहीं कर पाईं। संभवत: संस्कारों में दबी हैं। उनकी कुछ पारिवारिक विवशताएं हैं जो नगर निगम, नगर परिषद या पंचायतों में चुनाव जीत चुकी महिलाएं बार-बार प्रकट करती हैं। ऐसी बहुत कम पार्षद या पंच सरपंच हैं जो क्षेत्र में जाकर अपना काम स्वयं करती हैं। वे करना चाहती हैं, परन्तु उनके पति-पुत्र या परिवार के अन्य पुरुष सदस्य जो उसी पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ता हैं, सारा काम और सत्ता अपने हाथ में रखते हैं जिससे अगले चुनाव में क्षेत्र जब आरक्षण मुक्त हो जाएगा तो वे स्वयं इसी क्षेत्र से पार्षद या पंच सरपंच बनेंगे। जब तक महिला स्वयं अधिकार मांगेगी नहीं, मिले हुए अधिकारों का पूरा सदुपयोग नहीं करेगी, विवश होकर घर में बैठ जाएंगी और चुनाव में स्वयं उम्मीदवार बनने के स्थान पर दूसरों के लिए ही प्रचार करती और सुखना मनाती रहेगी तब तक कोई देने वाला नहीं। 
प्रधानमंत्री मोदी ने जो किया है और जो कहा कि 2029 के बाद यह कानून लागू हो जाएगा, परन्तु आशंका है कि इसमें भी कई अड़चनें आ सकती हैं क्योंकि पुरुष प्रधान राजनीति और धन व बाहुबल से जीते जाने वाले चुनावों में महिलाओं को कानून तो चाहे टिकट दे दे, लेकिन स्थानीय स्वशासन की तरह सत्ता उनके हाथों में शायद ही आ पाए।