पोक्सो पर पुन: विमर्श चाहता है विधि आयोग

ज़िला लखीमपुर खीरी में नीमगांव पुलिस सीमाओं के तहत एक गांव में 11 वर्ष की एक लड़की की इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि उसने अपनी 15 साल की बड़ी बहन को उसके 20 वर्षीय प्रेमी के साथ एक कमरे में देख लिया था। नाबालिग की हत्या उसकी बहन के प्रेमी ने ही 25 सितम्बर 2023 की रात को की थी। यहां मुद्दा बच्ची की हत्या का नहीं है, जिसके दोषी को कानून से सज़ा मिलेगी ही। बात यह है कि लड़के पर पोक्सो कानून की भी धाराएं लगायी गई हैं, जबकि 15 साल की लड़की और वह आपसी सहमति से संबंध में थे। इस तथ्य पर इसलिए बल दिया जा रहा है क्योंकि ‘बाल बलात्कार’ के अक्सर मामले वास्तव में किशोरों के बीच सहमति सेक्स के किस्से होते हैं। आजकल के किशोर टेक सेव्यी हैं और जानते हैं कि अन्य देशों में किशोरों का कैसा व्यवहार है। उनमें संकोच की मात्रा कम होती है और वे नये प्रयोग भी करना चाहते हैं।
शायद यही कारण है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी) की रिपोर्टों में ‘बाल बलात्कार’ के अधिकतर केस 15 से 18 वर्ष आयु वर्ग के होते हैं, जब प्रेम प्रसंग सेक्स का कारण बनते हैं। दुर्भाग्य से जब यह बात खुल जाती है तो एक किशोर आरोपी बन जाता है और दूसरा पोक्सो के तहत पीड़ित। इस पहलू से भी अब कानून की समीक्षा ज़रूरी हो गई है। इस पृष्ठभूमि में विधि आयोग की नवीनतम सलाह महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके तहत 18 वर्ष से कम के जोड़ों को पोक्सो कानून से बचाने का सुझाव दिया गया है। वर्तमान में ‘सहमति की आयु’ 18 वर्ष है। विधि आयोग ने इसे तो कम करने से इन्कार किया है, लेकिन यौन अपराधों से बाल सुरक्षा (पोक्सो) कानून, 2012 में संशोधन करने का सुझाव दिया है कि 16-18 वर्ष आयु वर्ग के किशोरों में अगर ‘मौन स्वीकृति’ है तो ऐसे मामलों को हल करने के लिए निर्देशित न्यायिक विवेक के प्रावधान को शामिल किया जाये। कानून मंत्रालय को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में आयोग, जिसके प्रमुख कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी हैं, ने कहा है कि ‘आपसी सहमति के रोमांटिक संबंधों’ में पोक्सो के तहत आपराधिक मामलों जैसी सख्ती नहीं बरतनी चाहिए। रिपोर्ट में अदालतों को सुझाव दिया गया है कि वे ऐसे केसों में सावधानी से काम लें। रिपोर्ट में अदालतों की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘किशोरों के प्रेम को नियंत्रित नहीं किया जा सकता और सहमति के ऐसे मामलों में ज़रूरी नहीं कि आपराधिक इरादा भी हो’।
गौरतलब है कि ‘सहमति की आयु’, जिसमें व्यक्ति को कानूनन यौन संबंध स्थापित करने के लिए सहमति व्यक्त करने के योग्य समझा जाता है, हमेशा से एक जैसी नहीं थी। 1860 में यह 10 साल थी, जिसे बढ़ाकर 1891 में 12 साल, 1925 में 14 साल और 1940 में 16 साल कर दिया गया। पोक्सो कानून के तहत ‘सहमति की आयु’ 18 वर्ष है। 2012 के इस कानून से पहले ‘सहमति की आयु’ को परिभाषित नहीं किया गया था। इसे आईपीसी की धारा 375 के आधार पर तय किया गया, जो ‘बलात्कार’ को परिभाषित करती है। भारत में फिलहाल महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 साल है और पुरुषों के लिए 21 साल है। विधि आयोग की रिपोर्ट कुछ मामलों में न्यायिक विवेक को ज़रूरी समझती है, जैसे 16-18 वर्ष आयु वर्ग में आपसी सहमति से ऐसा रोमांटिक संबंध जिसमें आपराधिक इरादा न हो। बाल न्याय कानून में यह प्रावधान है कि सहमति संबंध के लिए बच्चे का ट्रायल वयस्क के रूप में न किया जाये, अगर जोड़े के बीच में आयु का अंतर 3 साल से कम हो, अगर कोई पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं पाया जाता है और ‘अपराध’ के बाद व्यवहार अच्छा है।
इस सुझाव के बावजूद विधि आयोग ‘सहमति की आयु’ को 18 वर्ष से कम करने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि उसका मानना है कि ऐसा करने से ‘बाल विवाह के विरुद्ध जो वर्षों से संघर्ष चल रहा है, उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा’ और नाबालिग लड़कियों का दमन, वैवाहिक बलात्कार और तस्करी सहित अन्य प्रकार के शोषण के रास्ते निकल आयेंगे। रिपोर्ट में इस बात को हाईलाइट किया गया है कि विचार-विमर्श के दौरान नाबालिगों के बीच में आपसी सहमति के रोमांटिक संबंध का जो पेचीदा मुद्दा है, उसे कैसे हल किया जाये। 
इस पर अलग-अलग राय थीं, लेकिन इस तथ्य पर सर्वसम्मति थी कि पोक्सो कानून उन्हीं बच्चों के विरुद्ध कार्य कर रहा है जिन्हें सुरक्षा प्रदान कराने का उसका उद्देश्य है। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘हालांकि मकसद बच्चों को सुरक्षित रखना है, लेकिन हर प्रकार की यौन गतिविधि को अपराध के दायरे में रखने से वे युवा लड़के व लड़कियां भी सलाखों के पीछे भेजे जा रहे हैं जो इन गतिविधियों में यौन जिज्ञासा और नये प्रयोग के परिणाम स्वरूप लिप्त होते हैं, जबकि कुछ हद तक ऐसा करना एक किशोर के लिए सामान्य बात होती है।’ इसलिए 16-18 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में भले ही कानून की दृष्टि से ‘सहमति’ न मानी जाये, लेकिन अगर उनमें ‘मौन स्वीकृति’ है तो उनकी स्थिति का हल आवश्यक हो जाता है, जिसके लिए पोक्सो कानून में संशोधन और बाल न्याय कानून के संबंधित प्रावधानों में परिवर्तन किया जाये।
लेकिन आयोग ने साथ ही यह भी कहा कि सहमति सुनिश्चित करने के मामलों में विशेष अदालत अपनी विवेक शक्तियों का प्रयोग सीमित व निर्देशित रूप में करे ताकि प्रावधान के दुरुपयोग को रोका जा सके। फैसला लेते समय अदालत जिन मुद्दों पर विचार कर सकती है, उनमें शामिल हैं आरोपी व बालक के बीच में आयु का अंतर, जोकि तीन वर्ष से अधिक का नहीं होना चाहिए, आरोपी का कोई आपराधिक रिकॉर्ड न हो और ‘अपराध’ के बाद आरोपी का अच्छा व्यवहार हो। आयोग ने पोक्सो कानून के सेक्शन 4 में संशोधन की सिफारिश की है, जिसका संबंध प्रवेशक यौन हमले की सज़ा से है। आयोग के अनुसार, ‘जहां बच्चा जिसके विरुद्ध अपराध हुआ है, वह अपराध के समय 16 वर्ष या उससे अधिक का था और जहां विशेष अदालत संतुष्ट हो जाती है कि आरोपी व बच्चे के बीच संबंध आत्मीय रहे हैं, तो अदालत अपने विवेक से निर्धारित न्यूनतम सज़ा से कम सज़ा दे सकती है, केस के सभी तथ्यों व स्थितियों का संज्ञान लेते हुए।’ गौरतलब है कि इस समय प्रवेशक यौन हमले के लिए न्यूनतम सज़ा दस वर्ष की कैद है जिसका आजीवन कारावास तक विस्तार किया जा सकता है। अगर बच्चा 16 वर्ष से कम का है तो न्यूनतम सज़ा 20 वर्ष की कैद है, जो आजीवन कारावास तक बढ़ायी जा सकती है।
आज के समाज में 16-18 वर्ष के किशोर अपनी मज़र्ी से यौन संबंध स्थापित कर रहे हैं, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। समस्या उस समय उत्पन्न होती है जब उनका यह राज़ खुल जाता है। तब एक आरोपी और एक पीड़ित हो जाता है। इस स्थिति से ‘निपटने’ के लिए आयोग ने सज़ा कम करने का ही सुझाव दिया है और उसे भी अदालत के विवेक पर छोड़ा गया है। क्या यह समस्या का समाधान है? नहीं। इस पर अतिरिक्त विचार विमर्श होना चाहिए।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर