चिकित्सा नोबेल-2023 : पुरस्कृत हुए कोविड वैक्सीन के वैज्ञानिक 

संसार की पहली वैक्सीन चेचक को नियंत्रित करने के लिए बनी थी। यह 200 वर्ष से भी अधिक पुरानी बात है। इसके बाद जो वैक्सीन बनी जैसे पोलियो, खसरा आदि के लिए, उनमें उसी सिद्धांत का प्रयोग किया गया जो एडवर्ड जेनर ने चेचक की वैक्सीन बनाने के लिए किया था। इन वैक्सीनों में मृत या पैथोजन का कमजोर वज़र्न या रोग उत्पन्न करने वाले जर्म का इस्तेमाल किया जाता है। सिद्धांत यह है कि शरीर के इम्यून सिस्टम को वायरस से परिचित करा दिया जाये ताकि वह उसी वायरस से होने वाले रोग को नियंत्रित कर सके। लेकिन इन वैक्सीनों को विकसित व परफेक्ट करने में वर्षों लग जाते हैं। जब 2019 के अंत में सार्स-कोव-2 या नया कोरोनावायरस सामने आया तो यह एक ऐसा पैथोजन था, जिसे मानव इम्यून सिस्टम ने पहले कभी नहीं देखा था। 
नतीजतन कोविड-19 ने स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर कहर बरपा दिया और निरंतर बढ़ती मौतों की संख्या ने संसार को स्थिर कर दिया। वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के पास समय का अभाव था। हर किसी को इस समस्या का त्वरित समाधान चाहिए था। अब समय आ गया था कि एम.आर.एन.ए. (मैसेंजर राइबो न्यूकिल एसिड) वैक्सीन अपनी क्षमता को साबित करे।
ऐसे में हंगरी मूल की अमेरिकन डा. कैटलिन करिको और अमेरिकन डा. ड्रियू वाइजमैन साथ आये और उन्होंने कोविड-19 के विरुद्ध एम.आर.एन.ए. वैक्सीन की खोज की, जिसका प्रयोग भविष्य में अन्य शॉट्स विकसित करने के लिए किया जा सकता है। इन दोनों को इनके सफल प्रयास के लिए संयुक्त रूप से मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। स्टॉकहोम में नोबेल प्रदान करने वाली समिति ने इनके योगदान का उल्लेख करते हुए कहा है, ‘आधुनिक युग में जब मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा था, तो उस दौरान उन्होंने अप्रत्याशित तेज़ी से वैक्सीन का विकास किया।’ इस जोड़ी की ‘अभूतपूर्व खोज ने... बुनियादी तौर पर हमारी इस समझ को बदल दिया कि हमारे इम्यून सिस्टम के साथ एम.आर.एन.ए. किस तरह से काम करता है’।
डा. कैटलिन करिको बायोएनटेक फर्मास्यूटिकल्स की वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं। स्ज़ोलनोक, हंगरी में 1955 में जन्मीं डा. कैटलिन करिको ने 1982 में यूनिवर्सिटी ऑ़फ स्ज़ेगेड से अपनी पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। वह 2021 से स्ज़ेगेड में प्रोफेसर हैं और यूनिवर्सिटी ऑ़फ पेन्सिल्वेनिया में सहायक प्रोफेसर भी हैं। मेडिसिन का नोबेल पाने वाली वह मात्र 13वीं महिला हैं। 1901 से मेडिसिन या फिजियोलॉजी में 114 नोबेल पुरस्कार 227 व्यक्तियों को दिए गये हैं। मेडिसिन के 35 पुरस्कारों को दो वैज्ञानिकों ने शेयर किया है। इस पुरस्कार को किसी महिला ने पिछली बार 2015 में हासिल किया था। डा. वाइजमैन रोबर्ट्स फैमिली के वैक्सीन शोध में प्रोफेसर हैं और पेन इंस्टिच्यूट फॉर आर.एन.ए. इनोवेशंस के निदेशक हैं। उनका जन्म 1959 में मैसाचुसेट्स, अमरीका में हुआ था। उन्होंने अपनी एम.डी. व पी.एच.डी. की डिग्रियां 1987 में बोस्टन यूनिवर्सिटी से हासिल कीं। 1997 में उन्होंने पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के पेरेलमन स्कूल ऑ़फ मेडिसिन में अपना शोध समूह स्थापित किया।
बहरहाल, एम.आर.एन.ए. में जो ‘एम’ है उसका अर्थ है ‘मैसेंजर’ और यह सार है उस सिद्धांत का जिस पर यह वैक्सीन काम करती है। इन वैक्सीनों का विकास हाल के दिनों में मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के क्षेत्र में आयी क्रांति पर निर्भर करता है। मानव शरीर में पूरा वायरस डालने की बजाय यह वैक्सीन इस तरह से काम करती हैं कि व्यक्तिगत वायरल कॉम्पोनेंट इंसर्ट कर दिया जाता है, जो इम्यून सिस्टम को उकसा देता है। यह कंपोनेंट्स मुख्यत: ‘वायरल जेनेटिक कोड का हिस्सा होते हैं, आमतौर से वायरस की सतह पर पाये जाने वाले प्रोटीनों को एनकोड करते हैं’। ऐसा नोबेल फाउंडेशन का कहना है। इन्हीं सतह के प्रोटीनों का वायरस प्रवेश के लिए इस्तेमाल करता है और मानव होस्ट की कोशिकाओं से चिपक जाता है। वायरल कॉम्पोनेंट से जो जेनेटिक कोड डिलीवर किया जाता है, वह उन प्रोटीनों के उत्पादन को प्रेरित करता है, जो वायरस-ब्लॉकिंग एंटीबाडीज बनाने के लिए उकसाते हैं। यही एंटीबाडीज शरीर में वायरस के विरुद्ध लड़ती हैं। परम्परागत तरीके से जो वैक्सीन बनायी जाती हैं, उनमें विस्तृत इंफ्रास्ट्रक्चर और रिसोर्स-इंटेंसिव प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह है कि इन्हें उस तेज़ी से विकसित नहीं किया जा सकता जिसकी ज़रूरत नये कोरोनावायरस के हमले के दौरान थी। इस किस्म की बाधाओं को पार करने के लिए ही एम.आर.एन.ए. वैक्सीनों को डिज़ाइन किया गया है। लेकिन लम्बे समय तक इन्हें लेने के लिए कोई तैयार न था।
मानव कोशिकाओं के डी.एन.ए. में प्रोटीन बनाने की जानकारी होती है और वह जीवन का मुख्य बिल्डिंग ब्लाक है। न्यूक्लिक एसिड्स का वास्तविक कार्यवाहक रूप आर.एन.ए. है, कोशिकाओं के निर्माण के लिए या इम्यून चुनौतियों का सामना करने के लिए। एम.आर.एन.ए. उस रूप में आवश्यक हैं, जिनमें जीन को कोशिका पढ़ती है। जब वैज्ञानिक एम.आर.एन.ए. का प्रयोग वैक्सीन बनाने के लिए कर रहे थे, तो कुछ मुद्दों को संबोधित करना ज़रूरी हो गया था। आसान शब्दों में कहा जाये तो एम.आर.एन.ए. वैक्सीन अस्थिर मानी जाती थीं और उन्हें डिलीवर करना भी कठिन था। फिर इनसे सूजन रिएक्शन की भी आशंकाएं थीं। लेकिन डा. कैटलिन करिको इस बात पर अड़ी रहीं कि एम.आर.एन.ए. को थैरेपी के लिए प्रयोग किया जा सकता है, हालांकि अपनी रिसर्च के लिए फंड्स हासिल करना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। उन्हें जल्द ही डा. वाइजमैन के रूप में साथी मिल गया जो इम्यून निगरानी के लिए ज़रूरी डेनडरिटिक कोशिकाओं और वैक्सीन प्रेरित इम्यून प्रतिक्रियाओं पर काम कर रहा था। इन दोनों ने पाया कि इन-विट्रो या लैब-विकसित एम.आर.एन.ए. को डेनडरिटिक कोशिकाएं बाहर के पदार्थ के रूप में पहचानती हैं, जिससे सूजन आ जाती है। उन्होंने रसायनिक तौर पर बेस बदलकर एम.आर.एन.ए. के अलग-अलग वैरिएंट्स तैयार किये। उनके प्रयोगों ने दिखाया कि जब बेस को मॉडिफाई कर दिया जाता है तो सूजन प्रतिक्रिया लगभग लुप्त हो जाती है। उन्होंने 2005 में अपना शोध प्रकाशित किया।
इसके बाद करिको व वाइजमैन ने पाया कि बेस मॉडिफिकेशन से तैयार किया गया, एम.आर.एन.ए. प्रोटीन उत्पादन को बढ़ा देता है और सूजन प्रतिक्रियाओं को रोकता है। एम.आर.एन.ए. वैक्सीन के विकास में बाधक दोनों तत्वों को दूर कर दिया गया और फलस्वरूप एम.आर.एन.ए. शोध ने गति पकड़ ली और इस तरीके से जीका वायरस व मर्स-कोव के लिए वैक्सीन बनाने की कोशिशें शुरू हो गईं। चूंकि मर्स-कोव-2 और सार्स-कोव-2 में काफी समानताएं हैं, इसलिए जब कोविड महामारी फैली तो दो एम.आर.एन.ए. वैक्सीन (फाइज़र-बायोएनटेक व मोडरना) बिजली की रफ्तार से तैयार हो गईं। इसके अतिरिक्त एम.आर.एन.ए. वैक्सीन के निर्माण में भी कम समय लगता है और चूंकि उनमें जीवित वायरस नहीं होता, इसलिए उन्हें सुरक्षित समझा जाता है।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर