साल वृक्ष जिसकी लकड़ी से जहाज़ भी बनते हैं

साल जिसे कहीं-कहीं शाल, सखुआ या साखू भी कहा जाता है। यह एक अर्धपर्णपाती वृक्ष है, जो भारत में हिमालय की तलहटी से लेकर 3000 से 4000 फुट की ऊंचाई तक भी पाया जाता है। यह ऐसे इलाकों में भी होता है, जहां महज 9 सेंटीमीटर वार्षिक बारिश होती है और ऐसे इलाकों में भी जहां 508 सेंटीमीटर बारिश होती है। भारत, म्यामार और श्रीलंका में इसकी 9 प्रजातियां पायी जाती हैं। जिनमें शोरिया रोबस्टा गार्थ प्रमुख हैं। भारत में यह मुख्यत: उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, झारखंड और असम के जंगलों में उगता है।
देश में सबसे बड़े साल वन असम में ब्रह्मपुत्र और सुरमा घाटियों में पाये जाते हैं, जो लगभग 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं। असम के साल वनों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बेहद उच्च घनत्व वाले लम्बे पेड़ हैं, जिनमें कई पेड़ों की लंबाई 45 मीटर तक होती है। भारत के तीन समृद्ध वानकी वाले राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में इनके कुल वन क्षेत्र का 45 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा साल वनों का है। साल के पेड़ की यूं तो कई खूबियां हैं लेकिन पूरी दुनिया में यह अपने जिस खूबी के लिए जाना जाता है, उसकी वह खूबी इसकी लकड़ी है, जो बेहद कठोर, भारी, मजबूत और भूरे रंग की होती है। साल की लकड़ी इतनी भारी यानी इतनी वजनी होती है कि यह पानी में डूब जाती है। साल की लकड़ी से बसों और ट्रकों की बॉडी, रेल की पटरियों में बिछाये जाने वाले स्लीपर, छोटी नावें और पानी के जहाज भी बनते हैं।
साल का वृक्ष बेहद उपयोगी है। हिंदुस्तान इस मायने में भाग्यशाली है कि बहुत कीमती लकड़ी का यह पेड़ भारत के हर इलाके में कम या ज्यादा पाया जाता है। कई वन आच्छादित प्रांतों में तो यह वानकी से होने वाली आय का बड़ा स्रोत है। इसकी लकड़ी से जहां महत्वपूर्ण औद्योगिक ज़रूरतें पूरी होती हैं, वहीं इससे घरों के लिए बहुत उम्दा क्वालिटी का फर्नीचर भी बनता है। यह पेड़ इन्सान के लिए जहां इतना फायदेमंद है, वहीं भारत में इसकी सांस्कृतिक जड़ें भी बहुत गहरी और मज़बूत हैं। यह द्विबीजपत्री, बहुवर्षीय वृक्ष जिसे संस्कृत में अग्निवल्लभा या अश्वकर्णिका कहते हैं, इसका भारतीय संस्कृति से भी बहुत आत्मीय रिश्ता है। माना जाता है कि साल वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था, उनकी मां रानी महामाया ने उन्हें इसी पेड़ के नीचे जन्म दिया था। साल वृक्ष के बारे में यह भी मान्यता है कि इसी वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और झारखंड के सरना धर्मावलंबी साल के वृक्ष को पूज्यनीय और पवित्र मानते हैं, जिसका मतलब यह है कि आदिवासी संस्कृति में साल वृक्ष का बहुत ही महत्व है।
इसका रोजी-रोटी मुहैय्या कराने में भी महत्वपूर्ण योगदान है। साल वृक्ष के पत्तों में तम्बाकू लपेटकर बीड़ी बनायी जाती है। इंसान के रोजमर्रा की जिंदगी में साल का पेड़ बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी है। इस वृक्ष से निकाला हुआ रेजिन कुछ अम्लीय होता है, जिसका बहुत तरह से औषधीय उपयोग होता है। इसके तरूण वृक्षों की छाल से निकला लाल और काले रंग का पदार्थ रंजक के काम में आता है। अब तो नहीं, लेकिन एक जमाने में इसके बीज जो कि वर्षा के प्रारंभिक दिनों में पकते हैं, आदिवासियों और अकालग्रस्त इलाकों में इंसानी भोजन के रूप में भी इस्तेमाल किए जाते थे। भारत में हर साल, साल वनों से कई अरब रुपये की उपयोगी लकड़ी हासिल होती है। लाखों घन फुट लकड़ी तो केवल रेलवे के स्लीपर बनाने के काम आती है।
कहने का मतलब यह है कि यह एक ऐसा वृक्ष है जो देश और नवनिर्माण की अर्थव्यवस्था में बढ़ चढ़कर योगदान करता है। जहां तक इसके जलवायु और पर्यावरणीय महत्व की बात है, तो यह भी कुछ कम नहीं है। यह बहुवर्षीय वृक्ष होने के कारण लम्बे समय तक पर्यावरण को बचाने और बेहतर बनाने में योगदान करता है। इसके पेड़ों की पत्तियों का हालांकि अब इंसान बहुत ज्यादा इस्तेमाल करके पशु पक्षियों के लिए इनके उपभोग को लगातार कम करता जा रहा है। लेकिन अगर इस कदर इसके पत्तों का व्यावसायिक दोहन न हो तो यह बहुत सारे पक्षियों को आश्रय देता है और भोजन भी। यह जलवायु और पर्यावरण के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण वृक्ष है।
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