देश में नए समीकरणों को जन्म दे सकती है जातिगत जनगणना

जातिप्रथा और जनगणना के आपसी संबंधों पर करीब दो साल पहले मैंने लिखा था कि अगर जातिगत जनगणना हुई और सरकार ने अपना फैसला ऐन मौके पर बदल न दिया तो भारतीय समाज के 70 से 80 प्रतिशत हिस्से की जातिवार संख्यात्मक तस्वीर सामने आ जाएगी। इसके परिणाम कुछ ऐसे निकल सकते हैं, जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं और न ही इसके विरोधियों के। मेरी दलील थी कि मुख्य तौर पर ओ.बी.सी. जातियों के प्रवक्ता जातिगत जनगणना के लिए दबाव डाल रहे हैं। उन्हें लगता है कि इसके ज़रिये वे अपने आरक्षण को 27 प्रतिशत से बढ़ा कर अपनी संख्या के बराबर लाने का दावा ज्यादा मज़बूती से कर सकेंगे। आखिर दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी जनसंख्या के हिसाब से ही तय किया गया है। जातिगत जनगणना के विरोधियों को लगता है कि इससे जाति-संघर्ष तीखा होगा। हिंदू और मुसलमान समाज के भीतर गृहयुद्ध छिड़ सकता है। लेकिन मुमकिन है कि यह अंदेशा केवल एक कपोल-कल्पना ही साबित हो। जो भी हो, जातिगत जनगणना राजनीतिक गोलबंदी के ढांचे को बदल सकती है। राजनीतिक मांगों का विन्यास और पार्टियों की घोषणापत्र हो सकता है कि जनगणना के बाद पहले जैसे न रह जाएं। चुनाव में टिकटों के बंटवारे के मानक नये सिरे से तैयार करने पड़ सकते हैं। पार्टियों में पदों का बंटवारा, सरकारों में मंत्रिपदों का वितरण यानी हर चीज़ पहले जैसी नहीं रह जाएगी। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि जातिगत जनगणना के प्रभाव गहन और बुनियादी होंगे उन अर्थों में नहीं जिनमें लोग सोच रहे हैं, बल्कि उन अर्थों में जिनमें अभी सोचना तकरीबन नामुमकिन है।  
मेरा विचार है कि बिहार की जातिगत जनगणना के साथ ही पिछड़ी जातियों के वोटरों की गोलबंदी के लिए होने वाली प्रतियोगिता अपने तीसरे चरण में पहुंच गई है। ध्यान रहे कि यह होड़ केवल हिंदू पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मुसलमान पिछड़ों की भी इसमें उल्लेखनीय भूमिका है। अगर इस्लामिक पिछड़ों (अजल़ाफ और अरज़ाल) की संख्या को नहीं जोड़ा गया होता तो यह 63 प्रतिशत  तक नहीं पहुंचता और अगर मुसलमान ऊंची जातियों (अशऱाफों) को नहीं जोड़ा गया होता तो ़गैर-आरक्षित जातियों का प्रतिशत 15 से भी नीचे चला जाता। इस तरह इस जनगणना ने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को मजहबी दृष्टि से देखने के बजाय संविधानिक तरीका अपनाते हुए सामाजिक दृष्टि से देखने पर बल दिया है। इससे हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के मुकाबले रखने की राजनीति कमज़ोर होने की संभावना है। वैसे भी मुसलमान पिछड़ों यानी पसमांदाओं का समर्थन विपक्षी दल ही नहीं आजकल भारतीय जनता पार्टी भी चाहने लगी है। जैसी कि पुरानी कहावत है कि लोकतंत्र एक ऐसा निज़ाम है, जहां बंदों को तौला नहीं बल्कि गिना जाता है। चूंकि संख्या के लिहाज़ से सबसे ज्यादा वोट दोनों धर्मों की ओ.बी.सी. जातियों के पास ही हैं, इसलिए 50 के दशक से ही इन्हें प्राप्त करने की जद्दोजदह शुरू हो गई थी। 1957 में सोशलिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र स्वयं डा. लोहिया ने पिछड़े वर्गों की संख्या 100 में से 60 होने का दावा किया था। देखते ही देखते पिछड़ा गोलबंदी के मैदान में एक और खिलाड़ी आ गया। इसका नाम भारतीय जनसंघ था और इसके अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के मार्गदर्शन में हिंदू पिछड़ों (कर्मकांडीय दृष्टि से शूद्रों) को ऊंची जातियों के साथ जोड़ने की रणनीति का आगाज़ किया था। 
यह प्रतियोगिता आज तक जारी है। आसानी से समझने के लिए हम इन दोनों मॉडलों को क्रमश: लोहिया-लालू (अगर कोई चाहे तो इसमें मुलायम और नितीश के नाम भी जोड़ सकता है) मॉडल और उपाध्याय-मोदी मॉडल का नाम दे सकते हैं (कुछ पुराने भाजपाई इसमें गोविंदाचार्य का नाम भी जोड़ना चाहेंगे)। लोहिया-लालू मॉडल की ़खास बात यह थी कि उसे उच्च जातियों की कोई ़खास चिंता नहीं थी और उसके उलट उपाध्याय-मोदी मॉडल ऊंची जातियों को अपना स्वाभाविक घटक मान कर चल रहा था। 
पहला मॉडल अगड़ी जातियों के वोटरों की कमी की भरपाई मुसलमान वोटरों से करना चाहता था। दोनों ही मॉडलों के पास पहले दौर में दलित वोटरों को अपनी ओर खींचने का कोई स्पष्ट कार्यक्रम नहीं था। इसलिये 80 के दशक में एक तीसरा मॉडल मैदान में आया, जिसे कांशी-माया मॉडल का नाम दिया जा सकता है। इसका दावा था कि पिछड़ों और मुसलमानों दोनों को दलितों का नेतृत्व स्वीकार कर लेना चाहिए। 2007 में तीसरे मॉडल की गोलबंदी चरम पर पहुँची, जब बहुजन समाज पार्टी को अकेली दम पर उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला। लेकिन उसके बाद से यह मॉडल अपनी भीतरी कमज़ोरियों और रणनीतिक ढुलमुलपन के कारण पिछड़ता चला गया। आज यह होड़ से बाहर होकर कोने में चुप बैठा हुआ है। 
पिछड़ा गोलबंदी का दूसरा चरण तब शुरू हुआ, जब उपाध्याय-मोदी मॉडल ने पिछड़े वोटरों के प्रभुत्वशाली हिस्से (यादवों) के खिलाफ इस विशाल समुदाय के बाकी हिस्से को गोलबंद करने की शुरुआत की। गोलबंदी की इस रणनीति के पहले लोहिया-लालू मॉडल प्रतियोगिता में लगातार आगे दौड़ रहा था। लेकिन जैसे ही भाजपा ने लोधियों और काछियों से लेकर राजभरों, निषादों, नाइयों और गड़रियाओं आदि को समझाया कि आरक्षण के फायदे और सत्ता से नज़दीकियां चाहिए तो यादवों को छोड़ कर भाजपा की ऊंची जातियों के साथ जुड़ना होगा। शुरुआती हिचक के बाद से यह मुहिम परवान चढ़ी और पिछले दस साल में धीरे-धीरे उपाध्याय-मोदी मॉडल आगे निकल गया। 
भाजपा पिछड़े वोटों के बिना चुनाव जीत नहीं सकती, पर राजनीति में टिकी रह सकती है, क्योंकि उसकी जेब में ऊंची जातियों के वोट स्थायी रूप से पड़े हुए हैं। लेकिन लोहिया-लालू मॉडल के लिए यह हार, ज़िंदगी और मौत का सवाल थी। द्विजों-शूद्रों की भाजपाई एकता इतनी विशाल थी कि मुसलमान वोटों की राजनीति भी बेअसर होती जा रही थी। ऐसे में इस मॉडल के पैरोकार जातिगत जनगणना का हथियार लेकर सामने आए। कांग्रेस पहले से इस मांग पर काम कर रही थी। उसने 2011 में सामाजिक-आर्थिक सेंसस के रूप में यह काम शुरू कर दिया था। उपाध्याय-मोदी मॉडल की मान्यता यह थी कि जातिगत चेतना जितनी धुंधली और नर्म होगी, हिंदू एकता बनाना उतना ही आसान होगा। लेकिन इस प्रकार का सेंसस जातिगत चेतना तीखी और गाढ़ी कर सकता था। चूंकि जातिगत चेतना तीखी करना मोदी की निगाह में ‘पाप’ है, इसीलिए उनकी सरकार 2011 की आर्थिक सामाजिक सेंसस की रिपोर्ट पिछले 9 साल से दबा कर बैठी हुई है। 
स्वयं उसने जो रोहिणी कमिशन पिछड़ों की जांच के लिए बनाया था, उसकी रिपोट भी उसने अलमारी में बंद रखी हुई है। मोदी की रणनीति यह थी कि जस्टिस रोहिणी के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए विश्वकर्मा जैसी योजनाओं के ज़रिये अति-पिछड़े वर्गों (जो ज्यादातर कारीगर जातियां हैं) को लुभाओ, पर इस कमिशन के आंकड़े सार्वजनिक होने से रोककर जातिगत चेतना को उभरने से रोका जाए। लेकिन नितीश कुमार ने वही कर दिखाया जो मोदी तो क्या कर्नाटक में अपने पिछले कार्यकाल में सिद्धरमैया भी नहीं कर पाये थे। उन्होंने भी एक जातिगत गणना करके अलमारी में बंद रखी हुई है। यानी तब की कांग्रेस भी कर ज़रूर रही थी, पर पूरा मन नहीं बना पा रही थी। राहुल गांधी ने पूरा मन बनाया और नितीश-लालू के साथ जुड़ कर अपनी जनगणना के पिटारे को खोल दिया। 
इस घटनाक्रम ने राजनीति का खेल बदल दिया है। एक बार फिर लोहिया-लालू मॉडल आगे निकलता प्रतीत हो रहा है। बिहार के आंकड़े सामाजिक न्याय की पार्टियों को सारे देश में मज़बूर करेंगे कि अति-पिछड़ों और अति-दलितों की झोली में भी कुछ डालें। अभी तक केवल भाजपा ही इन तबकों की गोलबंदी कर रही थी, पर अब इस होड़ में दूसरी पार्टियां भी कूद पड़ेंगी। ये पार्टियां आर्थिक आधार पर आरक्षण भी देंगी (नितीश ने न्यायिक सेवाओं में अति-पिछड़े वर्ग यानी ई.डब्ल्यू.एस. के लिए आरक्षण घोषित कर ही दिया है)। पिछड़े वर्गों की गोलबंदी का यह तीसरा चरण लम्बा चलने वाला है।

 लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।