भाजपा के खिलाफ ‘इंडिया’ का मुख्य हथियार है जातिगत गणना

क्या भारत को जातिगत जनगणना की आवश्यकता है? यदि इसे राष्ट्रीय स्तर पर कराया जाता है तो इसका परिणाम क्या होगा, सकारात्मक या नकारात्मक? इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है। संभावित लाभ या हानि पर अलग-अलग विचार के कारण यह मुद्दा विवादास्पद है।
विचार अलग-अलग हैं, कुछ इसकी दीर्घकालिक उपस्थिति को स्वीकार करते हैं और अन्य प्रतिकूल परिणामों के लिए चिंता व्यक्त कर रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत राजनीतिक दल हाशिये पर रहने वाले समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप जातिगत जनगणना करवाने की मांग बढ़ गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने जातिगत गणना करवा कर मौजूदा बहस को और बढ़ा दिया है। उन्होंने दो अक्तूबर को नतीजे जारी किये और खुद को हाशिये पर मौजूद समुदायों के शुभचिन्तक के तौर पर पेश किया।
जनगणना रिपोर्ट से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा को हटाने की राजनीतिक मांग उठ सकती है। मुम्बई बैठक में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने भी जातिगत जनगणना का अनुरोध किया था। महाराष्ट्र, ओडिशा और झारखंड जातिगत जनगणना कराने पर सहमत हो गये हैं, जबकि बंगाल ने अभी तक फैसला नहीं किया है। मध्य प्रदेश कांग्रेस ने भी वायदा किया है।
जातिगत जनगणना के विषय पर अलग-अलग विचार सामने आ रहे हैं। इसमें चुनावों और समुदायों पर इसके प्रभाव जैसे पहलुओं को शामिल किया गया है। 1931 से अधिक विश्वसनीय डेटा की आवश्यकता को देखते हुए इसे अभी भी पूरा करने की आवश्यकता है। कुछ लोग जातिगत जनगणना के पक्ष में तर्क दे रहे हैं, लेकिन यह अंधेरे में आंख मारने की कोशिश करने जैसा है।
1931 से पहले दशकीय जनगणना में जाति पर डेटा शामिल था। हालांकि 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण जनगणना नहीं हुई थी। 1951 से 2011 तक भारत की सभी स्वतंत्र जनगणनाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बारे में जानकारी थी, लेकिन अन्य जातियों के बारे में नहीं।
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान जाति संबंधी आंकड़े एकत्र किये गये थे जिनका उद्देश्य प्रशासनिक और जनसांख्यिकीय था। आज़ादी के बाद नेहरू सरकार जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं थी। कांग्रेस की सरकारों ने दशकों तक जातिगत जनगणना का लगातार विरोध किया। जनता सरकार के समय 1979 में मंडल आयोग की स्थापना की गई थी।
एक दशक बाद जनता दल के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। 2001 की जनगणना में जाति को एक श्रेणी के रूप में जोड़ने पर विचार किया गया, लेकिन व्यावहारिक मुद्दों और चिंताओं ने इसे लागू होने से रोक दिया।
हालांकि 2010 में मनमोहन सिंह सरकार ने आर्थिक कारकों के आधार पर एक सर्वे कराया था। कोरोना महामारी के कारण 2021 की जनगणना स्थगित कर दी गयी और अभी तक नहीं हुई। आज कांग्रेस के रुख में बदलाव दिख रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति से संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिए ‘जितनी आबादी, उतना हक’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया। 2011 में सोशियोइकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीसी) में जाति के बारे में जानकारी शामिल थी, लेकिन मुख्य ध्यान जीवन स्तर और वित्तीय स्थिति पर था।
मोदी सरकार ने 2015 में एसईसीसी का वित्तीय आंकड़ा जारी किया, लेकिन उसमें जातिगत जनगणना को शामिल नहीं किया गया था। जाति को परिभाषित करना एक जटिल मुद्दा है। जातिगत जनगणना को भेदभावपूर्ण माना जाता है और उन लोगों द्वारा इसका विरोध किया जाता है जो सभी के लिए समान अधिकार और अवसर चाहते हैं। भाजपा ने जातिगत जनगणना पर अब तक कोई आधिकारिक रुख नहीं अपनाया है। यह मांग सबसे पहले राजद जैसे क्षेत्रीय दलों ने उठाई थी और अब जेडी (यू) और बहुत-से अन्य विपक्षी दल इसके पक्ष में हैं। भाजपा के अधिसंख्य नेता मानते हैं कि जातिगत जनगणना कराने से राजनीतिक और तार्किक चुनौतियों के कारण एकजुट समाज के निर्माण में बाधा आ सकती है।
ऐतिहासिक रूप से स्वतंत्र भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा की बैठक दिसम्बर 1946 और नवम्बर 1949 के बीच हुई थी। डॉ. बी.आर अम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे जिन्होंने सरकारी संरचना, नागरिकों के अधिकार और मौलिक सिद्धांतों जैसे विषयों पर चर्चा का नेतृत्व किया। नये गणतंत्र के संविधान को आकार देने में उनका योगदान महत्वपूर्ण था। हालांकि जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई होगी।
जातिगत जनगणना कराने का निर्णय काफी हद तक राजनीतिक कारकों, जनता की भावना और सत्तारूढ़ पार्टी की प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है। सरकार के कार्य जनता की मांगों और जागरूकता के स्तर से भी प्रभावित हो सकते हैं। भाजपा नेता जातिगत जनगणना का समर्थन करने में संकोच करते हैं, हालांकि उनके पास लोकसभा में बहुमत है, लेकिन जाति-आधारित पार्टियां अपने समर्थकों को खुश करने के लिए इसकी वकालत कर रही हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी की राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना की मांग ने एक चुनौती खड़ी कर दी है। दुविधा यह है कि इस कदम से ‘इंडिया’ गठबंधन की सहयोगी पार्टियों को फायदा हो सकता है, चाहे केन्द्र कुछ भी करे। लोकसभा चुनाव से छह महीने पहले भाजपा वाकई दुविधा में है। देखने वाली बात यह होगी कि आखिर मोदी सरकार इस पर क्या निर्णय लेता है। (संवाद)