रेवड़ी संस्कृति को लेकर सुप्रीम कोर्ट गम्भीर 

हाल ही में 6 अक्तूबर को माननीय सुप्रीम कोर्ट ने रेवड़ी संस्कृति या मुफ्त संस्कृति (फ्रीबी कल्चर) मामले पर सुनवाई करते हुए केंद्र और दो राज्य सरकारों को नोटिस जारी किए हैं और अदालत ने चार हफ्तों में इस मामले में सरकारों से अपना जवाब प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं। दरअसल माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह नोटिस जारी किए हैं। यह बहुत ही संवेदनशील मामला है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा वोटर्स को फ्रीबीज या मुफ्त के उपहार के वादे किए जाते हैं और मुफ्त की रेवडिट़यां बांटी जाती हैं। मुफ्त की रेवड़ियां बांटने को किसी भी हालत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता । 
यदि देश में रेवड़ी संस्कृति जारी रहती है तो निश्चित ही यह भविष्य में देश को आर्थिक आपदा की ओर ले जाएगी। भारतीय रिज़र्व बैंक की 31 मार्च, 2023 तक की रिपोर्ट में सामने आया है कि मध्य प्रदेश,  राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य टैक्स की कुल कमाई का 35 प्रतिशत तक हिस्सा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च कर देते हैं। पंजाब 35.4 प्रतिशत के साथ सूची में शीर्ष पर है। मध्य प्रदेश में यह हिस्सेदारी 28.8 प्रतिशत, राजस्थान में 8.6 प्रतिशत है। आंध्र अपनी आय का 30.3 प्रतिशत, झारखंड 26.7 प्रतिशत और बंगाल 23.8 प्रतिशत तक मुफ्त की योजनाओं के नाम कर देता है। केरल 0.1 प्रतिशत हिस्सा रेवड़ी संस्कृति को देता है।
 सच तो यह है कि भारतीय राजनीति में सत्ता पाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल विभिन्न प्रकार की लोक लुभावन घोषणाएं करने में पीछे नहीं रहते। भारतीय राजनीति में यह सिलसिला अब नहीं चला, अपितु यह बहुत पहले से ही चला आ रहा है। जैसे ही चुनाव नज़दीक आते हैं, वैसे ही राजनीतिक दल लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं और मुफ्त के नाम पर वोटर्स को अपनी ओर खींचते हैं। पिछले कई सालों से तो यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है, जो देश के लिए बहुत ही घातक है। चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वायदे करती हैं और इसे ही वास्तव में राजनीतिक भाषा में फ्रीबीज या रेवड़ी संस्कृति कहा जाता है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में इस रेवड़ी संस्कृति को देश के लिए नुकसानदायक बता चुके हैं। 
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने लोक लुभावन घोषणाओं पर सख्ती दिखाते हुए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के बारे में जहां एक ओर मध्य प्रदेश व राजस्थान की सरकार से जवाब मांगा है तो चुनाव आयोग से भी इस संदर्भ में चार हफ्ते में जवाब देने को कहा गया है। हाल ही में शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार व भारतीय रिज़र्व बैंक को भी इस संबंध में नोटिस जारी किया है। कोई मुफ्त बिजली दे रहा है तो कोई इंटरनेट, मोबाइल, लैपटॉप, स्कूटी व पानी। कोई आम आदमी के खातों में रुपये डाल रहा है तो कोई मुफ्त अनाज, चावल, आटा, तेल आदि बांट रहा है। चुनाव नज़दीक आते ही यह सिलसिला शुरू हो जाता है।
रेवड़ी संस्कृत और जन-कल्याणकारी योजनाओं में अंतर होता है। वास्तव में मुफ्त की रेवड़ियां वे वस्तुएं और सेवाएं हैं जो उपयोगकर्ताओं को बिना किसी शुल्क के मुफ्त में प्रदान की जाती हैं। इनको आमतौर पर अल्पावधि में लक्षित आबादी को लाभान्वित करने के उद्देश्य से प्रदान किया जाता है। उन्हें प्राय: मतदाताओं को लुभाने या लोकलुभावन वायदों के साथ रिश्वत देने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है। नि:शुल्क लैपटॉप, टीवी, साइकिल, बिजली, पानी आदि उपलब्ध कराना मुफ्त की रेवड़ियों के कुछ उदाहरण हैं। वहीं दूसरी ओर यदि हम कल्याणकारी योजनाओं की बात करें तो ये योजनाएं सुविचारित योजनाएं होती हैं जिनका उद्देश्य लक्षित आबादी को लाभान्वित करना और उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाना होता है। नि:संदेह भारत जैसे देश में जहां करोड़ों लोगों को गरीबी से उभारना है, वहीं जन-कल्याण की योजनाएं चलाने की ज़रूरत है, लेकिन जन-कल्याण के काम करने और रेवड़ियां बांटने में बहुत अंतर होता है। 
यह बहुत ही दुख की बात है कि आज देश के अधिकतर राज्य कज़र् के भारी बोझ के तले दबे हुए हैं। फिर भी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने में जुटे हुए हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट की रेवड़ी संस्कृति पर चिंता जायज़ है क्योंकि ऐसी संस्कृति से राज्य लगातार पिछड़ रहे हैं।