लोकसभा चुनावों के लिए किसी बड़े मुद्दे की तलाश में है भाजपा

लगभग छह महीने पहले की बात है, टीवी के एक ़खबरिया चैनल पर हो रही चर्चा में एक से ज्यादा गम्भीर समीक्षकों की राय थी कि भाजपा जनवरी, 2024 में अयोध्या के राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री के हाथों करवा कर लोकसभा चुनाव की जीत की तरफ आखिरी कदम बढ़ा देगी। जिस रफ्तार से राम मंदिर बन रहा है, वह खासी तेज़ है। प्रधानमंत्री ने अपने बेहद भरोसेमंद अफसर नृपेंद्र मिश्र को इस काम का इंचार्ज बनाया है। ये नृपेंद्र मिश्र वही हैं जिन्हें सेवा-विस्तार देने के लिए 2014 में मोदी के चुने जाने के बाद संसद ने पहला कानून संशोधित किया था। लेकिन मंदिर बनने की यह तेज़ रफ्तार भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जनवरी में पूरा मंदिर बन कर तैयार हो जाएगा। जो भी हो, इसी को ध्यान में रखते हुए ‘मुर्ति स्थापना’ का यह हथकंडा तैयार किया गया है। यानी, मंदिर पूरा हो या अधूरा, चुनाव की मुहिम शुरू होने के पहले इस ‘मुर्ति स्थापना’ समारोह के ज़रिये प्रधानमंत्री को सारे देश के सामने प्रचार करने का मौका मिल जाएगा कि उन्होंने हिंदू समाज की ऐतिहासिक इच्छा पूरी कर दी है, और सदियों पहले हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है। अब इस बदले की बुनियाद पर हिंदू राष्ट्र की इमारत बनाई जा सकती है।  
प्रश्न यह है कि क्या भाजपा केवल इस ‘मुर्ति स्थापना’ के ज़रिये चुनाव जीत सकती है? दरअसल चुनाव जीतने के लिए एक राष्ट्रवादी उफान लाना ज़रूरी है। 2019 में बालाकोट सर्जीकल स्ट्राइक ने यह भूमिका निभाई थी। भाजपा अगला चुनाव जीतने के लिए वैसा ही राष्ट्रवादी उफान लाने की योजना बना रही है। मंदिर की ‘मुर्ति स्थापना’ करने की यह भाजपाई योजना एक तरह से टटोलने के दौर में है। वह मुद्दे की तलाश में है। ज़ाहिर है कि सब कुछ संभावनाओं के घेरे में है। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि अगर मंदिर बन भी गया तो वह राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का कर वोट पाने के औज़ार का  काम लाज़िमी तौर पर कर भी पाएगा या नहीं। देश भर में मुसलमानों की तरफ से ऐसे किसी भी कदम की कोई विपरीत प्रतिक्रिया होने की संभावना तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। ऐसी सूरत में राम मंदिर से लोकतंत्र और समाज का बहुसंख्यकवादी आधार तो मज़बूत होगा, पर हिंदुओं की विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होगी। भाजपा को निश्चित रूप से इसका लाभ मिलेगा, पर वह एक निर्णायक लाभ नहीं होगा।  
दरअसल, राम मंदिर का प्रश्न अब राजनीति के जज़्बाती दावों को छोड़ कर विधि के क्षेत्र या कहिये तो कानूनी किस्म की राजनीति के दायरे में संसाधित हुआ है। उसके ज़रिये कानून का सहारा लेकर हिंदू बहुसंख्या को बहुसंख्यकवाद की तरफ धकेलने का हथकंडा अपनाया गया है। अयोध्या प्रकरण से जुड़े मुकद्दमे के लम्बे चलने का भी हिंदुत्ववादियों शक्तियों को यह फायदा हुआ है। नारीवादी समाज-वैज्ञानिक रत्ना कपूर ने अपनी दो विश्लेषणात्मक रचनाओं में दिखाया है कि भारतीय हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले साठ के दशक के बाद से ही दो रास्ते खोलते हुए दिखाई पड़ते हैं : पहला, वे हिंदू धर्म को एक समरूप शास्त्रोक्त संहिता के तहत परिभाषित करने की गुंजाइशें बनाते हैं और अयोध्या प्रकरण आते-आते यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंच कर हिंदुत्ववादी दावेदारियों को मज़बूत करती हुई दिखती है। दूसरा, हमारी ऊंची अदालतों में धर्म की स्वतंत्रता के प्रश्न पर होने वाली बहस के ज़रिये जाने-अनजाने हिंदुत्ववादी एजेंडे को सुदृढ़ करने का मौका खुलता है। रत्ना कपूर ने बहुचर्चित हिंदुत्व मुकद्दमे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू धर्म’ के बीच अंतर करने से इंकार करने पर खास तौर पर ज़ोर दिया है। उनका कहना है कि आगे चल कर अदालतों ने अयोध्या के मसले पर हिंदुत्ववादी पक्ष की यह दलील मान ली है कि हिंदुओं के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब उपासना की व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं है, बल्कि एक ़खास जगह पर सामूहिक रूप से पूजा करने का अधिकार भी उनके धर्म का अनिवार्य अंग है। ़खास बात यह है कि अल्पसंख्यक समुदायों के संदर्भ में हिंदुत्व का आग्रह यह होता है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सामूहिक नहीं, बल्कि व्यक्तिगत होना चाहिए। भाजपा अपने संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा इसी तरह से करती है, लेकिन अयोध्या मसले पर उसके पक्षकार अपना रवैया बदल कर सामूहिक रूप से पूजा करने के अधिकार की व़कालत करने लगते हैं। लेकिन रत्ना कपूर के मुताबिक इस तब्दीली पर सवालिया निशान लगाने के बजाय कानून हिंदुत्ववादी हाथों में खेलता नज़र आता है।
यह प्रक्रिया अस्सी के दशक से चल रही है। यानी तब से जब देश पर राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का शासन था और भारतीय जनता पार्टी संसद में सिर्फ दो सांसद लेकर कृष्णलाल शर्मा कमेटी बनाकर अपनी चुनावी दुर्गति के कारणों की तलाश कर रही थी। इसी समय राजनीति में एक ऐसी प्रवृत्ति पैदा हुई जो उस समय जनगोलबंदी की निगाह से देखने पर एक चुनावी रणनीति भर लगती थी, लेकिन जो दरअसल हमारे लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करती चली गई। रजनी कोठारी ने इसे ‘नृवंशीय गणनशास्त्र के आधार पर की जाने वाली राजनीति’ की संज्ञा दी है। यानी लोकतंत्र में सत्ता हासिल करने वाली रणनीति का महज़ जातियों के जोड़-तोड़ में घटते चले जाना। इस नृवंशीय गणनशास्त्र का इस्तेमाल पहले हिंदुत्ववादी राजनीति को रोकने में किया गया। कोठारी 1985 में इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि न तो चुनाव आधारित उदारतावादी लोकतंत्र और न ही भारत का सामाजिक बहुलतावाद बहुसंख्यकवादी परिघटना को रोक पाने में समर्थ हैं। एक तरह से वे उसे बढ़ावा देने की ज़मीन मुहैया करा रहे हैं। हालांकि अस्सी के दशक में कोठारी को साफ दिख रहा था कि कांग्रेस चुनावी फायदे के लिए बहुसंख्यकवादी आवेग को हवा दे रही है, लेकिन वे उस समय कमज़ोर लग रहे हिंदुत्ववादी संगठनों को नज़रंदाज़ करने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था, ‘ढेर सारे उग्र मसीही किस्म के हिंदूवादी संगठन पैदा हो गए हैं जिनका उद्देश्य हिंदुओं के बीच इस भावना को पनपाना है कि वे एक एकताबद्ध, एकरूप, केद्रीकृत अस्मिता के अंग हैं। ऐसे ही संगठन हैं— विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू एकता मंच, हिंदू रक्षा समिति, पतित पावन संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरीखे पुराने संगठन, जो कुछ समय के लिए राजनीतिक रूप से सुप्त पड़े थे, लेकिन आज काफी सक्रिय हो गए हैं।’  
राम मंदिर का मुद्दा पुराना है। वह केवल उग्र-राष्ट्रवाद के लिए ज़मीन मुहैया करा सकता है, जो वह निश्चित रूप से करायेगा ही। लेकिन इस ज़मीन पर भाजपा को एक नये मुद्दे के ज़रिये नयी इमारत खड़ी करनी पड़ेगी। यह नया मुद्दा कहीं से भी आ सकता है, और ऐसा नहीं भी हो सकता है। कुल मिला कर भाजपा को केवल राम मंदिर की नहीं, बल्कि राम मंदिर के साथ-साथ एक अतिरिक्त मुद्दे की आवश्यकता पड़ सकती है। भाजपा की तलाश जारी है। अभी तक कोई नया मुद्दा उसे नहीं मिला है जिससे राष्ट्रवादी तूफान आ सके। पूर्व सेनाध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री द्वारा पाक अधिकृत कश्मीर के संदर्भ में फौजी कार्रवाई करने जैसी अटकलों को हवा दी जा रही है। अगर ऐसा हुआ, तो यह मसल राम मंदिर से भी ज्यादा प्रभावशाली साबित हो सकता है।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।