कैक्टस की बगिया में प्रेम की तलाश

जिस शहर में हमने उम्र गुज़ारी, उस शहर की सड़कों को हम पहचान न पाये, जो मंज़िलें हमें कभी अपनी हमकदम लगती थीं, उन मंज़िलों की अब कोई बात भी न करे। कायाकल्प कर देने की अभियान यात्रायें जो आज भी निकलती हैं, लेकिन  न इन मंज़िलों की कोई पहचान है, और न उनके लिए की गई अनथक संघर्ष यात्रा का कोई क्रांति राग।
बल्कि आजकल संघर्ष यात्रा पर कौन निकलता है? उत्सव यात्रा के लिए तो रणद्वार सजते हैं। जो पहले इन शोभा यात्राओं का नेतृत्व करते थे, अब उनके नाती-पोते उनकी जगह ले चुके हैं। उनकी हर ऐसी उपलब्धि पर परिवारवाद की निन्दा होती है। पहले गद्दी पर बैठ बाप इसकी निन्दा करता था, अब सत्तासीन हो बेटा निन्दा करता है। बेशक पद यात्रायें निकलती हैं। इनमें उठने वाले नारों और उनकी प्रगतिशील तुर्शी में कोई अन्तर नहीं आया, लेकिन बन्धु, अन्तर पैदा ही कौन करना चाहता है? इन पद-यात्राओं का अतीत कहीं किसी दांडी मार्च में न तलाशने लग जाना। वह मार्च अंग्रेज शासक की हठधर्मी के विरुद्ध था। हठधर्मी का विरोध करना तो अब भी इन पद-यात्राओं ने सीख लिया है। लेकिन यह हठधर्मी उनके विरुद्ध है जो देर से पहाड़ पर कुर्सी जमा कर बैठे हैं, उनके लिये जगह खाली नहीं करते। सिंहासन पर लोकतन्त्र की जय बोलते हुए अगर चेहरे बदल जायें, तो जो नये शहसवार आये हैं, वे पुराने शहसवारों को कुछ इस प्रकार सनसनीखेज़ आरोपों की रणभूमि पर भू-लुंठित करने में जुट जाते हैं, कि जैसे पाक दामन हो जन-कल्याण का नारा लगा सब कुछ बदल देने का वायदे उन्होंने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती तो अभी तक घास छीलते रहे हैं।
जो इतिहास आज तक लिखा गया, उसे पूर्वाग्रही और विदेशी की दासता का प्रतीक बता दिया गया है, और देश के लिये नये नायकों की तलाश शुरू हो गई है।
यह केवल राजनीति और प्रशासन में ही नहीं हो रहा, साहित्य और समाज में भी है। उससे पहले जो कुछ भी लिखा गया, कहा गया, किया गया, वह सब कचरा था। नये निर्माण की घोषणाओं की या रचनाओं की, नव-सृजन की कतार तो मात्र उनसे शुरू होती है, और सम्भवत: उन्हीं पर खत्म हो जाती है।
यहां रचनाधर्मिता का अर्थ अपना यशोगान, और उपलब्धि का अर्थ अपना अभिनन्दन होता है। चिन्तन की चिन्ता, और नव-दृष्टि के आधार पर समाज और परिवेश को बदलने का संकल्प कौन करता है?
बल्कि यहां तो ऐसे-ऐसे महानुभाव नज़र आते हैं, कि जिन्हें उस भाषा का भी ज्ञान नहीं, जिसके किसी अमर रचनाकार को वह अपने मूल्यांकन की विज्ञ दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। यहां नाटक का अर्थ नौटंकी हो गया है, जो जीवन में कदम-कदम पर जितनी बड़ी नौटंकी कर सके, उसे उतना ही कामयाब मानो।
अब बीच चौराहे पर खड़े हो कर नव-जागरण का संदेश दे निर्माण पथ पर अबाध गति से चलने का सन्देश नहीं दिया जाता, बल्कि आजकल तो यहां वह जो चलता आवागमन रोक कर सड़क पर धरना लगा दे, बिजली के खम्भे या टावर पर चढ़ कर तीखी ज़ुबान से अपनी मांग से अधिक अपने विरोधियों के कच्चे चिट्ठे बयान करे, वही जागरण है। हमने कहा, हमें अपने शहर की सड़कें या उसका चेहरा-मोहरा भूलता जा रहा है। अच्छा खासा खूबसूरत और अपनेपन के नेह से भरा था यह शहर। जिस दिन इसे स्मार्ट शहर बनाने की घोषणा कर दी गई, बस उसी दिन से इसके बखिये उधड़ने शुरू हो गये। उम्र भर शहर में रहने वाले बाशिन्दे भी अब इसे पहचान नहीं पाते। अच्छी भली सड़कें थीं, और उनके बीचो बीच फूलों की रविशें, बदलते मौसम के अनुसार लहलहा कर आपको सलाम किया करती थीं। अब कहां गईं वे सड़कें और उनके बीच बीच खिलते फूलों की लम्बी कतारें। अब न फूल, न कांटे, न कैक्टस, न वीराना। जबसे इन सड़कों के नव-निर्माण का बिगुल बज गया, अच्छी- भली सड़कों के पुनरुद्वार के नाम पर इनके ठेकेदारों के, उनके श्रमिकों के कुदालों से लेकर बुलडोज़र और जे.बी.एच. मशीनों की कृपा हुई। सड़कें नव-उत्थान के नाम पर गड्डों में तबदील हो गईं। यह तबदीली जैसे किसी तोड़-फोड़ की पंचवर्षीय योजना के अधीन हुई है। एक बार टूटी तो बनने का नाम ही नहीं लेतीं। बस, वाहन चालक इन गड्डों में अपने वाहन गिरा कर इनकी मां-बाप से रिश्ता जोड़ते नज़र आते हैं। इन सड़कों पर लैम्प पोस्टों और अकेली बत्तियों की जो कतार होती थी, उन्हें उखाड़ कर इन पर एल.ई.डी. लाइट्स की दीवाली ले आने की घोषणा हो गई। दीवाली तो क्या होनी थी, अमावस्या के अंधेरे सड़कों पर घिर आये। इन पर बिजली ठेकेदारों के बिलों का भुगतान न होने की शिकायतें हावी थीं।
अब न यह अमावस्या खत्म होने में आती है, और न हमें अपने शहर को पहचान सकने की दृष्टि सामर्थ्य मिलती है। बस निचाट दिनों में भी अंधेरे की सौगात भुगतते हुए लोग केवल ‘ये दिन बदल जाने’ के, ‘अच्छे दिन आ जाने’ के वचन सुनते रहते हैं। वचन जो मंचीय भाषणों में तबदील हो जाते हैं। चुनाव दुंदुभि की आवाज़ सुनते ही उन आकर्षक चुनावी एजेण्डों में तबदील हो जाते हैं, जिनमें हर दल एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर चिल्लाता है मैं ‘तुम्हें चांद लेकर दूंगा।’ लेकिन चांद नहीं मिलता है। उसकी इंतज़ार करता हुआ चकोर भी उससे रूठ जाता है। अब शेष अंधेरे में ठोकरें खा गिरते पड़ते लेकिन फिर भी जीते लोग, और प्रेमिल कवियों की यह शिकायत, कि यार कितने नीरस हो तुम लोग? तुम्हारी रचनाओं में से प्रेम ही गायब हो गया? रचनाओं से या पूरी ज़िन्दगी से? बन्धु!